- अथर्व पंवार
वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जितना अपने पुरुषार्थ, पराक्रम, वीरता और आत्मविश्वास के लिए जाने जाते हैं उतना ही अपने कोमल हृदय के लिए भी। जहां वह चेतक के मृत्यु पर बालक की तरह फूट-फूटकर रोए थे ,वहीं जब नारी के सम्मान की बात आती थी तो वहां भी वह नारी सम्मान प्रदर्शित करते थे, भले ही वह शत्रु की नारियां ही क्यों ना हो।
भारत पर अनेक आक्रमण हुए, अनेक बार तहस-नहस हुआ, अनेक बार लूटा गया। यहां तक कि यह लुटेरे नारी को भी लूट की वस्तु समझते थे। भारतीय नारियों को यहां से गुलाम बनाकर ले जाया जाता था और मंडियों में दो-दो दीनार में बेचा जाता था। बाद में भी जब इन लोगों का शासन भारत में हुआ तो इन्होंने शत्रु रानियों को अपने हरम में रखना आरम्भ किया।
अकबर और महाराणा प्रताप दोनों समकालीन थे। दोनों महाराजा थे पर दोनों में बहुत अंतर था। नारी सम्मान भी दोनों के व्यक्तित्व को भिन्न करने का कारक था। इतालवी लेखक और भारत आए विदेशी यात्री 'निकोलाई मानुची' ने अपनी पुस्तक 'mogul india or storia do mogor' में अकबर के हरम का उल्लेख किया है। वह लिखते हैं कि "अकबर ने अपने हरम का उपयोग भी अपने राज्य के विस्तार के लिए किया। वह राज्य की राजकुमारियों से विवाह कर लेता था और इन्हीं महिलाओं के बल पर वो राजाओं को लड़वाता था।"
इसी प्रकार एक और प्रसंग मिलता है, महाराणा प्रताप की भतीजी ( शक्तिसिंह की पुत्री ) बाईसा किरणदेवी राठौर मीना बाजार में भ्रमण कर रही थी। अकबर वहां बुरका पहनकर आता था और महिलाओं से गलत व्यवहार करता था। उसने किरणदेवी से भी छेड़छाड़ थी। जिसके चलते उन्होंने क्रोध में साक्षात काली का रूप धारण कर लिया और कटार लेकर अकबर की छाती पर चढ़ गई थी। इस प्रसंग का चित्र आज भी बीकानेर संग्रहालय में लगा हुआ है।
इन सभी के विपरीत, 'ओमेंद्र रत्नू' की पुस्तक 'महाराणा' में महाराणा प्रताप का एक प्रसंग है जो उनके नारी सम्मान को दर्शाता है और जो उन्हें अकबर के व्यक्तित्व से भिन्न करता है। 1585 ईस्वी में अकबर ने अब्दुल करीम खानखाना को महाराणा प्रताप को पकड़ने भेजा था। अब्दुल करीम ने यात्रा के दौरान जब आबू के निकट पड़ाव डाला था तब महाराणा प्रताप के पुत्र कुंवर अमर सिंह ने खानखाना की पुत्री और उनके परिवार की अन्य महिलाओं को बंदी बना लिया था। वे उन शत्रुओं की स्त्रियों को कैद करके अपने पिता के सन्मुख लेकर आए। अमरसिंह के इस कृत्य को देखकर महाराणा प्रताप अत्यंत क्रोधित हुए, उन्होंने कहा "यदि हम भी युद्ध में शत्रु की महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो हममें और अकबर जैसे मुगलों के बीच क्या अंतर रह जाएगा? यह हमारे संस्कार है ?"
प्रताप ने अमरसिंह को आदेश दिया,"इसी समय खानखाना की पुत्री से राखी बंधवाओ और उसके भाई बनो। इसके पश्चात् सभी महिलाओं को ससम्मान खानखाना के शिविर में छोड़कर आओ।" इससे अमरसिंह ने महिलाओं से क्षमा मांगी और महाराणा प्रताप के आदेश का पालन किया।
इस घटना ने खानखाना का हृदय परिवर्तन कर दिया, वह एक आध्यात्मिक व्यक्ति थे और अकबर के गुरु बहराम खान के पुत्र थे। महाराणा प्रताप के संस्कारों से वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना धर्म त्याग दिया और वह कृष्ण भक्त बन गए। वह वहां से बिना उन पर आक्रमण करे ही आगरा लौट गए। जब अकबर ने उनसे ना लड़ने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा था "लड़ा मनुष्यों से जाता है जहांपनाह ,फरिश्तों से नहीं।"
हर योद्धा को एक महाप्रतापी योद्धा एक बात बनाती है वह यह कि 'मात्र शस्त्रधारण करने वाला योद्धा नहीं होता , योद्धा वह होता है जिसे ज्ञात हो कि शस्त्र किस पर नहीं चलना है।' और यही बात हमें महाराणा प्रताप जैसे महापुरुषों से सीखने को मिलती है। जैसे को तैसा के विचार का अनुसरण करने के बजाय अपनी मर्यादाओं , संस्कार और धर्मनीति को प्राथमिकता देकर उनका अनुसरण करना ही महाराणा प्रताप को मनुष्य से फरिश्ता बनता है।
महाराणा प्रताप की जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन।