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गाड़ी चलाना और गाना ही मुझे भाया

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हमें फॉलो करें भीमशंकर जोशी
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एक दिन रात के 8 बजे गली में बाजे वालों की आवाज घर के सामने सुनाई दी। उस बारात के साथ एक पाँच साल का बच्चा हो लिया। इधर घर में किसी को भी यह पता नहीं था। रात को 9 बजे जब पिता घर लौटे तो खोजबीन शुरू हो गई। यह विचार चल रहा था कि पड़ोसी ने घर में प्रवेश किया और इतनी तेज आवाज में चल रही इस बातचीत का कारण पूछा। पूरी बात जानकर पड़ोसी बोला- बातें बाद में भी कर लेंगे, चलो पहले बच्चे को तो ढूँढो।

वे बच्चे को ढूँढने निकले और पुलिस स्टेशन पहुँचे। पुलिस वाले को सारी हकीकत बताई। तब रात के साढ़े 10 बजे थे। सभी विचार ही कर रहे थे कि एक आदमी किसी बच्चे को कंधे पर लिटाकर पुलिस स्टेशन ले आया। उस आदमी ने बताया कि यह बच्चा हमारे घर के बाहर सोया था। शायद बैंड वालों के साथ आया था और बैंड वाले तो चले गए पर यह बाहर ही लेट गया। भीमा के पिता ने देखा तो तुरंत पहचान लिया कि यह तो उन्हीं का बेटा है। 5 साल की उम्र में बैंड के पीछे-पीछे जाने वाला यह बच्चा और कोई नहीं भीमा यानी कि पंडित भीमसेन जोशी थे।

गदग नाम के एक छोटे से गाँव में रहने वाला भीमा आगे चलकर देश का एक बहुत बड़ा गायक बना। इतना बड़ा कि उसे भारत का सबसे बड़ा पुरस्कार 'भारत-रत्न' मिला। कभी भीमा भी छोटे गाँव के छोरों की तरह था। जिसके माता-पिता उसे पढ़ा-लिखाकर नौकरी करने लायक बनाना चाहते थे। भीमा की अपनी पसंद कुछ और थी। ऐसी पसंद सभी में होना चाहिए। बचपन में भीमा को गाना सुनना बहुत अच्छा लगता था।

  4 नवंबर को पंडितजी को भारत रत्न मिला जो संगीत के प्रति बचपन के उनके प्रेम को मिला पुरस्कार कहा जाएगा। पंडितजी का बचपन उन सभी बच्चों के लिए प्रेरणा है जो कुछ बनने के सपने देखते हैं।      
उसने जब अब्दुल करीम खान (ख्यात गायक) का गायन रेकार्ड पर सुना तो तय कर लिया कि उसे तो बस ऐसा ही गाना सीखना है। सीखने की यह धुन सवार हो गई। भीमा की उम्र इस समय ज्यादा नहीं थी और संगीत सीखने की इस इच्छा के कारण ही वह घर से भाग निकला। तीन सालों तक भीमा ने उत्तर भारत में ग्वालियर, लखनऊ और रामपुर जैसी जगहों पर गुरु की तलाश की। किसी भी तरह अच्छा गाना सिखाने वाला मिल जाए यही भीमा की कोशिश थी। तीन सालों में उसने कई चीजें देखीं।

कई शहरों में घूमा। एक शहर से दूसरे शहर संगीत सीखने के लिए जाते हुए भीमा के पास पैसे नहीं रहते थे तो वह ट्रेन में गाना गाने लगता। लोग समझते लड़का गाता है। कुछ पैसे भी दे देते और भीमा अपने स्टेशन पहुँच जाता। यह सब तीन साल चला और फिर भीमा के पिता ने उसे ढूँढ निकाला और वापस घर ले आए। पिता को समझ आया कि बेटे की इच्छा गायक बनने की है और इसलिए उन्होंने भी बेटे की इस इच्छा को मान लिया।

1936 में अपनी इच्छा का पक्का भीमा रामभाऊ कुंदगोलकर जिन्हें हम सवाई गंधर्व के नाम से जानते हैं, से संगीत सीखने लगा। पिताजी ने इसकी व्यवस्था करवा दी और इसका मतलब था कि संगीत के प्रति भीमा के लगाव ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर दिया। सवाई गंधर्व के पास रहते हुए भीमा के लिए सबकुछ बड़ा आसान नहीं था। यहाँ पानी की बड़ी किल्लत थी। एक मील दूर से पानी लाना पड़ता था।

भीमा रोज सुबह जल्दी उठता और घड़ा सिर पर रखकर पानी लाने का काम करता। दो साल तक किसी भी तरह की शिक्षा शुरू नहीं हुई और घर के काम करने पड़ते थे। मन में बैठी गाना सीखने की ललक के आगे यह परिश्रम भीमा को ज्यादा कठिन नहीं लगता था। उसे यह बात हमेशा याद रहती थी कि किसी भी तरह मुझे एक अच्छा गायक बनना है। भीमा ने यहाँ गाना सीखा और कुछ ऐसा सीखा कि दुनियाभर में छा गया।

भीमा से भीमसेन जोशी होते हुए इस गायक ने अपनी पहली प्रस्तुति 19 बरस की उम्र में दी। गायक भीमसेन के गायन को सुनने के बाद उन्हें महाराष्ट्र और कर्नाटक के कई बड़े शहरों से गायन के न्योते आने लगे। अब भीमसेन ने एक कार खरीद ली। कार इतनी बड़ी थी कि उसमें चार संगतकार और सारे वाद्य बड़ी आसानी से आ जाते थे। हैदराबाद, पुणे, बंगलोर, रायपुर, भिलाई और बॉम्बे लगातार चक्कर लगाते हुए भीमसेनजी ने कार चलाना बहुत अच्छे से सीख लिया।

गायन के अलावा कार चलाने में भी उन्हें बहुत मजा आने लगा। यह उनका दूसरा खास शौक बन गया था। कारों में छुटपुट काम में भी वे कर लेते थे। भीमा ने संगीत से परिचय करवाने वाले अपने गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए पुणे में सवाई गंधर्व संगीत महोत्सव की शुरुआत की और तब से अब तक यह महोत्सव चला आ रहा है। देखने वालों ने इस महोत्सव में पंडित भीमसेनजी को एक आम कार्यकर्ता की तरह काम करते देखा है जो दरी बिछाने से लेकर श्रोताओं की आवभगत तक का सारा काम करते हैं। ऐसा मन का सरल व्यक्ति ही अच्छा गायक हो सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।

4 नवंबर को पंडितजी को भारत रत्न मिला जो संगीत के प्रति बचपन के उनके प्रेम को मिला पुरस्कार कहा जाएगा। पंडितजी का बचपन उन सभी बच्चों के लिए प्रेरणा है जो कुछ बनने के सपने देखते हैं। अगर तुम भी सपना देखते हो तो उसे पूरा करने का भी सोचो। सोचो, बचपन में अगर पंडितजी ने गदग में किसी दुकान पर खड़े होकर अब्दुल करीम खाँ साहब का रेकॉर्ड नहीं सुना होता तो क्या हमें एक सुरीला गायक मिलता?

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