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ईश्वर में आस्था आयु बढ़ाती है

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राम यादव

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ईश्वर का सचमुच अस्तित्व हो या न हो। कोई व्यक्ति धार्मिक हो या न हो। वह मंदिर, मस्जिद या गिरजे में जाता हो या न जाता हो। ईश्वर को चाहे जिस रूप में देखता हो। यदि वह नास्तिक नहीं है, ईश्वर का मन से स्मरण करता है, तो उसके मन की शांति ही नहीं, तन की आयु भी बढ़ती है

ईश्वर नाम की किसी सत्ता का वास्तव में अस्तित्व है भी या नहीं, यह प्रश्न विवादित होते हुए भी ईश्वर के ही नाम पर सदियों से सभी धर्मों की दुकानें चलती रही हैं। संसार के अधिकांश लोग आज भी किसी न किसी धर्म के अनुयायी हैं। मानते हैं कि किसी धर्म को अपनाए बिना ईश्वर तक अपनी बात पहुंचाना संभव नहीं है। तब भी, शोधकों के बीच यह प्रश्न लंबे समय तक उपेक्षित रहा है कि ईश्वर के प्रति धर्मगत या धर्ममुक्त आस्था का हमारे स्वास्थ्य और जीवनकाल की लंबाई पर भी क्या कोई प्रभाव पड़ता है?

कई देशों के शोधक इस बीच इस प्रश्न का विज्ञानसम्मत उत्तर पाने का प्रयास कर रहे हैं, भले ही यह प्रयास बहुत देर से शुरू हुआ है और आब भी इक्का-दुक्का ही देखने में आता है। अब तक के परिणाम बहुत ही चौंकाने वाले हैं। उन से यही पता चलता है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किसी धर्म के अनुयायी हैं या नहीं। ईश्वर को किस रूप में देखते हैं। यदि आप ईश्वर में विश्वास करते हैं, तो आप की आयु उन लोगों की अपेक्षा अधिक हो सकती है, जो ईश्वर को स्मरण नहीं करते।

जीवन चलता रहता हैः लगभग सभी धर्मों में कहा गया है कि मृत्यु के बाद भी जीवन कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में चलता रहता है। हिंदू और बौद्ध ग्रंथों का कहना है कि मृत्यु के बाद आत्मा, कर्मवाद के नियमों के अनुसार, एक नए शरीर के साथ धरती पर ही पुनर्जन्म लेती है। ईसाई और यहूदी धर्म कहते हैं कि मृत्यु के बाद कोई पुनर्जन्म नहीं होता, बल्कि इहलोक के बदले परलोक (हैवन) में एक दूसरा जीवन शुरू होता है। इस्लाम में माना जाता है कि सच्चा मुसलमान परलोक में- जहां जन्नत (स्वर्ग) है, दूध-दही की नदियां बहती हैं और सारी सुख-सुविधाएं उपलब्ध हैं- सुख-चैन की बंसी बजती है।

लेकिन, शोधकों ने पाया है कि ईश्वर के प्रति यदि आस्था है, तो स्वयं इस पृथ्वी पर हमारा सांसारिक जीवनकाल भी कुछ वर्ष लंबा हो जाता है, परलोक या स्वर्ग की तो बात ही छोड़ दें। जो लोग धार्मिक वृत्ति के हैं, नियम से पूजा-पाठ करते हैं, ध्यान लगाते या उपवास रखते हैं, उन्हें और अधिक लाभ होता है। उन्हें तन और मन को रोजमर्रा के तनाव से किंचित मुक्ति दिलाने का कुछ मौका मिल जाता है।

भिक्षु-भिक्षुणियों की लंबी आयुः ऑस्ट्रिया की राजधानी वियेना के तकनीकी विश्वविद्यालय की ओर से जर्मनी के बवेरिया राज्य में कराए गए एक अध्ययन में देखा गया है कि जर्मनी के ईसाई मठों में रहने वाले भिक्षु, जर्मन पुरुषों की औसत आयु की अपेक्षा, तीन साल अधिक जीते हैं। ईसाई मठों की भिक्षुणियों की औसत आयु भी जर्मन महिलाओं की औसत आयु से अधिक होती है। जर्मनी में पुरुषों की औसत आयु लगभग 76 और महिलाओं की 81 वर्ष है।

कुछ ऐसे ही तथ्य यूनान (ग्रीस) के थेसालोनीकी विश्वविद्यालय की ओर से वहां के आथोस पर्वत पर रहने वाले ईसाई मठवासियों के बीच कराए गए अध्ययन में भी सामने आए। वहां के भिक्षुओं की लंबी आयु का एक कारण यह भी बताया गया कि वे एक नपी-तुली मात्रा में जैतून (ऑलिव) के तेल का सेवन करते हैं और दिन में केवल दो बार दस-दस मिनट के लिए मांसरहित भोजन लेते है। मांसरहित शकाहारी भोजन भी बीमारियां दूर रखते हुए जीवन प्रत्याशा बढ़ता है।

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आस्तिक, नास्तिकों से अधिक सहनशीलः अमेरिका के इलिनॉईस राज्य में स्प्रिंगफील्ड के पास के एक छोटे से शहर के निवासी जर्मन मूल के डॉ. हैरॉल्ड क्यौनिश ऐसे प्रथम शोधकों में से एक थे, जिन्हें 1980 वाले दशक में हमारे स्वास्थ्य पर धार्मिकता के प्रभाव को जानने का विचार आया। अमेरिका के 38 प्रतिशत निवासी बहुत ही धर्मभीरू प्रोटेस्टेंट ईसाई हैं। डॉ. क्यौनिश के शहर में भी यही हाल था। उन्होंने पाया कि उन के शहर के धर्मभीरु रोगी, नास्तिकों (ईश्वर को नहीं मानने वालों) की अपेक्षा, अपनी बीमारियों को कहीं बेहतर ढंग से झेलते हैं।

डॉ. क्यौनिश इस बीच नॉर्थ कैरोलाइना की ड्यूक यूनीवर्सिटी में 'आध्यात्म, धर्मशास्त्र और स्वास्थ्य सेंटर' के निदेशक हैं। उनका कहना है कि धार्मिकवृत्ति का शारीरिक और मानसिक, दोनों तरह के स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन किस धर्म का अनुयायी है या किस भगवान की पूजा-आराधना करता है। आस्था का अनुकूल प्रभाव किसी धर्म विशेष से बंधा नहीं होता।

आस्था-प्रभाव धर्म से बंधा नहीं होताः यह एक बहुत ही दिलचस्प बात है, क्योंकि हर धर्म के धर्माचार्य ही नहीं, साधारण अनुयायी भी दूसरों पर यही रोब जमाने की कोशिश करते हैं कि उनका अपना धर्म ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है और उनका ईश्वर ही असली ईश्वर है। जो उनके धर्म को नहीं मानता, वह अधर्मी ही नहीं ईश्वरहीन (काफिर) है। मान लिया गया है धार्मिक आस्था के बिना ईश्वर में आस्था भी संभव नहीं है, मानो ईश्वर धर्मों की बपौती है। मानो धर्म ईश्वर के नाम की नहीं, ईश्वर ही धर्मों के नाम की कमाई खाता है।

डॉ. क्यौनिश के अनुसार, धर्मों का योगदान इतना ही माना जा सकता है कि वे अपने अनुयायियों को एक विशिष्ट समूह का, एक विशिष्ट भक्तसमाज का सदस्य होने की अनुभूति प्रदान करते हैं। भक्तों के मन में आंतरिक सुरक्षा का भाव ईश्वर के प्रति आस्था से आता है, न कि किसी धर्म विशेष का अनुयायी होने से। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि विश्व के प्रमुख धर्म बड़े-बूढ़ों का सम्मान करने, आपसी भाईचारा रखने या दुराचार, हिंसाचार जैसी प्रवृत्तियों से दूर रहने जैसे अपने उपदेशों से मानवीय संबंधों में सद्भावना लाते हैं।

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आस्था से मिलती है आत्मिक शांतिः डॉ. क्यौनिश मानते हैं कि ईश्वरीय आस्था से मन को जो शांति मिलती है, उससे जीवन के तनाव शिथिल होते हैं। मानसिक विषाद तथा हृदय और रक्तसंचार की बीमारियां होने की संभावना घटती है। इससे आयु बढ़ती है। डॉ. क्यौनिश कहते हैं कि जो कोई जीवनभर सप्ताह में कम से कम एक बार किसी देवालय या पूजास्थल पर जाता है, उस की आयु ललगभग सात साल तक बढ़ सकती हैं। जिनका जीवन बहुत तनावपूर्ण है और जीवनप्रत्याशा औरों से कम, सप्ताह में एक बार भगवान के घर जाने से उन की आयु 14 वर्ष तक भी बढ़ सकती है।

2002 में डॉ. क्यौनिश ने एक नया अध्ययन पेश किया। सांस और हृदय रोग के 276 रोगियों के बीच उन्होंने यह जानने का प्रयास किया कि जो लोग अकेले में 'चुपचाप ईश्वर को नमन करते हैं' और जो लोग मिल-जुल कर 'सामूहिक तौर पर धार्मिक अनुष्ठान मनाते हैं,' उनके स्वास्थ्य के बीच क्या कोई अंतर होता है। उन्होंने पाया की अपनी-अपनी बीमारी से कष्ट तो दोनों प्रकार के लोगों को था, लेकिन जो लोग नियमितरूप से किसी चर्च में जाते हैं, उन्हें अपनी बीमारी उतनी कष्टदायक नहीं लगती, जितनी चर्च में नहीं जाने वालों को लगती है।

स्वास्थ्य पर आस्था-प्रभाव का धार्मिक दोहनः डॉ. क्यौनिश की आलोचना में कहा जा सकता है कि उन्होंने 'बाइबल बेल्ट' कहलाने वाले अमेरिका के सबसे कट्टर धार्मिक ईलाक़े में अपना अध्ययन किया और अध्ययन में ऐसे लोग शामिल नहीं थे, जिन्हें धर्ममुक्त कहा जा सके। अमेरिका की ही कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रो. रिचर्ड स्लोअन हालांकि इस बात से इनकार नहीं करते कि ईश्वर के प्रति आस्था का स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है, पर साथ ही इस बात की आलोचना भी करते हैं कि अमेरिका में ईसाई धर्म और डॉक्टरी चिकित्सा के बीच एक मिलीभगत-सी बन गई है। डॉक्टर स्वयं भी क्योंकि ईसाई धर्मावलंबी होते हैं, इसलिए वे कई बार अपने मरीजों से ईश्वर-प्रार्थना करने को भी कहते हैं। दूसरी ओर, ईसाई चर्च स्वास्थ्य पर ईश्वर के प्रति अनुकूल प्रभाव का धर्मप्रचार के लिए भी लाभ उठाते हैं।

अमेरिका से बाहर यूरोप के देशों में ईश्वरीय आस्था और स्वास्थ्य के बीच संबंध पर बहुत कम लोगों ने काम किया है। ऐसे ही गिने-चुने लोगों में से एक हैं जर्मनी में बीलेफेल्ड विश्वविद्यालय के धर्मशास्त्री और मनोवैज्ञानिक प्रो. कोंस्तांतीन क्लाइन। उनका मत है कि रोगमुक्ति और आत्मा की संतुष्टि के बीच बड़ा अंतर है। अस्पताल में बिस्तर पर पड़ा आदमी सबसे पहले स्वस्थ होना चाहता है, न कि आत्मा की शांति के लिए मचल रहा होता है। डॉक्टर बीमारी तो ठीक कर सकता है, लेकिन वह आध्यात्मिक जरूरतें पूरी नहीं कर सकता। रोगी की यदि दोनों जरूरतें पूरी करनी हैं, तो अस्पतालों को अपने यहां डॉक्टरों के साथ-साथ धार्मिक पुरोहितों को भी रखना पड़ेगा।

अस्पतालों में डॉक्टरों के साथ अब पुरोहित भीः जर्मनी में इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। बर्लिन का संत हेडविश अस्पताल ऐसे रोगियों के लिए, जो अपने आप को बहुत एकाकी महसूस करते हैं, एक ईसाई पादरी और एक नन (ईसाई भिक्षुणी) की सेवाएं लेने लगा है। देखा गया है कि उन के साथ बातचीत के बाद दुखी और हताश रोगियों की स्थिति में सुधार होने लगता है। जर्मनी जैसे पश्चिमी देशों की आधुनिक चिकित्सा पद्धति (एलोपैथी) के डॉक्टर भी आब योग और ध्यान जैसी विधियों के प्रति, जिन में किसी न किसी रूप में ईश्वर का प्रसंग भी आता है, मुंह नहीं बिचकाते। जर्मनी की तो एक सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा कंपनी 'टेशनिकर क्रांकनकासे' ने तनावजन्य बीमारियों से निपटने के लिए योगाभ्यास का बिल भी अदा करना शुरू कर दिया है।

धर्म के रंग में रंगे ईश्वर के नुकसान भी हैं: वैसे, ईसाई देश होने के नाते जर्मनी जैसे पश्चिमी देशों में ईसाई धर्म की ईश्वरीय अवधारणा के प्रति लोगों का परम विश्वास भी कई बार बीमारी को ठीक होने के बदले उसे बढ़ाने वाला कारण बन जाता है। ईसाइयत में माना जाता है कि कयामत के दिन ईश्वर सब की परीक्षा लेता है कि वे धर्मपालन के प्रति कितने निष्ठावान थे। बहुत से रोगी ही नहीं, स्वस्थ लोग भी इस चिंता की चिता में जलने लगते हैं कि कयामत के दिन का क्या वे सामना कर पाएंगे? उन्हें अपने जीवन की वे यादें कचोटने लगती हैं, जिनके बारे में उनका समझना है कि वे धर्म की दृष्टि से साफ-सुथरी नहीं थीं। उन्हें डर लगने लगता है कि मृत्यु के बाद उन्हें कहीं नरक में न धकेल दिया जाए। कयामत के डर से मुक्ति दिलाने के लिए अब लोगों को यह समझाया जाने लगा है कि ईसाई भगवान, यानी ईसा मसीह, प्रताड़ना की नहीं, क्षमा की मूर्ति हैं। आत्मग्लानि करने वाले को वे क्षमादान देते हैं।

दूसरे शब्दों में, चाहे कोई धार्मिक हो या नहीं और धर्म चाहे जो भी हो, ईश्वर के प्रति आस्था का स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव जरूर पड़ता है। लेकिन, धार्मिक स्वभाव के लोगों में यह प्रभाव किसी धर्म विशेष की ईश्वरीय अवधारणा से पूरी तरह मुक्त नहीं होता। जो लोग किसी धर्म के अनुयायी नहीं होते और सीधे ईश्वर की शरण में जाते हैं, वे ईश्वर संबंधी किसी धार्मिक पचड़े से भी मुक्त रहते हैं।

शोधकों ने अभी तक यह जानने का प्रयास शायद नहीं किया है कि जो लोग स्वयं को धार्मिक मानते हैं, नियमित रूप से मंदिर, मस्जिद या चर्च में जाते हैं या घर पर ही नियमित पूज-पाठ या ईश्वर की आराधना करते हैं, क्या वे ईश्वर के डर से चोरी-बेइमानी, झूठ और मक्कारी, छल-कपट और दुराचार जैसी अनैतिकताओं से भी दूर रहते हैं? यदि नहीं रहते, तो क्या तब भी उनका स्वास्थ्य दूसरों से बेहतर और आयु लंबी होती है? यदि तब भी उनका स्वास्थ्य बेहतर और आयु लंबी पाई गई, तो बड़ा धर्मसंकट खड़ा हो जाएगा, क्योंकि इस का अर्थ यही होगा कि ईश्वर केवल अपनी पूजा चाहता है, नैतिकता-अनैतिकता से उसे कोई मतलब नहीं। समस्या यह होगी कि ऐसे अध्ययन के समय अपने बारे में भला यह कौन कहेगा कि वह 'राम-नाम भी जपता है और पराया माल अपना भी समझता है।'

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