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दुनिया के 7 सबसे बुरे लोग

हमें फॉलो करें दुनिया के 7 सबसे बुरे लोग
धर्म या सत्ता के नाम पर लोगों की हत्या करने वाले सबसे बड़े हत्यारों के बारे में शायद आप भी जानते ही होंगे, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने भयानक नरसंहार को अंजाम दिया था।
दुनियाभर में धर्म, वामपंथ और राष्ट्रवाद के नाम पर निर्दोष लोगों की हत्याएं करने का दौर जारी है। आओ जानते हैं ऐसे ही 7 क्रूर, निर्दयी और बर्बर लोगों के बारे में।
 
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ओसामा बिन लादेना : इस्लामिक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन आतंकी संगठन अल कायद का लीडर था। ओसामा ने अपने जीवन काल में लगभग छह हजार से ज्यादा लोगों की हत्या की थी, जिसमें 11 नवंबर 2001 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर किया गया हमला भी शामिल है। इस हमले में कम से कम 3 हजार लोग मारे गए थे। इससे पहले उसने 1998 में कीनिया और तंजानिया में अमेरिकी दूतावासों में हुए दो बम धमाकों में 224 लोग लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।
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इसके अलावा उसको अफ्रीका में बम धकाके और 1995 में रियाद में कार बम धमाके, सऊदी अरब में ट्रक बम हमले का भी दोषी पाया गया। एक व्यापक अभियान के तहत अमेरिकी सुरक्षा बल अफगानिस्तान स्थित तोरा-बोरा की पहाड़ियों में छिपे लादेन को मारने में असफल रहे। तब ओसामा बिन लादेना अमेरिकी कार्रवाई के चलते पाकिस्तान भागा गया था। कई सालों की मशक्कत के बाद 02 मई 2011 को अमेरिका ने इस्लामाबाद के पास एबटाबाद में एक विशेष अभियान के तहत लादेन को मार गिराया। बताया जाता है कि पाकिस्तान सरकार और वहां की आर्मी ने उसे सुरक्षित शरण दे रखी थी।
 
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एडोल्फ हिटलर : खुद को आर्य कहने वाले जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर को सबसे क्रूर माना जाता था, क्योंकि उसने लाखों यहुदियों को जिंदा जला दिया था। एडोल्फ हिटलर का जन्म ऑस्ट्रिया में 20 अप्रैल 1889 को हुआ था। वो राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन कामगार पार्टी (NSDAP) का नेता था और 1933 से 1945 तक जर्मनी का चांसलर रहा। उनकी पार्टी का चिह्न एक स्वस्तिक था। 
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हिटलर मानता था‍ कि बाहर से आए यहुदियों ने हमारे सभी संसाधनों पर कब्जा कर लिया तथा वे देश के सबसे अमीर बन बैठे हैं और अपने धन के बल पर वे राजनीति को संचालित करते हैं।
 
हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार माना गया है। उसके आदेश पर नाजी सेना ने पोलैंड पर आक्रमण किया। फ्रांस और ब्रिटेन ने पोलैंड को सुरक्षा देने का वादा किया था और वादे के अनुसार उन दोनों ने नाजी जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। यूरोप की धरती पर कत्लेआम मचाने के लिए हिटलर को सबसे ज्यादा क्रूर शासक के रूप में जाना गया।
 
हिटलर ने प्रजातंत्र से अपनी नफरत और राजनीतिक फायदे के लिए हिंसा के इस्तेमाल में यकीन को कभी नहीं छिपाया, लेकिन उन्होंने केवल कम्युनिस्टों और यहूदियों को ही जर्मनी का दुश्मन करार दिया और उन्ही के विरूद्ध बोलता था। जब रूसियों ने बर्लिन पर आक्रमण किया तो हिटलर ने 30 अप्रैल 1945, को आत्महत्या कर ली।
 
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जोसेफ स्टालिन : इस रूसी तानाशाह ने राजधानी मॉस्को के निकट अपने घर में 5 मार्च 1953 को अपने बिस्तर में ही दम तोड़ दिया था। स्ट्रोक आने के बाद ही उसने बिस्तर पकड़ लिया था। माना जाता है कि वो 2 करोड़ लोगों की मौत का जिम्मेदार था। अपने शासन का विरोध करने के कारण उसने इन लोगों को मरवाया था।
1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद बाद रूस की बागडोर स्टालिन के हाथों में आ गई थी। स्टालिन ने न सिर्फ लेनिन की नीतियों को आगे बढ़ाया बल्कि उनमें कतोर्ता लाकर कुछ और परिवर्तन भी किए। अपने विरोधियों को नष्ट करने के नाम पर स्टालिन ने जगह-जगह सेना से लोगों का दमन करवाया।
 
स्टालिन ने शीतयुद्ध के दौरान रूस को दुनिया का दूसरा परमाणु शक्ति संपन्न देश बनाया। 1939 में ग्रेट पर्ज के नाम पर सेना की मदद से लाखों हत्याएं करवाईं।
 
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इदी अमीन (1920-2003) : युगांडा के शासक इदी अमीन ने 1971 में सत्ता हथिया ली थी। उसने केवल 8 साल देश पर राज किया लेकिन ये 8 साल जनता के लिए दुखभरे 80 साल बन गए। अमीन 6 लाख लोगों की मौत का जिम्मेदार था। हालांकि आधिकारिक रूप से उसे 80 हजार लोगों की मौत का जिम्मेदार माना जाता है। अमीन को लगता था कि किसी भी काम के लिए उससे बेहतर और बड़ा कोई नहीं हो सकता।
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इदी अमीन सेना प्रमुख और युगांडा के राष्ट्रपति थे। यह मध्य अफ्रीकी देश है। इनका कार्यकाल 1971 से 1979 तक रहा। इस तानाशाह पर नरभक्षी होने के आरोप भी लगे। इदी अमीन ने अपने कार्यकाल के दौरान युगांडा को गरीबी के गर्त में ढकेल दिया था।  अमीन का क्रूर शासन उस वक्त खत्म हो गया, जब तंजानिया ने कंपाला को अपने अधिकार में ले लिया था। अमीन वहां से भाग निकला और साल 2003 में उसकी सऊदी अरब में मौत हो गई थी।
 
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मुअम्मर गद्दाफी : गद्दाफी पर हजारों लोगों को मौत के घाट उतार देने का इल्जाम है। लीबिया के सिरते शहर में एक घुमक्कड़ बद्दू कबीले में जन्मे मुअम्मर गद्दाफी का उदय दरअसल 1967 में अरब-इसराइल युद्ध में अरब जगत की हार से उपजी अरब राष्ट्रवाद की लहर से हुआ था। इस हार से कई अरब देशों में भारी असंतोष फैल गया था। लीबिया में वहां के शासक इदरिस को इस हार के लिए दोषी ठहराया जा रहा था। 
 
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पहले से ही राजशाही से असंतुष्ट लीबियाई जनता के मिजाज को समझते हुए लीबियाई सेना के 27 वर्षीय कैप्टन ने राजशाही को उखाड़ फेंकने की योजना बनाई। इदरिस के इलाज के लिए विदेश जाते ही मौके का फायदा उठाते हुए गद्दाफी ने रक्तहीन क्रांति से 1 सितंबर 1969 को इदरिस के तुर्की से वापस लौटते ही तख्ता पलट दिया। 
 
गद्दाफी मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्दुल नासिर से प्रेरित था, लेकिन थोड़े ही समय में गद्दाफी निरंकुश शासक बन गया। खुद को कर्नल घोषित कर गद्दाफी ने उत्तरी अफ्रीका के सबसे क्रूर तानाशाह के रूप में लीबिया पर 42 साल राज किया। गद्दाफी अपनी कबीलाई पहचान पर बेहद गर्व करता था। वह अपने मेहमानों का स्वागत पारंपरिक तंबू में ही किया करता था। यहां तक कि विदेश यात्राओं के दौरान भी गद्दाफी की जिद होती थी कि वो होटल के बदले अपने साथ लाए आलीशान टेंट में ही ठहरे। 
 
गद्दाफी हमेशा खूबसूरत महिला अंगरक्षकों की टोली से घिरा रहता था। यूक्रेनी नर्स और सुनहरे बालों वाली अंगरक्षकों जैसे शौक ने जल्द ही विदेशी मीडिया में गद्दाफी को सुर्खियों में ला दिया। गद्दाफी का शासन सिद्धांत यही था कि अलग-अलग जनजातियों को आपस में भिड़वा दो और राज करो। अमेरिकी खुफिया एजेंसी द्वारा गद्दाफी का तख्ता पलटने के लिए कई प्रयास किए गए। उसके बाद से गद्दाफी ने धार्मिक समर्थन के लिए अंग्रेजी कैलेंडर के महीनों के नाम तक बदल दिए। 
 
गद्दाफी ने लीबिया की आर्थिक दशा पर ध्यान देते हुए तेलशोधक कंपनियों को चेतावनी देते हुए कहा कि या तो वे नया करार करें या देश से बाहर निकल जाएं। इसके बाद लीबिया की आर्थिक स्थिति में भारी उछाल आया। इससे पहले लीबिया की अर्थव्यवस्था विदेशी तेलशोधक कंपनियों के रहमो-करम पर थी। इसके बाद तो सभी अरब देशों ने गद्दाफी के फॉर्मूले का अनुसरण किया। अरब देशों में 'पेट्रोबूम' का श्रेय बहुत हद तक गद्दाफी को ही दिया जाता है। 
 
गद्दाफी ने अपनी एक अलग ही राजनीतिक विचारधारा बनाई। उसने एक किताब भी लिखी 'ग्रीन बुक', इस किताब में 'लोगों की सरकार’ के बारे में बखान किया गया था। 1977 में गद्दाफी ने लीबिया को एक जम्हूरिया घोषित किया जिसका अर्थ था ‘लोगों का राज’। इसके पीछे तर्क दिया गया कि लीबिया अब सही मायनों में लोकतंत्र बन गया है जिसे लोकप्रिय स्थानीय क्रांतिकारी परिषदें चला रही हैं। जनता के दबाव को कम करने के लिए कर्नल गद्दाफी ने अरब सोशलिस्ट यूनियन नाम की राजनीतिक पार्टी को मंजूरी भी दे दी।
 
इस्लामी गणतंत्र का नारा लगाते हुए गद्दाफी ने 1973 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगा दी। सत्ता के मद में चूर गद्दाफी ने 1980 में कबाइली गुटों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। अफ्रीका के अरब देशों के समर्थन के लिए गद्दाफी ने उत्तरी अफ्रीका के गैर अरब लोगों के समुदाय पर निशाना साधा। 1987 में गद्दाफी ने चाड में ईसाइयों के खिलाफ भी युद्ध छेड़ दिया जिसके परिणामस्वरूप हजारों लोगों की मौत हुई। 
 
सांस्कृतिक क्रांति के दौरान गद्दाफी ने सभी निजी व्यवसाय बंद करवा दिए तथा शैक्षणिक किताबों को आग के हवाले करवा दिया। अपने आलोचकों को गद्दाफी ने मौत के घाट उतरवा दिया। अमेरिका, यूरोप और मध्य-पूर्व में बसे अपने आलोचकों को मारने के लिए गद्दाफी ने भाड़े के हत्यारों का भी इस्तेमाल किया। 
 
गद्दाफी ने उत्तरी आयरलैंड के आईआरए जैसे आतंकी गुटों के साथ-साथ फिलीपीन्स में अबू सय्याफ जैसे खतरनाक आतंकी सगठन को भी समर्थन दिया। गद्दाफी पर स्कॉटलैंड के लॉकरबी में दिसंबर 1988 में पैन एम के एक विमान को उड़ाने की साजिश का भी आरोप लगा था। पश्चिमी देशों को गद्दाफी कभी नहीं सुहाया। 
 
2011 में ट्यूनीशिया से फैली अरब क्रांति से सबसे बुरी तरह लीबिया ही झुलसा है और गद्दाफी के खात्मे के बाद यहां की प्रचुर तेल संपदा के भविष्य पर भी सवाल खड़े हो गए हैं। गद्दाफी के अंत से 'तेल के खेल' में उलझे अरब राष्ट्रों के लिए एक चेतावनी उठी है जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता। 
 
लीबिया पर 42 वर्षों तक एकछत्र राज करने वाले तानाशाह मरने से पहले जान बख्शने के लिए सरकारी सैनिकों से खूब गिड़गिड़ाए। गद्दाफी के आखिरी शब्द थे- 'मुझे गोली मत मारो'। 
 
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सद्दाम हुसैन (1937-2006) : सद्दाम हुसैन पर हजारों कुर्द, शिया और तुर्की के मुसलमानों की मौत का इल्जाम है। उसने इराक के शियाओं को हाशिये पर धकेल रखा था। शियाओं के पवित्र स्थान करबला पर जाने पर रोक लगा रखी थी। इराक में सद्दाम हुसैन की मर्जी के खिलाफ एक पत्ता भी नहीं हिलता था। उसने और उसके बेटों ने इराकी जनता को त्रस्त कर रखा था। उसने शियाओं पर इतने जुल्म ढाए थे कि इंसानियत भी रो पड़ी थी।
 
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सद्दाम हुसैन के जुल्मोसितम की कहानी जितनी खौफनाक है उनके राष्ट्रपति बनने का सफर उतना ही दिलचस्प। 2 दशकों तक इराक के राष्ट्रपति रहे सद्दाम हुसैन का जन्म 28 अप्रैल 1937 को बगदाद के उत्तर में स्थित तिकरित के पास अल-ओजा गांव में हुआ था। उनके जन्म से पहले ही उनके पिता की मौत हो गई थी। साल 1957 में 20 साल के सद्दाम ने बाथ पार्टी की सदस्यता ली। पार्टी में रहकर उन्होंने सुन्नी जगत में अपनी अलग छवि बनाई और पर्दे के पीछे अपना एक अलग समूह तैयार करते रहे। 16 जुलाई 1979 को अल बकर को सत्ता से हटाकर वे स्वयं इराकी गद्दी पर बैठ गए। 
 
1962 में इराक में विद्रोह हुआ और ब्रिगेडियर अब्दुल करीम कासिम ने ब्रिटेन के समर्थन से चल रही राजशाही को हटाकर सत्ता अपने कब्जे में कर ली। लेकिन उनकी सरकार के खिलाफ भी बगावत हुई हालांकि ये नाकाम रही। सद्दाम हुसैन भी इस बगावत में शामिल थे और पकड़े जाने के डर से सद्दाम भागकर मिस्र में जाकर छिप गए।
 
1968 में एक बार फिर इराक में विद्रोह हुआ और इस बार 31 वर्षीय सद्दाम हुसैन ने जनरल अहमद हसन अल बक्र के साथ मिलकर सत्ता पर कब्जा किया। वक्त के साथ-साथ सद्दाम हुसैन ने सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली और वे अपने रिश्तेदारों तथा सहयोगियों को सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करते चले गए।
 
सत्ता संभालते ही उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों को मारना शुरू कर दिया। इसी दौरान 1982 में सद्दाम हुसैन ने अपने ऊपर हुए एक आत्मघाती हमले के बाद दुजैल गांव में 148 लोगों की हत्या करवा दी थी। अगस्त 1990 में इराक ने कुवैत को तेल के दामों को नीचे गिराने के आरोप लगाकर उसके साथ जंग छेड़ दी। जनवरी 1991 में अमेरिकी फौज के दबाव के दखल के बाद इराकी सेना को कुवैत से पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस जंग में हजारों इराकी सैनिक मारे गए और पकड़े गए।
 
लेकिन इस शिकस्त के बाद सद्दाम को इराक में शिया समुदाय के विद्रोह का सामना पड़ा और साल 2000 आते-आते अमेरिका में जॉर्ज बुश की ताजपोशी ने सद्दाम सरकार पर दबाव और बढ़ा दिया। इसके बाद 2002 में संयुक्त राष्ट्र के दल ने इराक का दौरा किया और वहां रासायनिक और जैविक हथियारों का जखीरा ढूंढने की कोशिश की लेकिन इसमें उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली। 
 
बावजूद इसके मार्च 2003 में अमेरिका ने अपने मित्र देशों के साथ इराक पर हमला कर दिया और आखिरकार 40 दिन की जंग के बाद 9 अप्रैल 2003 को सद्दाम हुसैन की सरकार को गिरा दिया गया। इसके बाद 13 दिसंबर 2003 को सद्दाम हुसैन को तिकरित के एक घर में अंदर बने बंकर से गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद सद्दाम पर कई मामलों में मुकदमा चलाया गया। 
 
आखिरकार 5 नवंबर 2006 को सद्दाम हुसैन को मौत की सजा सुना दी गई और उत्तरी बगदाद के खदीमिया इलाके के कैंप जस्टिस में फांसी दे दी गई। इसके साथ ही दुनिया से एक और तानाशाह का वजूद हमेशा-हमेशा के लिए मिट गया, लेकिन आज इराक में उसकी जगह इस्लामिक स्टेट ने जगह बनाना शुरू कर दी है। इसका प्रमुख बगदादी सद्दाम से भी खतरनाक मंसूबों के साथ आगे बढ़ रहा है।
 
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अबु बक्र अल-बगदादी : वर्तमान में यह इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक का मुखिया है। इस्लाम के नाम पर सीरिया और इराक में इस पर सैंकड़ों शियाओ, यजीदियों और ईसाइयों की हत्या का आरोप है।
 
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माना जाता है कि अबू बक्र अल बग़दादी का जन्म 1971 में इराक के सामारा नगर में हुआ था। इराक और सीरिया के अधिकतर हिस्सों पर कब्जा कर चुके बगदादी को ओसामा बिन लादेना का सच्चा वारिस माना जाता है। 
 
कुछ लोग मानते हैं कि सद्दाम हुसैन के शासनकाल से ही वो एक चरमपंथी जिहादी था। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि चरमपंथ की ओर उनका झुकाव दक्षिणी इराक में स्थित कैंप बक्का में चार साल अमेरिकी हिरासत में रहने के दौरान हुआ। इस कैंप में अधिकांश अल-कायदा कमांडरों को रखा गया था। 
 
वो इराक़ में अल-कायदा के नेता के रूप में उभरा। फिर साल 2010 में अल कायदा के इसके कई समूहों में से एक बाद में आईएसआईएस बन गया। बगदादी उस समय सुर्खियों में आया जब इसने सीरिया के अल-नसरा के साथ विलय की कोशिश की।
 
अक्टूबर 2011 में अमेरिकी अधिकारियों ने बगदादी को 'आतंकी' घोषित कर दिया था और उनके जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए पर एक करोड़ डॉलर का ईनाम घोषित कर दिया। दुनिया के सबसे दुर्दांत जिहादी संगठनों में से एक के मुखिया के बारे में कहा जाता है कि वह पुरी ‍दुनिया में सुन्नी शासन की स्थापना करना चाहता है। 
 
बगदादी के लाड़ाकों के कई हमलों का अंजाम दिया है जिसमें ताजा मामले में पेरिस का हमला है। इससे पहले उसने रूस के एक यात्री विमान को मार गिराए जाने का भी दावा किया था। 
 
आईएसआईएस जिहादी सुन्नी लड़ाकों का संगठन माना जाता है जो इराक के शिया बहुसंख्यकों को खत्म कर सुन्नी शासन की स्थापना करना चाहते हैं। इराक में पिछले लंबे अरसे से शिया और सुन्नी समुदायों के बीच झगड़ा चल रहा है। इराक में शिया सरकार है. जबकि सुन्नी इराक के चरमपंथी हैं। सद्दाम हुसैन सुन्नी थे. अमेरिका ने सद्दाम को खत्म कर दिया। अब सद्दाम के समर्थक भी चरमपंथी ISIS के साथ जुड़ गए हैं। शिया समुदाय के लोग उनके निशाने पर हैं।
 
आईएसआईएस ना सिर्फ इराक के इलाकों में अपना कब्जा जमाने में जुटा है। बल्कि सीरिया के जेहादी सुन्नी संगठनों को भी अपने साथ मिलाने में जुटा है। इराक का पड़ोसी सीरिया गृह युद्ध से जूझ रहा है और इसका फायदा आईएसआईएस को मिल रहा है। पश्चिमी देशों का मानना है कि सीरिया के कई कट्टरपंथी संगठन आईएसआईएस की गुपचुप तरीके से मदद कर रहे हैं। इसके अलावा आरोप यह भी है कि साऊदी अरब सहित दूसरे कई इस्लामिक देश भी इसका सपोट कर रहे हैं।
 
आईएसआईएस अल कायदा को पछाड़कर दुनिया का सबसे असरदार और धनी आतंकवादी संगठन बन चुका है। आईएसआईएस की कमान इब्राहिम अवाद इब्राहिम अली अल बादरी उर्फ अबू बकर अल बगदादी के हाथ में है। 

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