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जिसके भी पास रहा कोहिनूर, वो हो गया बर्बाद!

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भारतीय मूल के ब्रिटिश सांसद कीथ वाज ने अपनी सरकार से कोहिनूर हीरे को भारत को लौटाने का आग्रह करके ब्रिटेन की महारानी के मुकुट में सुशोभित अनमोल हीरे को एक बार फिर सुर्खियों में ला दिया था। भारत के कई लोग चाहते हैं कि कोहिनूर को वापस भारत में लाया जाए, लेकिन ये लोग कोहिनूर से जुड़े इतिहास को नहीं जानते इसीलिए ऐसी मांग कर रहे हैं। भारत अकेला देश नहीं है, जो इस हीरे पर दावा जता रहा है। साल 1976 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री जिम कैलेघन से इसे उनके देश को लौटाने का अनुरोध किया था। इसके अलावा अफगानिस्तान के तालिबान शासक और ईरान ने भी इस पर अपना दावा पेश किया है।

'कोहिनूर' का अर्थ होता है 'रोशनी का पहाड़'। ऐसी मान्यता है कि यह हीरा अभिशप्त है। कहते हैं कि यह हीरा जिसके भी पास रहता है उसकी जिंदगी बर्बाद हो जाती है। इस हीरे ने कई राजपरिवारों को तबाह कर दिया। कई साम्राज्यों ने इस हीरे को अपने पास रखा लेकिन जिसने भी रखा वह मौत के मुंह में चला गया। जिसके पास भी यह पहुंचा, उसका परचम शुरू में तो खूब लहराया लेकिन अंत भी बुरी तरह हुआ।

 
माना जाता है कि कोहिनूर हीरा वर्तमान भारत के आंध्रप्रदेश राज्य के गुंटूर जिले में स्थित गोलकुंडा की खदानों से प्राप्त हुआ था। पर यह हीरा खदान से कब बाहर आया? इसकी कोई पुख्ता जानकारी इतिहास में मिलती नहीं है। यह मात्र जनश्रुति या अफवाह ही है। एक अन्य कथा के अनुसार लगभग 3200 ई.पू. यह किसी को हीरा नदी की तली में मिला था।
 
हालांकि भारत की गोलकुंडा की खदानों से कई बेशकीमती हीरे निकले हैं, जैसे दरियाई नूर, नूर-उन-ऐन, ग्रेट मुगल, ओरलोव, आगरा डायमंड, अहमदाबाद डायमंड, ब्रोलिटी ऑफ इंडिया जैसे न जाने कितने ऐसे हीरे हैं, जो कोहिनूर जितने ही बेशकीमती हैं। शायद यही वजह होगी कि कोहिनूर को भी गोलकुंडा से निकला हुआ मान लिया गया हो।
 
कहा जाता है कि यह हीरा 1306 में तब चर्चा में आया जबकि इसको पहनने वाले एक शख्स ने लिखा कि जो भी इंसान इस हीरे को पहनेगा, वो इस संसार पर राज तो करेगा लेकिन इसी के साथ उसका दुर्भाग्य भी शुरू हो जाएगा। हुआ भी यही।
 
आओ, अगले पन्नों पर जानते हैं इस अभिशप्त हीरे से जुड़ी रहस्यमयी जानकारी और यह भी कि सबसे पहले यह हीरा किसके पास था...? 
 
अगले पन्ने पर जानिए क्या है कोहिनूर की कीमत...
 

क्या है कोहिनूर हीरे की कीमत : कोहिनूर हीरा अपने पूरे इतिहास में अब तक एक बार भी नहीं बिका है। यह या तो एक राजा द्वारा दूसरे राजा से जीता गया या फिर इनाम में दिया गया इसलिए इसकी कीमत कभी नहीं लग पाई।
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हालांकि इसकी कीमत क्या हो सकती है? इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि आज से 60 साल पूर्व हांगकांग में एक ग्राफ पिंक हीरा 46 मिलियन डॉलर में बिका था, जो कि मात्र 24.78 कैरेट का था जबकि कोहिनूर 105.6 कैरेट का है। इस हिसाब से कोहिनूर की वर्तमान कीमत कई बिलियन डॉलर हो सकती है। 
 
कोहिनूर की वर्तमान कीमत लगभग 150 हजार करोड़ रुपए है। 105 कैरेट (लगभग 21.600 ग्राम) का यह हीरा महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के ताज का हिस्सा है।
 
इस वक्त कोहिनूर कहां है, जानिए अगले पन्ने पर...
 

ब्रिटेन के पास : इस वक्त कोहिनूर हीरा ब्रिटेन के राजपरिवार के पास है। लंदन टॉवर, ब्रिटेन की राजधानी लंदन के केंद्र में टेम्स नदी के किनारे बना एक भव्य किला है जिसे सन् 1078 में विलियम द कॉकरर ने बनवाया था। राजपरिवार इस किले में नहीं रहता है और शाही जवाहरात इसमें सुरक्षित हैं जिनमें कोहिनूर हीरा भी शामिल है।
 
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ब्रिटेन के राजपरिवार के हाल भी किसी से छुपे नहीं हैं। अकाल मौत, कत्ल और बदनामी के कई दौर सहन करने के बाद भी आज यह हीरा इस परिवार के पास ही है।
 
कोह‌िनूर 1849 में ब्रिटिश ईस्ट इंड‌िया कंपनी के हाथ लगा और 1850 में ब्रिटेन की महारानी व‌िक्टोर‌िया के पास पहुंचा। अंग्रेज काल में कोहिनूर को 1 माह 8 दिन तक जौहरियों ने तराशा और फिर उसे रानी विक्टोरिया ने अपने ताज में जड़वा लिया था।
 
दरअसल, महारानी विक्टोरिया को कोहिनूर के शापित होने की बात बताई जाती है, तब महारानी उस हीरे को अपने ताज में जड़वाकर 1852 में स्वयं पहनती है तथा यह वसीयत करती है कि इस ताज को सदैव महिला ही पहनेगी। यदि कोई पुरुष ब्रिटेन का राजा बनता है तो यह ताज उसकी जगह उसकी पत्नी पहनेगी।
 
पूर्व में कोहिनूर 793 कैरेट का था। 1852 से पहले तक यह 186 कैरेट का था। पर जब यह ब्रिटेन पहुंचा तो महारानी को यह पसंद नहीं आया इसलिए इसकी दुबारा कटिंग करवाई गई जिसके बाद यह 105.6 कैरेट का रह गया। कहते हैं कि महारानी अलेक्जेंड्रिया इसे प्रयोग करने वाली प्रथम महारानी थीं। 
 
राजपरिवार ने किंग जॉर्ज षष्टम की पत्नी क्वीन एलिजाबेथ के क्राउन में कोहिनूर जड़वा दिया गया और तब से लेकर आज तक यह हीरा ब्रिटिश राजघराने से संबंधित महिलाओं की ही शोभा बढ़ा रहा है।
 
पर कई इतिहासकारों का मानना है कि महिला द्वारा धारण करने के बावजूद इसका असर खत्म नहीं हुआ। जबसे यह हीरा ब्रिटेन की महारानी के पास गया, तब से ब्रिटेन के साम्राज्य के अंत की शुरुआत भी होने लगी।
 
अगले पन्ने पर जानिए ब्रिटिश राजपरिवार से पहले यह हीरा किसके पास था, अगले पन्ने पर...
 

कैसे आया रणजीत सिंह के पास कोहिनूर : बात सन् 1812 की है, जब पंजाब पर महाराजा रणजीत सिंह का एकछत्र राज्य था। एक दिन उनके पास अफगानिस्तान की मल्लिका बेगम वफा बेगम आई और कहने लगी कि मेरे पति शाहशुजा कश्मीर के सूबेदार अतामोहम्मद के कैदखाने में कैद हैं। मेहरबानी कर आप मेरे पति को अतामोहम्मद की कैद से रिहा करवा दें, इस अहसान के बदले बेशकीमती कोहिनूर हीरा आपको भेंट कर दूंगी। ...दरअसल महमूद शाह से पराजित हो गया था शाहशुजा। 
 
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उस समय महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर के सूबेदार अतामोहम्मद के शिकंजे से कश्मीर को मुक्त कराने का अभियान शुरू किया था। इस अभियान से भयभीत होकर अतामोहम्मद कश्मीर छोड़कर भाग गया। कश्मीर अभियान के पीछे एक अन्य कारण भी था। अतामोहम्मद ने महमूद शाह द्वारा पराजित शाहशुजा को शेरगढ़ के किले में कैद कर रखा था। उसे कैदखाने से मुक्त कराने के लिए उसकी बेगम वफा बेगम ने लाहौर आकर महाराजा रणजीत सिंह से प्रार्थना की और कहा कि मेहरबानी कर आप मेरे पति को अतामोहम्मद की कैद से रिहा करवा दें, इस अहसान के बदले बेशकीमती कोहिनूर हीरा आपको भेंट कर दूंगी। शाहशुजा के कैद हो जाने के बाद वफा बेगम ही उन दिनों अफगानिस्तान की शासिका थी।
 
अत: एक अभियान के तहत महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर को आजाद करा लिया। उनके दीवान मोहकमचंद ने शेरगढ़ के किले को घेरकर वफा बेगम के पति शाहशुजा को रिहा कर वफा बेगम के पास लाहौर पहुंचा दिया। हालांकि बाद में बेगम वफा कोहिनूर देने से आनाकानी करने लगी, लेकिन अंत में 1813 में महाराजा रणजीत सिंह ने कोहिनूर उनसे हासिल कर ही लिया। जब तक यह कोहिनूर शाहशुजा के पास था उनके बुरे दिन ही चल रहे थे, लेकिन जब यह हीरा महाराजा रणजीत सिंह के पास आया तो रणजीत सिंह के बुरे दिन शुरू हो गए। एक ओर तो उन्होंने अपनी जबरदस्त धाक जमाई तो दूसरी ओर उनके साम्राज्य का पतन होना भी शुरू हो गया था।
 
उल्लेखनीय है कि इसी कोहिनूर को हड़पने के लालच में भारत पर आक्रमण करने वाले अहमद शाह अब्दाली के पौत्र जमान शाह को स्वयं उसी के भाई महमूद शाह ने कैदखाने में भयंकर यातनाएं देकर उसकी आंखें निकलवा ली थीं। जमान शाह अहमद शाह अब्दाली के बेटे तैमूर शाह का बेटा था जिसका भाई था महमूद शाह जिससे शाहशुजा पराजित हो गया था और जिसे बाद में अतामोहम्मद ने कैद कर लिया था।
 
अंग्रेजों के पास ऐसे आया कोहिनूर : दरअसल, फिरोजपुर क्षेत्र में सिख सेना वीरतापूर्वक अंग्रेजों का मुकाबला कर रही थी किंतु सिख सेना के ही सेनापति लालसिंह ने विश्वासघात किया और मोर्चा छोड़कर लाहौर पलायन कर गया। इस कारण विजय के निकट पहुंचकर भी सिख सेना हार गई। सिखों की इस हालत के साथ ही महाराजा रणजीत सिंह की दौलत पर भी अंग्रेजों का कब्जा हो गया जिसमें कोहिनूर भी शामिल था। लॉर्ड हार्डिंग ने इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया को खुश करने के लिए कोहिनूर हीरा लंदन पहुंचा दिया, जो 'ईस्ट इंडिया कंपनी' द्वारा रानी विक्टोरिया को सौंप दिया गया। उन दिनों महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र दिलीप सिंह वहीं थे। कुछ लोगों का कथन है कि दिलीप सिंह से ही अंग्रेजों ने लंदन में कोहिनूर हड़पा था। 
 
सन् 1839 में महाराजा रणजीत सिंह का निधन हो गया। उनकी समाधि लाहौर में बनवाई गई, जो आज भी वहां कायम है। उनकी मौत के साथ ही अंग्रेजों का पंजाब पर शिकंजा कसना शुरू हो गया। अंग्रेज-सिख युद्ध के बाद 30 मार्च 1849 में पंजाब ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया गया।

अगले पन्ने पर शाहशुजा से पहले यह किसके पास...
 

अहमद शाह दुर्रानी : शाहशुजा से पहले कोहिनूर हीरा अफगानिस्तान के शहंशाह अहमद शाह दुर्रानी के पास था। अहमद शाह दुर्रानी की 16 अक्टूबर 1772 में मृत्यु हुई। उनकी मौत के बाद उनके वंशज शाहशुजा दुर्रानी के पास यह हीरा था। हमने पहले ही बताया है कि किस तरह शाहशुजा से यह हीरा महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंचा। 
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पर कुछ समय बाद महमूद शाह ने शाहशुजा को अपदस्थ कर दिया दिया था। अहमद शाह अब्दाली का पौत्र था महमूद शाह। इसके पिता का नाम तैमूर शाह और भाई का नाम नाम जमान शाह था। जमान शाह को मारकर महमूद शाह गद्दी पर बैठा था।
 
1813 ई. में अफगानिस्तान के अपदस्थ शहंशाह शाहशुजा कोहिनूर हीरे के साथ भागकर लाहौर पहुंचा। उसने कोहिनूर हीरे को पंजाब के राजा रणजीत सिंह को दिया एवं इसके एवज में राजा रणजीत सिंह ने शाहशुजा को अफगानिस्तान का राजसिंहासन वापस दिलवाया था।
 
अहमद शाह दुर्रानी से पहले किसके पास था कोहिनूर, अगले पन्ने पर...
 
 

नादिर शाह के पास था कोहिनूर : अहमद शाह दुर्रानी के पहले ईरानी शासक नादिर शाह के पास यह कोहिनूर था। कहते हैं कि नादिर शाह ने ही इस हीरे का नाम 'कोहिनूर' रखा था। इससे पहले इसका क्या नाम था? यह शोध का विषय है। नादिर शाह ने यह हीरा सन् 1739 में हासिल किया था। 
 
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भारत से कोहिनूर ले जाने के ठीक 8 साल बाद यानी 1747 में नादिर शाह की हत्या कर दी गई और कोहिनूर हीरा अफगानिस्तानी शहंशाह अहमद शाह दुर्रानी के पास पहुंच गया। दुर्रानी की मौत के बाद उनके वंशज शाहशुजा दुर्रानी ने इस हीरे को अपने पास रखा। लेकिन इसी के कारण उसके भी बुरे दिन शुरू हो गए थे। शाहशुजा कश्मीर में कैद हो गए थे जिसे बाद में महाराजा रणजीत सिंह ने आजाद कराया था। शाहशुजा ने तब यह हीरा रणजीत सिंह को दे दिया था। 
 
अगले पन्ने पर नादिर शाह के पास कैसे आया यह हीरा...
 

नादिर के पहले था शाहजहां के पास कोहिनूर : सन् 1739 में फारसी शासक नादिर शाह भारत आया और उसने मुगल सल्तनत पर आक्रमण कर दिया। उस वक्त दिल्ली पर औरंगजेब का राज था। औरंगजेब शाहजहां का पुत्र था।
 
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शाहजहां का एक सिंहासन था जिसे तख्त-ए-ताउस कहते थे। कोहिनूर इस तख्त-ए-ताउस में ही जड़ा हुआ था। जब तक यह शाहजहां के पास था, तब तक उनकी शौहरत, दौलत और साम्राज्य तो बढ़ता ही गया साथ ही दूसरी ओर से दुर्भाग्य भी शुरू हो गया था। 
 
शाहजहां ने इस कोहिनूर हीरे को अपने मयूर सिंहासन में जड़वाया था लेकिन उनका विशाल साम्राज्य उनके ही क्रूर बेटे औरंगजेब के हाथ में चला गया। उनकी पसंदीदा पत्नी मुमताज का इंतकाल हो गया और उनके बेटे ने उन्हें उनके अपने महल में ही नजरबंद कर दिया। औरंगजेब जब तख्त पर बैठा तो उस हीरे का असर उस पर भी शुरू हो गया।
 
1739 में फारसी शासक नादिर शाह भारत आया और उसने मुगल सल्तनत पर आक्रमण कर दिया। इस तरह मुगल सल्तनत का पतन हो गया और नादिर शाह अपने साथ तख्त-ए-ताउस और कोहिनूर हीरे को फारस ले गया।
 
उसने इस हीरे का नाम 'कोह-इ-नूर' रखा जिसका अर्थ होता है 'रोशनी का पहाड़'। इस हीरे के कारण ही नादिर शाह की हत्या हो गई। 
 
अगले पन्ने पर शाहजहां से पहले किसके पास था कोहिनूर, जानिए...
 

तुगलक वंश के पास था कोहिनूर : मुगल सल्तनत के पास कई वर्षों तक रहने के पहले यह कोहिनूर उन्होंने तुगलक वंश से हथियाया था। मुगलों के पहले तुगलक वंश के पास था यह कोहिनूर हीरा। 
 
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ज्ञात इतिहास के अनुसार सन् 1325 से 1351 ई. तक यह हीरा मोहम्मद बिन तुगलक के पास रहा। इस हीरे के ही कारण उसका साम्राज्य बढ़ा और इस हीरे के ही कारण उसके शासन का बुरी तरह अंत हो गया।
 
यह कोहिनूर हीरा बहुत काल तक भारत के क्षत्रिय शासकों के पास रहा तथा पहले तुगलक वंश और फिर मुगलों के हाथ लगा। मुगलों से यह नादिर शाह के हाथ लगा और फिर शाहशुजा के पास होते हुए महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंचा और अंत में यह महारानी विक्टोरिया को सौंप दिया गया।
 
मोहम्मद ‍‍बिन तुगलक से पहले किसके पास था कोहिनूर, जानिए अगले पन्ने पर...
 

काकतीय वंश के पास था कोहिनूर : तुगलक वंश के राजाओं के पहले यह हीरा काकतीय वंश के पास था। यह हीरा उनके पास कहां से आया, यह कोई नहीं जानता। इस वंश के राजा ईस्वी सन् 1083 से ही शासन कर रहे थे। 1323 में तुगलक शाह प्रथम से लड़ाई में हार के साथ काकतीय वंश समाप्त हो गया।
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काकतीय साम्राज्य के पतन के पश्चात यह हीरा 1325 से 1351 ई. तक मोहम्मद बिन तुगलक के पास रहा और 16वीं शताब्दी के मध्य तक यह विभिन्न मुगल सुल्तानों के पास रहा। बाद में शाहजहां के अंत के बाद यह हीरा नादिर शाह ईरान ले गया। नादिर शाह से अहमद शाह दुर्रानी और दुर्रानी से यह शाहशुजा के पास चला गया। शाहशुजा ने इसे रणजीत सिंह को दे दिया था।
 
काकतीय वंश से पहले किसके पास था यह कोहिनूर, जानिए अगले पन्ने पर...
 

ग्वालियर के राजा के पास था कोहिनूर : हालांकि इस हीरे का वर्णन 'बाबरनामा' में मिलता है जिसके अनुसार 1294 के आस-पास यह हीरा ग्वालियर के किसी राजा के पास था, तब इसका नाम 'कोहिनूर' नहीं था।
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इस हीरे को पहचान 1306 में मिली, जब इसको पहनने वाले एक शख्स ने लिखा कि जो भी इंसान इस हीरे को पहनेगा, वो इस संसार पर राज करेगा लेकिन इसी के साथ उसका दुर्भाग्य भी शुरू हो जाएगा। 
 
ग्वालियर के राजा के पहले किसके पास था कोहिनूर...
 

मालवा के राजाओं के पास था कोहिनूर : कहते हैं कि पहले इसका नाम 'स्यमंतक मणि' था। यह मणि मालवा के राजाओं के पास थी। हालांकि इसके कोई पुख्‍ता सबूत नहीं मिलते तथा यह कथा भी जनश्रुति पर आधारित है।
 
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कई स्रोतों और शोधानुसार कोहिनूर हीरा लगभग 5,000 वर्ष पहले मालवा के राजा सत्राजित के पास था। सत्राजित भगवान कृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता थे।
 
सत्राजित ने यह मणि अपने देवघर में रखी थी। वहां से वह मणि पहनकर उनका भाई प्रसेनजित आखेट के लिए चला गया। जंगल में उसे और उसके घोड़े को एक सिंह ने मार दिया और मणि अपने पास रख ली। सिंह के पास मणि देखकर जाम्बवंतजी ने सिंह को मारकर मणि उससे ले ली और उस मणि को लेकर वे अपनी गुफा में चले गए, जहां उन्होंने इसको खिलौने के रूप में अपने पुत्र को दे दी।
 
जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से न लौटा तो सत्राजित को बड़ा दुख हुआ। उसने सोचा कि श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उसका वध कर दिया होगा अतः बिना किसी प्रकार की जानकारी जुटाए उसने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मारकर स्यमन्तक मणि छीन ली है, तब श्रीकृष्ण ने अपने ऊपर लगे लांछन को मिटाने के लिए मणि की खोज की।
 
इस लोक-निंदा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए। वहां पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालने और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए। रीछ के पैरों की खोज करते-करते वे जाम्बवंत की गुफा पर पहुंचे और गुफा के भीतर चले गए। वहां उन्होंने देखा कि जाम्बवंत की पुत्री उस मणि से खेल रही है। श्रीकृष्ण को देखते ही जाम्बवंत युद्ध के लिए तैयार हो गया।
 
युद्ध छिड़ गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथियों ने उनकी 7 दिन तक प्रतीक्षा की, फिर वे लोग उन्हें मरा जानकर पश्चाताप करते हुए द्वारिकापुरी लौट गए। इधर 21 दिनों तक लगातार युद्ध करने पर भी जाम्बवंत श्रीकृष्ण को पराजित न कर सका। तब उसने सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था। यह पुष्टि होने पर उसने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी। उल्लेखनीय है कि जाम्बवंती-कृष्ण के संयोग से महाप्रतापी पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम साम्ब रखा गया। इस साम्ब के कारण ही कृष्ण कुल का नाश हो गया था। 
 
श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए तो सत्राजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ। इस लज्जा से मुक्त होने के लिए उसने भी अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया। उन्होंने कहा कि अब आप ही इस मणि को रखिए, तब श्रीकृष्ण ने कहा कि कोई ब्रह्मचारी और संयमी व्यक्ति ही इस मणि को धरोहर के रूप में रखने का अधिकारी है। श्रीकृष्ण जानते थे कि इस मणि को रखने का अर्थ क्या है अत: उन्होंने वह मणि सत्राजित को दे दी। 

यहां तक तो कहानी सही है, लेकिन कहते हैं कि यह मणि श्रीकृष्ण ने अक्रूरजी को दे दी थी। उनके पास से यह कहां चली गई यह कोई नहीं जानता। हालांकि पौराणिक कथा अनुसार नीचे लिखी कहानी को सत्य मानना कठिन है...
 
कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण किसी काम से इंद्रप्रस्थ चले गए। तब अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा यादव ने सत्राजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली। सत्राजित की मौत का समाचार जब श्रीकृष्ण को मिला तो वे तत्काल द्वारिका पहुंचे। वे शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गए। 
 
इस कार्य में सहायता के लिए बलराम भी तैयार थे। यह जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं भाग निकला। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार तो डाला, पर मणि उन्हें नहीं मिल पाई।
 
बलरामजी भी वहां पहुंचे। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि इसके पास नहीं है। बलरामजी को विश्वास न हुआ। वे अप्रसन्न होकर विदर्भ चले गए। श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने पर लोगों ने उनका भारी अपमान किया। तत्काल यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया।
 
श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहां नारदजी आ गए। उन्होंने श्रीकृष्णजी को बताया- 'आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चन्द्रमा का दर्शन किया था, इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है।'
 
सत्राजित ने यह मणि कहां से हासिल की थी, जानिए अगले पन्ने पर...
 

भगवान सूर्य के पास थी यह मणि : सत्राजित ने यह मणि भगवान सूर्य से प्राप्त की थी। सूर्य से पहले यह मणि इंद्रदेव धारण करते थे। जब तक यह मणि इंद्रदेव के पास थी, उनके भी साम्राज्य में उथल-पुथल होती रही।

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