लंदन। ग्लासगो में सीओपी26 संयुक्त राष्ट्र की जलवायु वार्ता समाप्त हो गई है और सभी 197 देशों ने ग्लासगो जलवायु समझौते पर सहमति जताई है। अगर 2015 के पेरिस समझौते ने देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए रूपरेखा प्रदान की तो 6 साल बाद ग्लासगो सम्मेलन वैश्विक कूटनीति के इस महत्वपूर्ण विषय के लिए पहला बड़ा परीक्षण था। हमने 2 सप्ताह के नेताओं के बयानों, कोयले पर बड़े पैमाने पर विरोध और एकतरफा समझौतों, जीवाश्म ईंधन के लिए वित्तीय मदद और वनों की कटाई को रोकने के साथ अंतिम हस्ताक्षरित ग्लासगो जलवायु समझौते से क्या सीखा है?
कोयले पर निर्भरता को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने से लेकर कार्बन बाजार की खामियों तक, यहां हमें कुछ अहम बातें जानने की जरूरत है-
1. उत्सर्जन में कटौती पर प्रगति हुई, लेकिन ग्लासगो जलवायु संधि मामूली प्रगति ही है और जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों को रोकने के लिए आवश्यक सफलता का क्षण नहीं है। मेजबान और सीओपी26 के अध्यक्ष के रूप में ब्रिटेन ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के पेरिस समझौते के मजबूत लक्ष्य को जीवित रखना चाहता था। लेकिन हम यही कह सकते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का लक्ष्य मानो जीवनरक्षक प्रणाली पर है। इसमें धड़कन तो है लेकिन यह लगभग मर चुका है।
पेरिस जलवायु समझौते में ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का लक्ष्य तय किया गया था। लेकिन सीओपी26 से पहले जिस गति से उत्सर्जन बढ़ रहा था, ऐसे में ग्लोबल वॉर्मिंग के 2.7 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने का अनुमान था। लेकिन कुछ प्रमुख देशों द्वारा इस दशक में उत्सर्जन में कटौती की नई प्रतिबद्धताओं सहित सीओपी26 की घोषणाओं के बाद इसे घटाकर 2.4 डिग्री सेल्सियस तक रहने का अनुमान जताया गया है।
अधिकतर देशों ने दीर्घकालिक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य की भी घोषणा की है। सबसे महत्वपूर्ण में से एक 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य तक पहुंचने की भारत की प्रतिबद्धता थी। तेजी से बढ़ते नाइजीरिया ने भी 2060 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन का वादा किया है। दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद का 90 प्रतिशत हिस्सा देने वाले देशों ने अब इस सदी के मध्य तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य तक पहुंचने का संकल्प जताया है।
2. निकट भविष्य में और कटौती का मार्ग खुला है। ग्लासगो संधि का अंतिम मसौदा कहता है कि वर्तमान राष्ट्रीय जलवायु योजनाएं यानी राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) 1.5 डिग्री सेल्सियस तक तापमान को सीमित करने के लिए जो आवश्यक है, उससे कोसों दूर हैं। पेरिस समझौते के तहत हर 5 साल में नई जलवायु योजनाओं की आवश्यकता होती है, यही वजह है कि पेरिस के 5 साल बाद (कोविड-19 के कारण देरी के साथ) ग्लासगो महत्वपूर्ण बैठक थी।
3. अमीर देश अपनी जिम्मेदारी की अनदेखी करते रहे। विकासशील देश नुकसान और क्षतिपूर्ति के लिए धन की मांग करते रहे हैं, जैसे कि चक्रवातों और समुद्र के स्तर में वृद्धि के प्रभावों के कारण लागत में वृद्धि। छोटे द्वीपीय राष्ट्रों और पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील देशों का कहना है कि इन प्रमुख प्रदूषक देशों से उत्सर्जन के कारण ही ऐसी पर्यावरणीय स्थितियां पैदा हुई हैं और इसलिए धन की आवश्यकता है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के नेतृत्व में विकसित देशों ने नुकसान और क्षति के लिए किसी भी जवाबदेही से इंकार किया है।
4. कार्बन बाजार नियमों में खामियां पर्यावरण बचाने की दिशा में प्रगति को कमजोर कर सकती हैं। कार्बन व्यापार के लिए बाजार और गैर-बाजार दृष्टिकोण को लेकर पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 पर लंबी बहस के बाद आखिरकार सहमति बनी।
5. प्रगति के लिए जलवायु कार्यकर्ताओं को धन्यवाद- उनकी अगली कार्रवाई निर्णायक होगी। यह स्पष्ट है कि शक्तिशाली देश बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रहे हैं और उन्होंने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में बड़े बदलाव और गरीब देशों के वित्त पोषण दोनों में समर्थन नहीं करने का राजनीतिक निर्णय लिया है। भविष्य में जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं के वित्तपोषण पर अधिक कार्रवाई की अपेक्षा है। मिस्र में आयोजित होने वाले सीओपी27 से आगे की राह और स्पष्ट होगी और हम अपनी धरती की रक्षा कर पाएंगे।