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ट्रंप के खिलाफ पूरा अमेरिका तो वे जीते कैसे?

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, शुक्रवार, 11 नवंबर 2016 (15:26 IST)
लॉस एंजिल्स। अमेरिका के कई शहरों में लोग सड़कों पर उतरकर नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। कई लोग 'नॉट माय प्रेसीडेंट यानी 'मेरे राष्ट्रपति नहीं हैं' के नारे लगा रहे हैं। कई लोग ट्रंप के पुतले जला रहे हैं। आठ नवंबर को हुए चुनाव में हिलेरी क्लिंटन को हराकर ट्रंप अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति चुने गए, लेकिन जीत के बाद ट्रंप का भाषण पूरी तरह संतुलित था। बाद में सत्ता के हस्तांतरण के लिए ट्रंप शुक्रवार को मौजूदा राष्ट्रपति बराक ओबामा से उनके दफ्तर में भी जाकर मिले। 
हालांकि ओबामा और हिलेरी क्लिंटन दोनों ने बुधवार को जनता से अपील की थी कि वे ट्रंप को नेतृत्व का मौका दें। जहां तक ओबामा की बात है तो उनके बयान का अर्थ वही हो सकता है जो कि उन्होंने कहा है। लेकिन हिलेरी के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। हिलेरी भी अमेरिका में उतनी ही अलोकप्रिय और घृणास्पद हैं जैसी कि किसी जमाने में इंदिराजी भारत में हुआ करती थीं। और उस समय तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और पूर्व विदेश मंत्री हेनरी कीसिंजर उन्हें ओल्ड विच (बूढ़ी जादूगरनी) कहा करते थे। 
 
साथ ही पिछली बहुत सारी बातों को देखते हुए हिलेरी की बातों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है क्योंकि डेमोक्रेटिक पार्टी के नामांकन के लिए उन्होंने अपनी ही पार्टी के बेहतर और दबंग नेता बर्नी सैंडर्स को रेस से हटाने के लिए न केवल उनकी रैलियों तक में गड़बड़ी कराई वरन उनके खिलाफ कथित वामपंथी बुद्धिजीवियों की मदद से छवि खराब करने की भी कोशिश की। समूचा अमेरिका मानता है कि हिलेरी पर विश्वास नहीं किया जा सकता है और राजनीति के नाम पर दुष्प्रचार करवाना और पैसे देकर दंगे फसाद करवाना उनकी राजनीति की खास शैली रही है।
 
इसमें भी कोई दो राय नहीं हैं कि ट्रंप की छवि खराब है और इसके लिए वे खुद भी जिम्मेदार हैं लेकिन उनके खिलाफ अदालतों में जो 3500 मामले चल रहे हैं, वे भी पूरी तरह से सच्चाई पर आधारित नहीं हैं। लेकिन हिलेरी के समर्थक नारों, धरनों, दंगों और फसाद के जरिए लोगों को यह तर्क समझाना चाहते हैं कि ट्रम्प, अमेरिका के राष्ट्रपति बनने लायक नहीं हैं। जबकि सच्चाई तो यह है कि जब वे प्रथम महिला रहीं और बाद में विदेश मंत्री पद बनी, उस समय के बाद वे भी अमेरिकी राष्ट्रपति बनने का दावा खो चुकी थीं।   
  
लेकिन कहा जा रहा है कि लोगों को चुनाव परिणाम स्वीकार नहीं है क्योंकि उनके साथ धोखा हुआ है तो फिर ट्रम्प को किसने इतने वोट दिए? वे निर्वाचक मंडल में बहुमत पाने में कैसे सफल हुए? न्यूयॉर्क में हजारों लोग ट्रंप टावर तक मार्च करते हुए गए और आप्रवासन, समलैंगिकों के अधिकार जैसे मुद्दों पर ट्रंप की नीतियों के खिलाफ नारे लगाए। 
 
न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार के मुताबिक़ इस मामले में 15 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। भीड़ जमाकर तोड़फोड़ और दंगा फसाद की राजनीति तो भारत की पहचान है लेकिन अब यह अमेरिका में भी स्थापित हो गई है तो इसके लिए हिलेरी और बिल क्लिंटन जैसे नेता भी जिम्मेदार है। हालांकि इन आरोप से ट्रंप को भी मुक्त नहीं किया जा सकता है।  
 
शिकागो में विरोध प्रदर्शन ज्यादातर जगहों पर शांतिपूर्ण रहे लेकिन कैलिफोर्निया के ओकलैंड में कुछ प्रदर्शनकारियों ने दुकानों की खिड़कियां तोड़ीं और पुलिस पर पत्थर फेंके। पुलिस ने इसके जवाब में आंसू गैस के गोले छोड़े। लॉस एंजिल्स में प्रदशनकारियों ने मशहूर 101 फ्रीवे को बंद कर दिया। शिकागो में लोगों ने ट्रंप टावर के प्रवेश द्वार को बंद कर दिया और 'नो ट्रंप, नो केकेके, नो फासिस्ट्स यूएसए' के नारे लगाए।
 
वॉशिंगटन में प्रदर्शनकारियों ने कैंडल मार्च निकाला। इस मार्च का आयोजन करने वाले बेन विक्लर ने वहां मौजूद भीड़ को संबोधित करते हुए कहा कि 'हम लोग यहां इसलिए जमा हैं क्योंकि अंधकार की इस घड़ी में हम अकेले नहीं हैं।' फिलाडेलफिया, बोस्टन, सिएटल और सैन फ्रांसिस्को में भी भारी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। ऐसी हालत में पूछा जाना चाहिए कि अगर समूचा अमेरिका ही ट्रम्प का विरोधी रहा है तो वे जीत कैसे गए?
 
डोनाल्ड ट्रंप ने डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन को हराते हुए राष्ट्रपति पद की दौड़ जीती। अगर दोनों नेताओं के लोकप्रिय वोट शेयर पर नजर डालें तो पता लगता है कि दोनों को मिले मतों में बेहद मामूली अंतर है। और जहां पर निर्णायक मंडल (इलेक्टोरल कॉलेज) में मिले वोटों का सवाल है तो ट्रम्प निर्णायक तौर पर विजेता बने। 
 
यह सभी जानते हैं कि चुनाव से पहले कहा जा रहा था कि गुस्साए गोरे अमेरिकी लोग 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप को खुलकर वोट देंगे। क्या ऐसा हुआ भी, जिसकी वजह से ट्रंप विजयी रहे? या उनकी जीत के पीछे कुछ अन्य पहलू हैं। इसकी पड़ताल करने के लिए एडिसन रिसर्च ने मतदाता सर्वे किया है।12 करोड़ से ज्यादा रजिस्टर्ड मतदाताओं में से 25,000 मतदाताओं पर यह सर्वे किया गया। 
 
इस सर्वे में महिलाओं का रुख हिलेरी क्लिंटन की तरफ झुका हुआ दिखा, वहीं ज्यादातर गोरे अमेरिकी नागरिकों ने खुद को ट्रंप का समर्थक माना। नस्लों के हिसाब से देखें तो पता लग जाएगा कि कौन-सा अमेरिकी चुनाव में किसके साथ रहा? सर्वे में एक बात निकलकर सामने आई, वो यह थी कि ग्रामीण अमेरिका में ट्रंप को ज्यादा समर्थन मिला। जबकि क्लिंटन के समर्थन में शहरी लोग ज्यादा थे।
 
जहां सालाना 50,000 डॉलर से ज्यादा आमदनी करने वाले लोग ट्रंप के सपोर्ट में गए और इससे कम आमदनी करने वालों का वोट हिलेरी को मिला। किस उम्र का वोटर किसके साथ खड़ा था? 45 साल और इससे ज्यादा उम्र के अमेरिकियों ने ट्रंप को खुलकर समर्थन दिया जबकि नौजवानों और 44 साल तक के लोगों का वोट हिलेरी को मिला।
 
इस सर्वे के कुछ और निष्कर्ष इस प्रकार रहे : 
- 7% ऐसे लोग, जो ख़ुद को रिपब्लिकन बताते थे, उन्होंने क्लिंटन को वोट दिया।
- 9% डेमोक्रेट समर्थकों ने अंत में क्लिंटन की जगह ट्रंप को ही वोट दिया।
- 2% ऐसे लोगों ने भी ट्रंप को वोट दिया, जिनके मन में ट्रंप की जीत को लेकर भय था।
इस तरह डोनाल्ड ट्रंप को कुल मिलाकर 47.5% वोट मिले। हिलेरी को मिले 47.7% वोट। यह स्पष्ट है कि हिलेरी को ज़्यादा वोट मिले फिर भी ट्रंप ने 279 इलेक्टोरल कॉलेज वोट जीते और हिलेरी क्लिंटन को 228 के नंबर से ही संतोष करना पड़ा। 
 
आखिर हिलेरी क्लिंटन क्यों हारीं?
 
इस राजनीतिक व्यवस्था का सबसे बड़ा प्रतीक कोई और नहीं, ख़ुद हिलेरी क्लिंटन थीं। चुनाव प्रचार के दौरान करोड़ों गुस्साए हुए वोटरों के लिए वे अमेरिका की खंडित राजनीति का चेहरा बन कर उभरीं। डोनाल्ड ट्रंप कई प्रांतों के काफी मतदाताओं के लिए एक ऐसा आदमी बन कर उभरे, जो बिगड़ी हुई व्यवस्था को ठीक कर सकता था। वे अपने को एक एकदम बाहरी आदमी के रूप में स्थापित करने में कामयाब रहे। 
 
हिलेरी क्लिंटन लगातार यह दावा करती रहीं कि वे राष्ट्रपति पद के लिए सबसे योग्य इंसान हैं। एक तरह से वे अपनी योग्यताएं ही रटती रहीं-प्रथम महिला के तौर पर उनका अनुभव, न्यूयॉर्क की सीनेटर और विदेश मंत्री। लेकिन असंतोष और गुस्से के माहौल में ट्रंप के समर्थकों ने अनुभव और योग्यता को नकारात्मक ही माना।
 
यह कहना गलत न होगा कि तमाम लोग व्हाइट हाउस में एक पारपंरिक राजनेता नहीं, बल्कि एक व्यवसायी को देखना चाहते थे। वाशिगंटन के प्रति लोगों की नफरत साफ थी। इसलिए क्लिंटन के प्रति भी लोगों के मन में नफरत और घृणा बेइंतहा थी जोकि तेजी से फैलती वाली रही। हिलेरी क्लिंटन के साथ विश्वास की समस्या पहले से ही थी। यही वजह है कि ई-मेल स्कैंडल इतना बड़ा मामला बन गया। उनकी छवि पूर्वी तट के कुलीन खानदान की ऐसी पुजारिन की बन गई, जो मजदूर वर्ग को हिक़ारत की नज़र से देखता हो।
 
बिल क्लिंटन के राष्ट्रपति पद से हटने के बाद उन्होंने जो पैसे बनाए, उससे कोई फ़ायदा नहीं हुआ। क्लिंटन दंपति को बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमने वाला उदारवादी ही नहीं, बल्कि जेट हवाई जहाज में सफर करने वाला उदारवादी माना गया। पैसे की वजह से मजदूर वर्ग से उनकी दूरियां बढ़ती गई, हालांकि उसी मजदूर वर्ग ने रियल स्टेट अरबपति को खुशी-खुशी वोट दिया।
 
अमेरिका में महिला वोटरों की तादाद पुरुष वोटरों से दस लाख ज़्यादा है और समझा जाता था कि हिलेरी को इसका फायदा होगा पर प्राइमरी में बर्नी सैंडर्स का मुक़ाबला करने के दौरान ही यह साफ़ हो गया था कि युवतियों को देश की पहली महिला राष्ट्रपति के नाम पर एकजुट करना बहुत आसान भी नहीं था। कई महिलाएं उनके साथ सहज हो ही नहीं पाईं। 
 
प्रथम राष्ट्रपति रहते हुए उन्होंने एक बार कहा था कि वे घर में बैठ कर कुकीज़ बनाते नहीं रह सकतीं और इसकी व्याख्या महिलाओं के लिए अपमानजनक टिप्पणी के रूप में की गई थी। कुछ लोगों को यह याद था कि डोनाल्ड ट्रंप ने उन पर प्रेम संबंधों में पति की मदद करने का आरोप लगाया। उन्होंने हिलेरी की यह कह कर भी आलोचना की थी कि जिन महिलाओं ने बिल क्लिंटन पर छेड़छाड़ का आरोप लगाया, हिलेरी ने उनकी निंदा की थी। 
 
जब ट्रंप यह सब कह रहे थे, कई महिलाओं ने रजामंदी जताई थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि पुराने जमाने के लैंगिक भेद भाव की भी चुनावों में भूमिका रही। कई पुरुषों ने महिला राष्ट्रपति के रूप में उन्हें मंजूर नहीं किया। ऐसे समय जब कई अमेरिकी बदलाव चाहते थे, ऐसा लगा कि हिलेरी क्लिंटन वही देंगी जो पहले से ही है।
 
किसी भी दल के लिए लगातार तीन बार राष्ट्रपति चुनाव जीतना निहायत ही मुश्किल है। डेमोक्रेटिक पार्टी 1940 के दशक के बाद से अब तक ऐसा नहीं कर सकी है। यह समस्या इससे और बढ़ गई कि कई मतदाता क्लिंटन से ऊब चुके थे। हिलेरी क्लिंटन स्वाभाविक प्रचारक नहीं हैं। उनके भाषण अमूमन सपाट होते हैं और कुछ कुछ ऐसा लगता था मानो रोबोट बोल रहा हो। उनकी कही बातें बनावटी लगती थीं और कुछ लोगों को वे बातें गंभीर नहीं लगती थीं।
 
अमेरिका के बारे में अपनी दृष्टि को उन्हें हमेशा सहेज कर पेश करने की जद्दोजहद करनी होती थी। 'स्ट्रॉन्गर टुगेदर' नारे में वह दम नहीं था जो 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' में था। क्लिंटन के नारे को अलग अलग दर्जन भर तरीके से पेश किया गया था। इससे यही साबित होता था कि एक साफ़ संकेत देने में सहज नहीं हैं।
 
उनके प्रचार अभियान में कुछ रणनीतिक ग़लतियां भी हुईं। उन्हें उत्तरी कैरोलाइना और ओहायो जैसे उन राज्यों पर समय और संसाधन बर्बाद नहीं करना चाहिए था, जहां डेमोक्रेटिक पार्टी पहले से ही मजबूत स्थिति में थी। इन्हें 'नीली दीवार' कहा जाता है। ये वे 18 राज्य थे, जहां पिछले छह चुनावों में उनकी पार्टी को बढ़त मिलती आई थी। ट्रंप ने गोरे मजदूर वर्ग के मतदाताओं की मदद से पेनसिलवेनिया और विस्कोन्सिन राज्य जीत कर उस मजबूत 'नीली दीवार' को भी ढहा दिया। ये वे राज्य थे, जहां 1984 से अब तक रिपब्लिकन पार्टी को जीत नसीब नहीं हुई थी।
 
यह सिर्फ़ हिलेरी क्लिंटन को नकारना नहीं था। आधे देश से अधिक ने अमेरिका को लेकर बराक ओबामा की दृष्टि को ख़ारिज कर दिया। इसलिए क्या ट्रंप का चुना जाना ‘अमेरिकन ड्रीम’ का अंत है? लोगों ने ट्रम्प के बारे में क्या-क्या नहीं कहा था। हिटलर कहा गया। महिलाओं से छेड़छाड़ करने वाला बताया गया। कहा गया कि वह अमेरिकी राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनने लायक नहीं हैं। अब वही 45वां राष्ट्रपति है वो जो 'प्रवासियों का दुश्मन' है, अब व्हाइट हाउस में बैठकर पूरी दुनिया को अपनी उंगलियों पर नचाएगा
 
लेकिन अब कहा जाने लगा है कि अमेरिका ने लोकतंत्र की समाप्ति की ओर कदम बढा दिए हैं? जार्ज वॉशिंगटन, टॉम्स जेफरसन, अब्राहम लिंकन, फ्रेड्रिक रूजवेल्ट के सपनों का अंत हो गया है? अब एक नए अमेरिका का उदय होगा, जो लोकतंत्र की जगह तानाशाही की बात करेगा, जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को कब्र में दफन कर देगा, जो स्वतंत्र हवा में सांस लेना वर्जित कर देगा, जो सिर्फ पुरुषों की बात करेगा, जो प्रवासियों को अमेरिका से भगा देगा, जो मुसलमानों पर आतंक बरपाएगा। जो चीन से रिश्ते तोड़ लेगा, गरीब देशों पर रहम नहीं करेगा और आतंकवादी अगर नहीं माने तो फिर परमाणु बम फोड़ देगा ?  आदि आदि।
 
लेकिन अनंत संभावनाओं के देश,  सपनों के देश में भी हर सपने की एक उम्र होती है। सोने के बाद नींद टूटती है। अमेरिका हर धर्म की न केवल इजाजत देता है बल्कि उसके प्रति अति उदार भी रहता है लेकिन 'जेहादी कट्टरपंथ' ने जिस तरह से साम्यवादी व्यवस्था टूटने के बाद सिर उठाया  उसने अमेरिका में भी यह बहस तेज कर दी कि धर्म के नाम पर असहिष्णुता कितनी और किस हद बर्दास्त की जानी चाहिए ? स्वतंत्रता के नाम पर कितनी धार्मिकता को जगह मिलनी चाहिए ? इराक़ पर जार्ज बुश का हमला इसी बहस का एक लक्षण था।
 
इराक पर हमले का कोई कारण नहीं था पर बहाने गढ़े गए। झूठ की इमारत खड़ी की गई और ये कहा गया कि इराक सर्व संहारक अस्त्रों का निर्माण कर रहा है। ये पूरी दुनिया के लिए बड़ा खतरा होगा। लिहाजा सद्दाम हुसैन को किसी चूहे की भांति बिल से निकाला और फांसी पर लटका दिया।
इसे किसी तानाशाह से बदला नहीं समझा गया वह यह कहा गया कि यह एक धर्म विशेष से बदला लेने की साज़िश थी। सैमुएल हटिंगटन ने 'सभ्यताओं के संघर्ष' में इसी को अपना आधार बनाया है।  बुश को पूरी दुनिया ने खलनायक माना लेकिन अमेरिकी जनता ने उसे दो बार राष्ट्रपति चुना।  
 
चीन ने जितनी तेजी से प्रगति की, उसने भी अमेरिकी मानस को असुरक्षित किया और ओबामा भी उम्मीदें पूरी नहीं कर पाए क्योंकि उनका भी एक धर्म विशेष को लेकर झुकाव साफ-साफ देखा जा सकता था। और इसके बाद हिलेरी क्लिंटन तो बराक ओबामा का एक्सटेंशन हैं। उनसे अलग कुछ नहीं। यह बात खुद ओबामा ने कही। क्लिंटन ने पूरे प्रचार के दौरान कभी भी बराक से अलग अमेरिका को पहले की तरह ताकतवर बनाने के लिए कोई नया ब्लू प्रिंट नहीं रखा। और ट्रम्प के कट्‍टर राष्ट्रवाद ने एक नएपन के साथ, अमेरिका की सारी समस्याओं का समाधान करने में समर्थ होने का भाव पैदा किया। आज ट्रम्प की जीत को उदारवादी कट्‍टरता कहा जा रहा है लेकिन यह क्या करने में समर्थ है, यह तो भविष्य ही तय करेगा।


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