अंकारा। तुर्की में बगावत असफल हो गई है लेकिन इस बिजली गिरने के बाद सरकार का रुख जहां बहुत कठोर हो गया है, वहीं करीब पचास हजार से ज्यादा लोगों को हिरासत में लिया गया है। इन लोगों को हिरासत में लिया गया है, नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया है और वहीं राष्ट्रपति रेसीप ताइप एर्दोगन ने देश में मृत्युदंड की बहाली की मांग की है।
देश की सरकार ने जिन लोगों से बगावत का बदला लेने की बात कही है, उनमें सैनिक अधिकारी, न्यायाधीश और पुलिसकर्मी शामिल हैं। तुर्की और इसके सहयोगी देशों, पड़ोसी देशों में विचार चल रहा है कि एर्दोगन और उसकी एकेपी पार्टी समर्थक अब क्या करेंगे? क्या एर्दोगन बदला लेने के रास्ते पर चलेंगे और अपने अधिनायकवाद को बढ़ावा देंगे? क्या तुर्कों के लिए इतनी अधिक देर हो गई है कि वे अपने देश को उन नीतियों पर नहीं चलाना चाहेंगे जो कि देश में सहिष्णुता, बहुलवाद, कानून का शासन लागू करेंगीं और चरमपंथ के खिलाफ संघर्ष करते रहेंगे?
इन सवालों पर विचार करने के लिए जरूरी है कि हम 15 जुलाई को हुई घटनाओं के संदर्भ पर गौर करें। विदित हो कि हाल के वर्षों में एर्दोगन की घरेलू नीतियों ने विभाजन के बीज गहरे तक बोए हैं। वे ताकतवर राष्ट्रपति शासन प्रणाली के लिए अभियान चला रहे हैं जोकि तुर्की ही नहीं वरन इसके मित्र देशों, अमेरिका समेत को भारी चिंता में डाल दिया है। तुर्की की विदेश नीतियों ने इसे क्षेत्र और सारी दुनिया में अलग थलग कर दिया है। तुर्की ने 'पड़ोसियों के साथ जीरो प्रॉब्लम' की जो नीति अपनाई है, उससे प्रत्येक देश के लिए समस्याएं पैदा हो गई हैं।
तुर्की सरकार अब तक सपना देखती रही है कि यह आईएसआईएस का इस्तेमाल अपने उद्देश्यों के लिए कर सकती है, ने यूरोप और अमेरिका में डर पैदा कर दिया है कि तुर्की आईएसआईएस का सहयोगी बन गया है। विदित हो कि तुर्की में 27 लाख सीरियाई रहते हैं जो कि सरकार और समाज पर एक बड़ा बोझ बने हुए हैं। इसी के साथ तुर्की में यूरोप और तुर्की में शरणार्थियों की दुरावस्था ने तुर्की और ईयू ने बीच संबंध को बिगाड़ दिया है। सीरिया और इराक से और शरणार्थियों के आने की आशंका ने दोनों पक्षों के बीच आशंकाओं को पैदा कर दिया है।
पिछले नवंबर में तुर्की ने एक रूसी लड़ाकू विमान को मार गिराया था जिससे दोनों देशों के संबंधों में खटास आ गई है। इतना ही नहीं, तुर्की की आर्थिक वृद्धि धीमी हो गई है और हाल ही में अस्थिरता होने के कारण इस मोर्चे पर सुधार की गुंजाइश नहीं है। आतंकवाद और व्लादीमीर पुतिन की ओर से रूसियों की यात्रा पर रोक लगाने के कारण मई तक तुर्की के पर्यटन काफी कमी आई है और अमेरिकी डॉलर की तुलना में 2013 से तुर्की के लीरा के मूल्य में 70 फीसदी गिरावट आ गई है।
अभी तक तुर्की की नीति समायोजन की रही है और प्रधानमंत्री दोस्तों की संख्या बढ़ाने और दुश्मनों की संख्या घटाने की कोशिश करते रहे हैं। तुर्की के प्रधान मंत्री बिनाली यिल्दरीम की रणनीति बगावत से पहले सफल होती प्रतीत हो रही थी। तुर्की ने अमेरिका और इसके सहयोगियों के साथ मिलकर आईएस के खिलाफ लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेना शुरू किया था और अपने एयरबेस इंसिरलिक को सहयोगियों के इस्तेमाल के लिए खोलने का भी फैसला किया था।
गत 28 जून को तुर्की और इसराइल ने अपने राजनयिक संबंधों की बहाली की थी और अगले दिन एर्दोगन ने जब रूसी विमान गिराने के लिए रूस से क्षमा याचना की तो मॉस्को और अंकारा के संबंध सुधरने लगे थे। इसलिए अगर बगावत के बाद तुर्की कानून से चलने वाले एक बहुलवादी देश के तौर पर अपना संतुलन बनाए रख सके तो बहुत सारी बातें संभव हो सकती हैं।
सबसे पहले तुर्की को घरेलू मोर्चे पर मेलमिलाप की नीति अपनाने की जरूरत है। लाखों की संख्या में ऐसे तुर्क हैं जोकि एर्दोगन के निजी और राजनीतिक दूरदृष्टि को लेकर डरते हैं। ऐसे लाखों लोगों में काफी बड़ी संख्या में तुर्की की कुर्द जनसंख्या भी है। बहुत से तुर्क एर्दोगन के ज्यादा से ज्यादा सत्ता हथियाने को लेकर नाराज भी हैं लेकिन उन्होंने भी बगावत को कुचलने में साथ दिया। ऐसे बहुत से लोगों का सोचना है कि क्या एर्दोगन और उनकी एकेपी का नेतृत्व इन लोगों की भावनाओं और विचारों को समझने की कोशिश करेगा?
जहां तक तुर्की के कुर्द नागरियों के भविष्य की बात है तो आईएसआईएस का प्रमुख उद्देश्य तुर्की और इराक में तुर्क और कुर्द लोगों के बीच की खाई को और बढ़ाना है। इस्तांबुल हवाई अड्डे पर हमले के बाद बहुत से लोगों का मानना था कि एर्दोगन को कुर्द लोगों के साथ अपनी बातचीत को फिर से शुरू करनी चाहिए जिसे वर्ष 2013 में अपनी चुनावी रणनीति के तहत बीच में ही छोड़ दिया गया था। दूसरी बात लोगों का मानना है कि तुर्की को इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ाई में अपने मित्र देशों और सहयोगियों के साथ ज्यादा सहयोग करना चाहिए।
अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी का कहना है कि तुर्की लड़ाई में साथ देता रहेगा लेकिन बाहरी हस्तक्षेप का डर और घरेलू मोर्चे पर प्रतिकार करने की नीति तुर्की की प्रतिबद्धताओं को कमजोर करती है। अमेरिकी सरकार ने बगावत का विरोध किया लेकिन आईएसआईएस के खिलाफ लड़ाई में अंकारा और वाशिंगटन का पूरी तरह से मेल नजर नहीं आता है। दोनों के बीच के अंतर को इन दो बातों से समझा जा सकता है-
1. अमेरिका अभी भी चिंतित है कि तुर्की, सीरिया से लगी अपनी सीमा पर उतनी चौकसी नहीं कर रहा है जितनी उसने करनी चाहिए।
2. आईएसआईएस के खिलाफ लड़ाई में इराकी कुर्द लड़ाकों के सहयोग को लेकर अमेरिकी आपत्तियां बरकरार हैं।
अमेरिका इस बात पर जोर देता रहा है कि तुर्की को अपनी दक्षिण पूर्वी सीमाओं पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि यह तुर्की के हित में है। अमेरिका का मानना है कि इंस्ताबुल हवाई अड्डे पर आतंकी हमले के लिए आतंकी तुर्की-सीरिया सीमा पारकर आए होंगे। अमेरिकी तुर्की संबंधों में सबसे बड़ी बाधा यह है कि अमेरिका एक ओर तो कुर्द संगठन पीकेके को आतंकवादी संगठन नहीं घोषित करता है और इससे साथ अपने संबंधों को भी स्वीकारता है और यह बात तुर्की को हजम नहीं होती है।
इसके अलावा, तुर्की का दावा है कि विद्रोह के मास्टरमाइंड फतेहुल्ला गुलेन को अमेरिका ने शरण दे रखी है, उसका तुर्की को प्रत्यर्पण किया जाना चाहिए। इस पर अमेरिकी विदेश मंत्री कैरी का कहना है कि सरकार उनके प्रमाणों पर गौर करेगी। तीसरा बड़ा मसला, तुर्की और ग्रीक साइप्रियट नेता साइप्रस के भविष्य को लेकर कोई समझौता कर लेते हैं तो तुर्की के ग्रीस, ईयू और अमेरिका समेत सभी देशों से संबंध सामान्य हो जाएंगे। रूस और इसराइल के साथ संबंधों को विकसित होने में समय लगेगा। तुर्की का यह भी मानना है कि ईयू से ब्रिटेन के अलग हो जाने के बाद यूरोपीय संघ देश नहीं चाहते कि तुर्की, संघ में शामिल हो।
वहीं तुर्की अपनी पहले की प्रतिबद्धताओं को लेकर 15 जुलाई की रात हुई घटना के बाद भी उत्साहित रहेगा और क्या यह घटना तुर्की के लिए एक उत्प्रेरक का काम करेगी, यह आगे आने वाला समय ही बताएगा।