ट्वेंटी-20 विश्व कप की टीम इंडिया के कप्तान महेन्द्रसिंह धोनी (माही) ने बचपन में एक सपना देखा था कि उन्हें देश के लिए क्रिकेट खेलना है। लक्ष्य के प्रति लगन, समर्पण और प्रतिबद्धता की बदौलत माही ने न सिर्फ अपना सपना पूरा किया, बल्कि आज करोड़ों भारतवासियों की 'आँखों का तारा' बन गए हैं।
अपनी कप्तानी को जबरदस्त तरीके से साबित करते हुए उन्होंने भारत की टीम को ट्वेंटी-20 विश्व कप जितवाया और 1983 के बाद एक बार फिर पूरे भारत को जश्न मनाने का मौका दिया है। इस सफर के पीछे संघर्ष, प्रतिबद्धता और समर्पण की एक लंबी दास्तान है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो स्कूल में अपने सहपाठियों की ‘स्लैम बुक’ में लिखे ख्वाब को सच कर दिखाते हैं।
राँची के निकट श्यामली में दयानंद एंग्लो-वैदिक जवाहर विद्या मंदिर (डीएवी) में कई वर्षों तक धोनी की सहपाठी रहीं रेणुका टिकाड़े कोचर ने अपने स्कूली दिनों को याद करते हुए 'वेबदुनिया' को बताया कि धोनी बहुत ही सामान्य से विद्यार्थी थे। पढ़ाई को उन्होंने कभी गंभीरता से नहीं लिया। सिर्फ पास होने के लिए ही वे पढ़ाई किया करते थे। हाँ, क्रिकेट के प्रति उनका समर्पण व जज्बा काबिले-तारीफ था। रेणुका वर्तमान में सीएससी में कार्यरत हैं।
साधारण मध्यमवर्गीय परिवार से सितारा क्रिकेटर बने धोनी बचपन से ही हँसमुख, मिलनसार और मजाकिया प्रवृत्ति के रहे हैं। अहंकार तो मानो उन्हें छू भी नहीं पाया था। अपने शिक्षकों का वे काफी सम्मान करते थे तथा उनकी डाँट भी वे हँसते-हँसते सुन लेते थे।
खेल के प्रति उनके जुनून के बारे में रेणुका बताती हैं कि 12वीं बोर्ड की परीक्षाएँ चल रही थीं, हम सभी विद्यार्थी पढ़ाई में पूरी तन्मयता से जुटे हुए थे। इसी बीच एक प्रश्न-पत्र के बीच में दो-चार दिन का अंतर था। संयोग से इसी समय धोनी को एक क्रिकेट मैच भी खेलना था। ऐसे में धोनी ने परीक्षा की चिंता किए बिना अपना क्रिकेट मैच खेला। शिक्षकों और सहपाठियों के चहेते धोनी हालाँकि कभी फेल नहीं हुए।
पूत के पाँव पालने में ही नजर आने लगे थे। माही को भी अपने लक्ष्य को लेकर कोई असमंजस नहीं था। वे उसे हासिल करने के लिए सतत प्रयत्नशील थे। यही कारण था कि उनका ज्यादातर वक्त मैदान में ही गुजरता था। असली क्लास उनकी क्रिकेट का मैदान था और शिक्षक थे उनके क्रिकेट कोच मिस्टर बैनर्जी। अन्य शिक्षक भी उनसे कहा करते थे कि खेल तो ठीक है, पढ़ाई पर ध्यान दिया करो, लेकिन धोनी की मंजिल तो 'टीम इंडिया' थी। धोनी को पता था कि उन्हें कहाँ पहुँचना है और कैसे पहुँचना है।
नेतृत्व के गुण उनमें बचपन से ही थे। वे कभी 'एकला चलो' की नीति पर भरोसा नहीं करते थे। साथियों को खुश रखना और सबको साथ लेकर चलने के गुण ने ही उन्हें आज इस मुकाम पर पहुँचाया है। छल-कपट से वे कोसों दूर थे। आत्मविश्वास, चेहरे का तेज, आकर्षक मुस्कान, खेल भावना जैसे उनके व्यक्तित्व का हिस्सा हैं। धोनी की एक खूबी यह भी है कि वे कभी नाराज नहीं होते। अच्छा प्रदर्शन न कर पाने की स्थिति में भी उनका व्यवहार सामान्य ही रहता था।
रेणुका कहती हैं कि धोनी को स्कूल के जमाने से बाइक का शौक रहा है। हालाँकि उस समय वे दोस्तों की बाइक ही चलाया करते थे। आज तो उनके पास ही ढेरों बाइक हैं। इतना ही नहीं आज तो डीएवी स्कूल को भी 'धोनी के स्कूल' के नाम से जाना जाने लगा है। राँची में तो अब कई 'धोनी सैलून' खुल गए हैं।