Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia

आज के शुभ मुहूर्त

(षष्ठी तिथि)
  • तिथि- मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी
  • शुभ समय- 6:00 से 7:30, 12:20 से 3:30, 5:00 से 6:30 तक
  • व्रत/मुहूर्त-गुरुपुष्य योग (रात्रि 07.29 तक)
  • राहुकाल-दोप. 1:30 से 3:00 बजे तक
webdunia
Advertiesment

शहीद कर के यज़ीद फ़ानी, शहीद हो कर हुसैन बाक़ी

हमें फॉलो करें शहीद कर के यज़ीद फ़ानी, शहीद हो कर हुसैन बाक़ी
- सफ़दर शामी (पत्रकार एवं चित्रकार, मुंबई) 
 

Muharram 2023 In Hindi : ज़रूरियाते ज़िंदगी, ख़्वाहिशे नफ़्स और दुनिया कमाने की होड़, इंसान को इतना मदहोश कर देती है कि वो अपनी पैदाइश का मक़सद भी भूल जाता है और अपने आदर्श शख़्सियात की मिसाली ज़िंदगी भी। इसलिए साल में कुछ ख़ास शख़्सियतों की याददहानी के लिए मुक़र्रर किए गए कुछ ख़ास अय्याम हमारे ईमान को ताज़ा करने का सबब बनते हैं। 
 
मुहर्रम का अशरा ऐसी ही एक अज़ीम तरीन शख़्सियत के ज़िक्र का मौक़ा फ़राहम करता है, जिस की बेनज़ीर क़ुर्बानियों ने उनके अक़ीदतमंदों के साथ साथ दीगर मज़ाहिब के मानने वालों पर भी गहरा असर डाला है। वैसे इतिहास तो हर क़ौम और हर धर्म के पास है लेकिन इतिहास में हुसैन सिर्फ़ इस्लाम के पास है।
 
सवाल ये है कि इमाम हुसैन की याद को हम मनाते कैसे हैं? अगर मुहर्रम से मुराद चंद घंटे ज़िक्रे हुसैन सुनना और घर लौट आना है तो इस से न तो हमारी दीनी ज़िम्मेदारी अदा होती है न तबीयत में तग़य्युर पैदा होता है। जिसकी शुजाअत और साबितक़दमी ने दुनिया की तारीख़ बदल कर रख दी हो, उसके ज़िक्र से अगर हमारी तबीयत नहीं बदलती तो फिर हम ने मुहर्रम से कुछ भी हासिल नहीं किया। दरअसल होता ये है कि जब किसी ख़ास दिन या किसी ख़ास शख़्स की याद को हर बरस एक तयशुदा तरीक़े से मनाया जाता है तो वो रस्म बन जाता है। उस में न रूह बाक़ी रहती है न मक़सद।
 
अशर ए मुहर्रम में भी कर्बला के असल मक़सद की बजाए महज़ गिरिया ओ बुका की ग़रज़ से हुसैन को मज़लूम से ज़्यादा मजबूर की तरह पेश करना, ज़ुल्म से टकराने के उनके फ़ैसले की नाक़दरी है। हुसैन मजबूर नहीं मुख़्तार थे। इमाम चाहते तो बेअत कर सकते थे लेकिन अगर बेअत कर लेते तो फ़ासिक़ और ज़ालिम से समझौता करने के लिए, रसूल का घराना ही मिसाल बन जाता। लिहाज़ा ये क़तई मुमकिन नहीं था। इमाम आली मक़ाम बेअत से इंकार का नतीजा अच्छी तरह जानते थे। ये उनका ख़ुद का चुना हुआ रास्ता था। उन के इंकार के इस जुरअतमंदाना फ़ैसले में ही सारे पैग़ामात पोशीदा हैं। अल्लाह की तरफ़ से आए हुए इम्तिहान पर सब्र, साबित क़दमी, ऊलुल अज़्मी, अल्लाह पर तवक्कल, आख़िरत का पुख़्ता यक़ीन, ज़ालिम से समझौता न करना, सच्चाई के लिए ज़िंदगी पर मौत को तरजीह देना, नबी की तरबियत और फ़ातिमा और अली की परवरिश का अमली इज़हार। 
 
बज़ाहिर कर्बला में दोनों तरफ़ इंसान थे लेकिन हक़ीक़त में दो सोचें थीं, दो नज़रियात थे, दो किरदार थे, दो परवरिशें थीं। एक हुकूमत के लिए हद से गुज़र जाने वाला, दूसरा अल्लाह की रिज़ा के लिए हद से गुज़र जाने वाला। एक ने नमाज़ के लिए जंग नहीं रोकी और एक ने जंग के लिए नमाज़ नहीं रोकी। एक ताक़त को हक़ समझता था और एक हक़ को ताक़त समझते थे। कर्बला ने बताया कि ज़ुल्मों ज़्यादती के लिए ताक़त चाहिए लेकिन सब्र और शहादत के लिए हिम्मत। ज़ुल्म....डर का नतीजा है और सब्र.....ईमान और तवक्कल का नतीजा। फ़ातिमा के लाल ने ये भी पैग़ाम दिया कि हुसैन और हुसैन के घराने की जानें, इस्लाम और अल्लाह की ख़ुशी ज़्यादा क़ीमती नहीं है। हम आम इंसान जिसे बहुत सख़्त मुसीबतें मान रहे हैं, हो सकता है, हुसैन को वो सब अल्लाह की रिज़ा और ख़ुशी के आगे बहुत कम लगती हों।
 
यही करबला का असल पैग़ाम है जो मुहर्रम के हवाले से मोमिनीन तक पहुंचना चाहिए। लेकिन हो ये रहा है कि हर साल हक़-ओ-बातिल की इस लड़ाई को हम कहानी की तरह सुनते हैं। यज़ीद को कहानी में एक खलनायक की तरह देखते हैं तो उस पर लानत मलामत कर के मोमिन होने का हक़ अदा कर लेते हैं। यज़ीद बिन मुआविया तो महज़ एक इंसान था जिस की हस्ती मिट चुकी है। लेकिन अगर उसी किरदार को एक ज़हनियत की तरह देखा जाए तो यज़ीदियत आज भी उतनी ही शिद्दत से बाक़ी है। हमारे सीनों में नफ़रत यज़ीदियत से होनी चहिए ताकि हमारे अंदर हुसैनियत का चराग़ हमेशा जलता रहे। ग़लत को ग़लत और ज़ुल्म को ज़ुल्म कहने की जसारत पैदा हो सके। 
 
जिस दीन की बक़ा के लिए ये क़ुर्बानियां दी गईं उस दीन को समझना हुसैन से हमारी मुहब्बत का अख़्लाक़ी तक़ाज़ा है। वो अल्लाह का चुना हुआ सच्चा दीन जिस में हुज़ूरे अकरम (स.) ने जीने का ढंग सिखाया। मौला अली (क.) ने फ़क़ीरी में बादशाहत कर के दिखाई। हज़रते फ़ातिमा (र.) ने ख़ुदा तरसी का सबक़ दिया। इमाम हसन (अ.) ने उम्मत की भलाई के लिए हुकूमत को ठुकरा दिया और इमाम हुसैन (अ.) ने सब्र और अज़्म की हदों से आगे निकल कर इंतहा की एक नई लकीर खींच दी। 
 
इन पाकीज़ा हस्तियों ने हमें दिखाया है कि दीन की मिसाली शख़्सियतें कैसी होती हैं? न दौलत की चकाचौंध, न लाव लश्कर, न वीआईपी ट्रीटमेंट की चाहत, न मुलाक़ात की शर्तें, न पैसों का मुतालबा, न आलीशान घर, न क़िस्म-क़िस्म के पकवान। यही वो ख़ूबियां हैं जो किसी इंसान को अज़ीमतर और मोहतरम बनाती हैं। इन अज़ीम शख़्सियतों की परहेज़गारी की ज़िंदगी और बहादुरी की मौत हमें ये फ़र्क़ करने का शऊर भी अता करती हैं कि हमारे वास्तविक आदर्श कैसे होने चाहिए। अपनी क़ुर्बानियां देकर दीन को संवारने वाले या दीन के नाम पर अपनी जिंदगियां संवारने वाले?
 
अलहम्दुलिल्लाह इमाम हुसैन और एहले बैत की मुहब्बत तो हमारे दिलों में है ही, अल्लाह रब्बुलइज़्ज़त कर्बला के पैग़ाम को भी समझने और हमारी ज़िंदगियों में उतारने की तौफ़ीक़ अता करे! आमीन
 
(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)

 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

शुक्रवार को क्यों नहीं खाते हैं खट्टी चीजें?