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मुस्लिम लोग मोहर्रम क्यों मनाते हैं, क्यों निकालते हैं ताजिये?

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WD Feature Desk

, शनिवार, 5 जुलाई 2025 (15:40 IST)
Tazia procession in Muharram: मुहर्रम इस्लाम धर्म के कैलेंडर का पहला महीना है। मुस्लिम लोग मुहर्रम को एक पवित्र महीना मानते हैं और इसकी 10वीं तारीख, जिसे आशूरा कहा जाता है, का विशेष महत्व है। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार भारत में जहां 26 जून की शाम को चांद दिखाई देने के बाद, 27 जूनल दिन शुक्रवार से मुहर्रम का पाक महीना शुरू हुआ था और इस हिसाब से मुहर्रम का दसवां दिन यानी 'यौमे-ए-अशूरा' इस बार 6 जुलाई 2025ल दिन रविवार को मनाया जाएगा। बता दें कि यह दिन इमाम हुसैन की शहादत की याद में मनाया जाता है और यह बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है।ALSO READ: इस साल मुहर्रम कब है और क्या होता है?
 
मुस्लिम लोग मुहर्रम क्यों मनाते हैं: इस्लाम धर्म में मुहर्रम मनाने का मुख्य कारण इमाम हुसैन इब्न अली की शहादत को याद करना है। इमाम हुसैन पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के छोटे नवासे (नाती) थे। मुहर्रम, खासकर आशूरा का दिन, इस्लाम में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना इमाम हुसैन की शहादत की याद दिलाता है। शिया समुदाय इसे शोक के रूप में मनाता है, जबकि सुन्नी समुदाय उपवास और इबादत करता है। 
 
• कर्बला की घटना: लगभग 1300 साल पहले (61 हिजरी में), मुहर्रम की 10वीं तारीख को इराक के कर्बला नामक स्थान पर एक युद्ध हुआ था। यह युद्ध इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों तथा याज़िद (तत्कालीन उमय्यद ख़लीफ़ा) की बड़ी सेना के बीच हुआ था।
 
• न्याय और सत्य के लिए बलिदान: इमाम हुसैन ने याज़िद के अन्यायपूर्ण शासन और उसकी बेइंसाफियों के खिलाफ आवाज़ उठाई थी। उन्होंने अत्याचार के आगे झुकने से इनकार कर दिया और सच्चाई, न्याय और इस्लाम के सिद्धांतों को बचाने के लिए अपने परिवार और साथियों के साथ अपनी जान कुर्बान कर दी।
 
• शोक और मातम (शिया समुदाय): शिया मुसलमान मुख्य रूप से इस दिन को शोक और मातम के रूप में मनाते हैं। वे इमाम हुसैन और उनके साथियों की प्यास, भूख और शहादत को याद करते हुए जुलूस निकालते हैं, मजलिसें/ शोक सभाएं आयोजित करते हैं और अपने दुःख का इज़हार करते हैं। इस दिन शिया समुदाय के लोग किसी भी प्रकार का जश्न या खुशी नहीं मनाते, बल्कि शोक में डूबे रहते हैं।
 
• सुन्नी समुदाय का उपवास और इबादत: सुन्नी मुसलमान भी मुहर्रम के महीने को पाक मानते हैं, खासकर आशूरा के दिन को। हालांकि, वे शोक नहीं मनाते। सुन्नी परंपरा के अनुसार, इस दिन कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएं हुईं, जैसे कि हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) का फ़िरौन से मुक्ति पाना। इसलिए सुन्नी मुसलमान इस दिन (अक्सर 9वीं और 10वीं या 10वीं और 11वीं मुहर्रम को) उपवास (रोजा) रखते हैं और अल्लाह की इबादत करते हैं।ALSO READ: मोहर्रम मास 2025: जानें मुहर्रम का इतिहास, धार्मिक महत्व और ताजिये का संबंध
 
Taziya ताजिये क्यों निकालते हैं: ताज़िया अरबी शब्द 'ताजियत' से आया है, जिसका अर्थ है शोक मनाना या संवेदना व्यक्त करना। ताजिया इमाम हुसैन के मकबरे यानी रोज़ा-ए-मुबारक की एक प्रतीकात्मक प्रतिकृति है, जो इराक के कर्बला में स्थित है।
 
• शहादत की याद: ताजिये मुख्य रूप से शिया मुसलमानों द्वारा इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत और बलिदान को याद करने और उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए निकाले जाते हैं। यह कर्बला की उस दुखद घटना का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है, जहां इमाम हुसैन को शहीद किया गया था।
 
• शोक जुलूस: मुहर्रम की 10 तारीख (आशूरा) और उसके आसपास ताजिये के साथ बड़े-बड़े जुलूस निकाले जाते हैं। इन जुलूसों में लोग मातम करते हुए चलते हैं, नौहे/ शोकगीत पढ़ते हैं और इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद करते हैं।
 
• श्रद्धांजलि और सम्मान: ताजिये निकालकर भक्त यह दर्शाते हैं कि वे भले ही कर्बला न जा सकें, लेकिन वे अपने दिलों में इमाम हुसैन के प्रति वही सम्मान और श्रद्धा रखते हैं और उनके बलिदान को कभी नहीं भूलेंगे।
 
• ताजिया की परंपरा: भारतीय संदर्भ में देखा जाये तो भारत में ताजिया निकालने की परंपरा कई शताब्दियों पुरानी है और यह विशेष रूप से भारतीय उपमहाद्वीप में लोकप्रिय हुई।
 
ताजिया बनाना और उसका जुलूस निकालना शोक और श्रद्धांजलि का प्रतीक माना जाता है। इसका मकसद इमाम हुसैन के अदम्य साहस और सच्चाई के लिए दिए गए बलिदान को याद करना, अन्याय और ज़ुल्म के खिलाफ खड़े होने का संदेश देना, और समाज में इंसानियत, इंसाफ और भाईचारे की भावना को बढ़ाना है।
 
ताजिये शिया समुदाय द्वारा इमाम हुसैन के मकबरे की प्रतीकात्मक प्रतिकृतियां हैं, जिन्हें उनकी शहादत को याद करने और श्रद्धांजलि देने के लिए जुलूस के रूप में निकाला जाता है।

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