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जिंदगी में दखल देते टीवी-इंटरनेट

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- राजकुमार 'दिनकर'

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संचार क्रांति ने दुनिया को जितना और जिस स्तर पर बदला है, उतना पहले किसी और क्रांति ने नहीं। टीवी, मोबाइल फोन और इंटरनेट ने जीवन-दर्शन, शैली और जरूरत सबको बदल डाला है। होना तो यह चाहिए था कि संचार से संवाद के रास्ते खुलते, लेकिन हो यह रहा है कि हम मियामी के बीच के बारे में तो जानते हैं, लेकिन अपने गाँव, कस्बे में बहती नदी की दुर्दशा के बारे में नहीं।

दरअसल इंटरनेट और टीवी ने हमें एक ऐसी दुनिया का भ्रम दिया है, जो हकीकत में नहीं है। फिर भी हम इसके नशे में अपनों और अंत में खुद से कटकर अकेले हो रहे हैं और हमें इसका अहसास तक नहीं है।

एक सरकारी दफ्तर में काम करने वाले सुभाष अरो़ड़ा अपने ऑफिस से घर जाकर कुछ खा-पीकर थोड़ा समय अपने पत्नी और बच्चों के साथ बिताते हैं। इसके बाद वे अपने कमरे में जाकर टीवी का रिमोट हाथ में ले लेते हैं और रात 10 बजे तक टीवी के प्रोग्राम देखते हैं। यहाँ तक कि वे खाना भी वहाँ खाते हैं।

यह सिर्फ इनकी ही आदत नहीं है। आजकल हम में से ज्यादातर लोग घर जाकर टीवी या कम्प्यूटर पर अपना समय बिताते हैं। आमतौर पर महिलाएँ ऑफिस से घर पहुँचने के बाद परिवार के लिए खाना बनाती हैं, बच्चों को होमवर्क कराती हैं व शेष बचे समय में टीवी देखती हैं जबकि टीनएजर या नई जनरेशन के लोग या फिर इंटरनेट लवर, ऐसे लोग टेलीविजन स्क्रीन पर आँखें गड़ाने की बजाए शाम का समय कम्प्यूटर पर बिताते हैं।

महिलाएँ तो विशेषतौर पर शाम के समय अपने पसंदीदा घरेलू सीरियल देखना पसंद करती हैं। इंटरनेट सर्फिंग के आदी अपने लैपटॉप पर नई साइट्स खोजते हैं या चैट करते हैं या फिर मीडिया ब्लॉगिंग वगैरह-वगैरह।

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आजकल लोगों के घरों में शाम का समय सभी लोग इसी तरह गुजारते हैं। परिवार के लोग यदि एक स्थान पर बैठकर खाना खाते हैं तो जल्दी-जल्दी खाना खाकर सब टीवी या कम्प्यूटर की ओर दोबारा चले जाते हैं। बच्चे तो खासतौर पर सेलफोन पर अपने दोस्तों को मैसेज भेजने और रिसीव करने में लगे रहते हैं। शाम का खाना भी ये आधे-अधूरे मन से या जल्दबाजी में खाते हैं।

याद करें वो दिन जब टीवी, कम्प्यूटर और इंटरनेट जैसी चीजों की हमारे जीवन में इतनी ज्यादा दखलंदाजी नहीं थीं। शाम के समय टीवी पर कुछ ही समय प्रोग्राम आते थे। रात के समय आने वाले चित्रहार को देखने का इंतजार पूरे परिवार को रहता था और कम्प्यूटर भी उन दिनों एक अलग दुनिया की चीज थी। सोचिए क्या उन दिनों हमारी शामें भला अच्छी नहीं कटती थीं? परिवार के सदस्य आपस में बातें करते थे।

दोस्त-यारों के बीच गपशप होती थी। उन दिनों सबका एक-दूसरे का साथ अच्छा मेलजोल होता था और शाम का समय मनोरंजन से भरपूर होता था, तब हमें मनोरंजन के दूसरे साधन की जरूरत ही नहीं होती थी। जिन दिनों टेलीविजन पर एक सीमित समय तक प्रोग्राम आते थे और 24 घंटे का प्रसारण नहीं था उन दिनों टीवी पर देखे जाने वाले प्रोग्राम और फिल्में ही सबके लिए आपसी विचार-विमर्श का एक जरिया होती थीं।

घर की बड़ी लड़कियाँ रसोईघर में माँ का हाथ बँटाया करती थीं, छोटे बच्चे आस-पड़ोस के बच्चों के साथ खेला करते थे। ये सब चीजें आजकल कहीं खो-सी गई हैं। परिवार के सदस्य काम से लौटकर आने के बाद अपने-अपने कमरों में कैद हो जाते हैं। कुल मिलाकर एक संवादहीनता पूरे घर में बनी रहती है। हर कोई एक-दूसरे के साथ सिर्फ मतलब की बात करता है।

दादी-नानी की कहानी सुनने की फुरसत अब बच्चों को कहाँ? अब कहाँ पहले जैसी बात रही है। जब दादाजी खाना खाने बैठते तो छोटे बच्चे दादा को या पिता को गर्म-गर्म फुलके खाने के लिए लाकर देते थे। बच्चों में अब वह पहले जैसी बात नहीं रही। स्कूल से लौटकर आने के बाद इंटरनेट ही उनकी बातचीत का जरिया बन गया है।

स्कूल से लौटकर आने के बाद वे घंटों दूसरे बच्चों के साथ चैट करते हैं। जबकि एक वह भी दौर था जब लोग टेलीविजन और कम्प्यूटर के बिना परिवार में एक-दूसरे के साथ मिल-बैठकर बात किया करते थे, एक-दूसरे के सुख-दुःख बाँटा करते थे। काश! वे दिन फिर लौट आएँ तभी बढ़ती हुई अजनबीयत कम हो पाएगी।

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