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उत्तम क्षमा

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क्रोध एक कषाय है। जो व्यक्ति को अपनी स्थिति से विचलित कर देती है। इस कषाय के आवेग में व्यक्ति विचार शून्य हो जाता है। और हिताहित का विवेक खोकर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। लकड़ी में लगने वाली आग जैसे दूसरों को जलाती ही है, पर स्वयं लकड़ी को भी जलाती है। इसी तरह क्रोध कषाय के स्वरूप को समझ लेना और उस पर विजय पा लेना ही क्षमा धर्म है।

मनीषियों ने कहा है कि क्रोध अज्ञानता से शुरू होता है और पश्चाताप से विचलित नहीं होना ही क्षमा धर्म है। पार्श्वनाथ स्वामी और यशोधर मुनिराज का ऐसा जीवन रहा कि जिन्होंने अपनी क्षमा और समता से पाषाण हृदय को भी पानी-पानी कर दिया।

शत्रु-मित्र, उपकारक और अपकारक दोनों के प्रति जो समता भाव रखा जाता है वही साधक और सज्जन पुरुषों का आभूषण है। शांति और समता आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, जो कभी नष्ट नहीं हो सकता।
  कषाय के आवेग में व्यक्ति विचार शून्य हो जाता है। और हिताहित का विवेक खोकर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। लकड़ी में लगने वाली आग जैसे दूसरों को जलाती ही है, पर स्वयं लकड़ी को भी जलाती है। इसी तरह क्रोध कषाय को समझ पर विजय पा लेना ही क्षमा धर्म है।      


यह बात अलग है कि कषाय का आवेग उसके स्वभाव को ढँक देता है। पानी कितना भी गरम क्यों न हो पर अंतत: अपने स्वभाव के अनुरूप किसी न किसी अग्नि को बुझा ही देता है। अज्ञानी प्राणी अपने इस धर्म को समझ नहीं पाता। कषायों के वशीभूत होकर संसार में भटकता रहता है। इसलिए अपने जीवन में क्षमा को धारण करना चाहिए और नित्य यह भावना रखनी चाहिए।

सुखी रहे सब जीव, जगत में कोई कभी ना घबरावें।
बैर, पाप, अभिमान, छोड़, जग नित्य नए मंगल गावें।

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