कुंथुनाथ भगवान : सत्रहवें तीर्थंकर
जैन धर्म के सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथ का जन्म हस्तिनापुर में वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन हुआ। पिता सूर्यसेन हस्तिनापुर के राजा और माता महारानी श्रीकांता थीं।जैन धर्मग्रंथों के अनुसार अपने पूर्व जन्म के पुण्यों के प्रताप से ही कुंथुनाथ चक्रवर्ती राजा बने। उनकी आयु 95 हजार वर्ष की थी। जब उनकी आयु के 23 हजार 750 वर्ष बीते, तब राजा सूर्यसेन ने कुंथुनाथ विवाह कर दिया और सारा राजपाट उन्हें सौंप कर स्वयं मुनि बन गए। पुण्य फलों की प्राप्ति के कारण ही कुंथुनाथ को सभी सांसारिक और दैवीय सुख प्राप्त थे तथा यक्ष, किन्नर, राक्षस, मनुष्य और देव उनके हर संकेत का पालन करने को तत्पर रहते थे।इसी तरह कई वर्ष बीतते गए और एक दिन वे वन भ्रमण के लिए राजदरबार से निकले। वन में उन्होंने एक दिगंबर मुनि को कठोर तप करते देखा, तो उन्हें आत्मबोध हुआ और उनके मन में सांसारिक भोगों के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गई। वे उल्टे पांव राजदरबार लौट कर आए, अपने पुत्र को राज्यभार सौंपा और स्वयं भी मुनि-दीक्षा ले ली। इस समय तक उनकी आयु लगभग 48 हजार वर्ष थी।
उन्होंने अपने राज्यकाल में लगभग 24 हजार वर्ष तक राज्य किया था। अब वे तीर्थंकर बनने के लिए घोर तप में लगे हुए थे। करीब सोलह वर्षों तक उन्होंने विभिन्न योग और तपों के माध्यम से अपने कर्मों का क्षय किया। अंतत: चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन उन्हें कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई।उन्होंने तीर्थंकर के रूप में अपना पहला उपदेश सहेतुक वन में दिया। जिसमें कई देव, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सभी उपस्थित थे। सभी को धर्म का उपदेश देकर उन्होंने धर्म-तीर्थ की स्थापना की। लगभग सवा लाख मुनि, शिक्षक, कैवल्य ज्ञानी आर्यिकाएं, श्रावक-श्राविकाएं, देव-देवियां और पशु-पक्षी आदि उनके संघ में शामिल थे। भगवान कुंथुनाथ ने अपना शेष जीवन धर्मोपदेश देकर व्यतीत किया। तत्पश्चात प्रमुख जैन तीर्थ सम्मेदशिखरजी पर उन्हें वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन निर्वाण प्राप्त हुआ और वे जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर सत्रहवें तीर्थंकर बन गए।भगवान कुंथुनाथ का अर्घ्य जल चन्दन तन्दुल प्रसून चरु, दीप धूप लेरी।फल जुत जजन करों मन सुख धरि, हरो जगत फेरी।कुन्थु सुन अरज दास केरी, नाथ सुन अरज दास केरी।भव सिन्धु परयों हों नाथ, निकारो बांह पकर मेरी।प्रभु सुन अरज दास केरी, नाथ सुन अरज दास केरी।जगजाल परयो हो वेग, निभारो बांह पकर मेरी।