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क्षमापना दिवस एवं स्थविरावली आचार्य परंपरा

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हमें फॉलो करें क्षमापना दिवस एवं स्थविरावली आचार्य परंपरा
- मुनि ऋषभचन्द्र विजय 'विद्यार्थी'

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इस लोक में दो प्रकार के पर्व हैं: लौकिक पर्व और लोकोत्तर पर्व। लौकिक पर्व होली, दिवाली, रक्षाबंधन इत्यादि इहलोक के साधन, मनोरंजन एवं भौतिक कामनाओं की पूर्ति की इच्छा रखवाते हैं। जबकि पर्युषण पर्व लोकोत्तर पर्व है। यह आत्म शुद्धि, जगत मैत्री एवं परलौकिक मनुष्य भव को सुधारने का पर्व है।

इन पवित्र दिनों वाचन किए जाने वाले महान पवित्र ग्रंथ कल्पसूत्रजी में महावीर चरित्र मोक्ष बीज है तथा पार्श्वनाथ चरित्र अंकुर है। नेमीनाथ चरित्र धड़ समान है एवं आदिनाथ चरित्र शाखा समान है, स्थविरावली पुष्प समान है, समाचारी सुगंध समान है। इन सबकी फल श्रुति साक्षात मोक्ष समान है। आज संवत्सरी महापर्व, क्षमापना दिवस है।

क्षमावाणी का पवित्र उद्घोष करें, अपने-परायों का भेद छोड़कर समस्त आत्मीय बैर भाव का परित्याग करें, सभी स्नेही संबंधी स्वजनों से हुए अंतरंग मतभेदों को, सौम्य भाव से अपनी गलतियों को स्वीकार करें- क्षमापना करें। मैत्री, सौहार्दपूर्ण संबंधों को स्थापित कर इस शुभ अवसर पर क्षमापना को उपस्थित शत्रु को, शत्रुता भूलकर क्षमा प्रदान करें।

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भगवान महावीर स्वामी ने धर्मसंघ की स्थापनार्थ इन्द्रभूति गौतम स्वामी इत्यादि ग्यारह गणधरों को प्रथम दीक्षा प्रदान की। नवगणधरों ने भगवान के जीवकाल में ही कैवल्यता प्राप्त की। भगवान के निर्वाण पश्चात इन्द्रभूति गौतम स्वामी को कैवल्य ज्ञान उत्पन्न हुआ, अतः पांचवें गणधर सुधर्म स्वामी को गण की जवाबदारी मिली। यहीं से गण गच्छ परंपरा शुरू हुई।

32 वर्ष तक गण परंपरा का निर्वाह कर कैवल्यता की प्राप्ति कर सुधर्म निर्वाण पद प्राप्त किया। परंपरा में जम्बू स्वामी गणाधीश हुए। चौसठ वर्ष तक चतुर्विध संघ को धर्माराधना का मार्गदर्शन करते हुए अंतिम केवली हुए। केवली के अभाव में श्रुत केवलियों का मार्गदर्शन श्रीसंघ को मिला। उनमें चौदह पूर्वधर श्रुत केवली हुए।

तत्पश्चात दस पूर्वधर आर्य स्थुलिभद्र हुए। यहां जिनकल्पी मुनि परंपरा का विच्छेद हुआ और स्थविरकल्पी मुनि परंपरा शुरू हुई, जो पंचम काल के अंत तक चलेगी। आर्य जम्बू स्वामी को कात्यायन गौत्रीय स्थविर आर्य प्रभवस्वामी नामक मुख्य शिष्य हुए। उनको आर्य शय्यंभव हुए। आर्य यशोभद्र उनके उत्तराधिकारी बने। तत्पश्चात आर्य भद्रबाहु एवं संभूति विजय नामक दो शिष्य हुए। प्रतिष्ठानपुर नगर में वाराह मिहिर एवं भद्रबाहु दोनों सगे भाई थे। दोनों ज्योतिष ज्ञान के अद्भुत धनी थे। मतभेदों के चलते दोनों भाई अलग हुए। भद्रबाहु जैनाचार्य बने।

वाराहमिहिर ने निमित्त शास्त्र वेत्ता बनकर वाराह संहिता की रचना की। पाटलीपुत्र निवासी शकटाल मंत्री के ज्येष्ठ पुत्र स्थुलिभद्र थे। ब्रह्मव्रतनिष्ठा के लिए जैन परंपरा में आर्य स्थुलिभद्र का नाम प्रातः स्मरणीय है। पश्चात आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति नामक आचार्य हुए। जिनकल्प परंपरा का विच्छेद होकर स्थविर परंपरा में आज तक अनेक गच्छ गण परंपराएं विकसित हुई हैं जिनकी संख्या 84 है। वर्तमान में अनेक गण गच्छ परंपरा अपने-अपने विचारों को लेकर भगवान महावीर द्वारा प्ररुपित देशविरती एवं सर्वविरती धर्मरूप सम्यग्‌ जैन परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं।

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