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जानें जैन धर्म को

अरिहंतों को नमस्कार

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अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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'णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥'

भावार्थ : अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सभी साधुओं को नमस्कार।

दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म जैन धर्म को श्रमणों का धर्म कहा जाता है। वेदों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि वैदिक साहित्य में जिन यतियों और व्रात्यों का उल्लेख मिलता है वे ब्राह्मण परम्परा के न होकर श्रमण परम्परा के ही थे। मनुस्मृति में लिच्छवि, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रियों को व्रात्यों में गिना है।

कहने का अर्थ यह कि प्राचीनकाल से ही श्रमणों की परम्परा वेदों को मानने वालों के साथ ही चली आ रही थी। भगवान पार्श्वनाथ तक यह परम्परा कभी संगठित रूप में अस्तित्व में नहीं आई। पार्श्वनाथ से पार्श्वनाथ सम्प्रदाय की शुरुआत हुई और इस परम्परा को एक संगठित रूप मिला। भगवान महावीर पार्श्वनाथ सम्प्रदाय से ही थे।

जैन शब्द जिन शब्द से बना है। जिन बना है 'जि' धातु से जिसका अर्थ है जीतना। जिन अर्थात जीतने वाला। जिसने स्वयं को जीत लिया उसे जितेंद्रिय कहते हैं।

तिरसठ शलाका पुरुष : कुलकरों की परम्परा के बाद जैन धर्म में क्रमश: चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ वासुदेव और नौ प्रति वासुदेव मिलाकर कुल 63 महान पुरुष हुए हैं। इन 63 शलाका पुरुषों का जैन धर्म और दर्शन को विकसित और व्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

चौबीस तीर्थंकर : जैसे हिंदुओं में 10 अवतार हैं वैसे ही जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं जिनके नाम निम्नलिखित हैं:- ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांश, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुन्थु, अरह, मल्लि, मुनिव्रत, नमि, नेमि, पार्श्वनाथ और महावीर।

महावीर का मार्ग : अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने तीर्थंकरों के धर्म और परंपरा को सुव्यवस्थित रूप दिया। कैवल्य का राजपथ निर्मित किया। संघ-व्यवस्था का निर्माण किया:- मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। यही उनका चतुर्विघ संघ कहलाया।

इसके लिए उन्होंने धर्म का मूल आधार अहिंसा को बनाया और उसी के विस्तार रूप पंच महाव्रतों (अहिंसा, अमृषा, अचौर्य, अमैथुन और अपरिग्रह) व यमों का पालन करने के लिए मुनियों को उपदेश किया।

गृहस्थों के भी उन्होंने स्थूलरूप-अणुव्रत रूप निर्मित किए। उन्होंने श्रद्धान मात्र से लेकर, कोपीनमात्र धारी होने तक के ग्यारह दर्जे नियत किए। दोषों और अपराधों के निवारणार्थ उन्होंने नियमित प्रतिक्रमण पर जोर दिया।

जैन त्रिरत्न : सम्यक्‌दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। 1. सम्यक्‌ दर्शन 2. सम्यक्‌ ज्ञान और 3. सम्यक्‌ चारित्र। उक्त तीनों मिलकर ही मोक्ष का द्वार खोलते हैं। यही कैवल्य मार्ग है।

जैन धर्मग्रंथ : भगवान महावीर ने जो उपदेश दिए थे उन्हें बाद में उनके गणधरों ने, प्रमुख शिष्यों ने संग्रह कर लिया। इस संग्रह का मूल साहित्य प्राकृत और विशेष रूप से मगधी में है।

भगवान महावीर से पूर्व के जैन साहित्य को महावीर के शिष्य गौतम ने संकलित किया था जिसे 'पूर्व' माना जाता है। इस तरह चौदह पूर्वों का उल्लेख मिलता है।

अहिंसा परमो धर्म : वैसे तो वेदों में भी अहिंसा के सूत्र हैं। भगवान बुद्ध ने भी अहिंसा को महत्व दिया है किंतु अहिंसा को व्यापक रूप से प्रचारित करने का श्रेय जैन धर्म को ही जाता है।

जैन धर्म के आचार का मूलमंत्र है अहिंसा। जैन धर्म में अहिंसा का सबसे ऊँचा स्थान है। जैन धर्मग्रंथों में अहिंसा की बहुत ही सूक्ष्म विवेचना की गई है। स्थूल हिंसा तो पाप है ही, भाव हिंसा को भी सबसे बड़ा पाप माना गया है।




अनेकांतवाद और स्यादवाद :
अनेकांतवाद वस्तु और स्यादवाद ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है। इसे समझना कठिन है। यहाँ इतना ही जानना उचित है कि यह पदार्थ और ज्ञान (आत्मा) संबंधी जैन अवधारणा का सिद्धांत है। सत्ता की दृष्टि से इसे अनेकांतवाद और ज्ञान की दृष्टि से इसे स्यादवाद कहा जाता है।

अनेकांतवाद : इस जगत में अनेक वस्तुएँ हैं और उनके अनेक धर्म (गुण-तत्व) हैं। जैन दर्शन मानता है कि मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, पेड़ और पौधों में ही चेतना या जीव नहीं होते बल्कि धातुओं और पत्थरों जैसे जड़ पदार्थ में भी जीव रहते हैं। पुदगलाणु भी अनेक और अनंत हैं जिनके संघात बनते-बिगड़ते रहते हैं।

अनेकांतवाद कहता है कि वस्तु के अनेक गुण-धर्म होते हैं। वस्तु के अनेक धर्म आगंतुक अर्थात आते-जाते रहते हैं। इसका मतलब कि पदार्थ उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है, परिवर्तनशील, आकस्मिक और अनित्य है। अत: पदार्थ या द्रव्य का लक्षण है बनना, बिगड़ना और फिर बन जाना। यही अनेकांतवाद का सार है।

इसे इस तरह में समझें कि हर वस्तु को मुख्य और गौण, दो भागों में बाँटें तो एक दृष्टि से एक चीज सत्‌ मानी जा सकती है, दूसरी दृष्टि से असत्‌। अनेकांत में समस्त विरोधों का समन्वय हो जाता है। अत: सत्य को अनेक दृष्टिकोण से देखा जा सकता है।

स्यादवाद : 'सापेक्षता', अर्थात 'किसी अपेक्षा से'। अपेक्षा के विचारों से कोई भी चीज सत्‌ भी हो सकती है, असत्‌ भी। इसी को 'सत्तभंगी नय' से समझाया जाता है। इसी का नाम 'स्यादवाद' है।

स्यादवाद का अर्थ सापेक्षतावाद होता है। सापेक्ष सत्य। हम किसी भी पदार्थ या ब्रह्मांड का ज्ञान दार्शनिक बुद्धि की कोटियों से प्राप्त नहीं कर सकते। इससे सिर्फ आंशिक सत्य ही हाथ लगता है। इसके लिए जैन एक उदाहरण देते हैं:-

एक अंधे ने हाथी के पैर छूकर कहा कि हाथी खम्भे के समान है। दूसरे ने कान छूकर कहा कि हाथी सूपड़े के समान है। तीसरे ने सूँड छूकर कहा कि हाथी एक विशाल अजगर के समान है। चौथे ने पूँछ छूकर कहा कि हाथी रस्सी के समान है। दार्शनिक या तार्किक विवाद भी इसी तरह चलते रहते हैं, किंतु सभी आँख वाले जानते हैं कि समग्र हाथी इनमें से किसी के भी समान नहीं है।

महावीर स्वामी ने स्वयं भगवतीयसूत्र में आत्मा की सत्ता के विषय में स्याद अस्ति, स्याद नास्ति और स्याद अवक्तव्यम इन तीन भंगों का उल्लेख किया है।

आत्मा और ब्रह्मांड संबंधी जैन धारणा : ईश्वरवादी धर्म मानते हैं कि जीव और जगत को ईश्वर ने बनाया है। इसका मतलब तीन का अस्तित्व हुआ। पहला ईश्वर, दूसरा जीव और तीसरा जगत। लेकिन जैन दर्शन का मानना है कि दो का ही अस्तित्व है पहला जीव और दूसरा जगत। जीव अनेक हैं उसी तरह जिस तरह की जगत के तत्व अनेक हैं।

दो का ही अस्तित्व है- जीव और जगत। दोनों एक-दूसरे से बद्ध हैं। बद्ध अर्थात बंधन में होना। शरीर और आत्मा। आत्मा के बगैर शरीर निश्चेत है और शरीर के बगैर आत्मा की उपस्थिति का अर्थ नहीं। लेकिन जो मुक्त आत्मा है उन्हें ही आत्मा होने का आभास है।

पूरयंति गलंति च अर्थात जो पूर्ण होते रहें और गलते रहें, जो बनते-बिगड़ते रहें उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणु को पुदगल कहा जाता है। दूसरे धर्म दर्शन इसे माया, प्रकृति या परमाणु कहते हैं। भौतिक जड़ द्रव्य के लिए जैन 'पुदगल' शब्द का प्रयोग करते हैं।

जैन दर्शन अनुसार चेतन जीव और अचेतन पुदगल दोनों ही परस्पर भिन्न, स्वतंत्र और नित्य तत्व हैं। अर्थात ब्रह्मांड में केवल जीव और अजीव दो ही तत्व हैं। जीव का अजीव से पृथक हो जाना ही कैवल्य है।

जैन धर्म पर विस्तृत जानकारी

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