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मुनि ऋषभचन्द विजय 'विद्यार्थी'
उपासक वर्ग के लिए चतुर्थ कर्तव्य है अट्ठम तप अर्थात आठ समय आहार का त्याग। इसमें प्रथम दिन एकासना व्रत करके तीन दिन तक समस्त आहार त्यागकर पांचवें दिन एक समय आहार ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार कुल आठ समय आहार का त्याग किया जाता है। यथाशक्ति तप करने वाले पर्युषण पर्व के अंतिम दिन जो उपवास करते हैं उसे अट्ठम तप कहा जाता है।
जैन श्रावक वर्ग को वार्षिक प्रायश्चित धर्माचार्य संवत्सरी प्रतिक्रमण में सुनाते हैं, उसमें कहा जाता है कि एक अट्ठम तप करने की शक्ति न हो तो तीन अलग-अलग उपवास करें। उपवास भी न होता हो तब छः आयंबिल (नीरस भोजन) तप करें। आयंबिल भी न हो तो बारह एकासणा व्रत करें। यह भी संभव न हो तो चौबीस बियासणा तप करें। वह भी करने की क्षमता न हो तो छः हजार धर्मशास्त्रों के श्लोकों का वाचन करें। पढ़ाई के अभाव में यह भी संभव न हो तो उपासक साठ नवकार मंत्र की माला संपूर्ण गिनकर तप मार्ग का अनुसरण अवश्य करें।
मानव जीवन प्राप्त कर जो धर्म विधि नहीं अपनाता है, वह प्रमाद की पुष्टि करता है। प्रमाद मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। उससे दूर रहने के लिए अल्पाधिक व्रत, तपादि कर दृढ़ता का अनुसरण करें। धर्मानुष्ठान से मोक्ष मार्ग सहज बनता है।
जैन धर्म में बारह प्रकार के तपाचरण का उल्लेख है, जिनमें छः बाह्य तथा छः आभ्यंतर तप हैं। इन तपों का अर्थ रहस्यपूर्ण है, जो साधक को अध्यात्म मार्ग की ओर ले जाता है। अनादिकाल से देह भाव में रमण करने वाली जीवात्माओं को परमात्मा ने अध्यात्म की सरलतम साधना हेतु साधना के सरल मार्ग बताए हैं, जिन्हें गुरु आज्ञा व गुरुकृपा से समझकर स्वयं के आचरण में लाना चाहिए।
छः बाह्य तप इस प्रकार हैं :
अनशन- निर्धारित समय मर्यादा का उपवास।
उणोदरी- भूख के प्रमाण से कम भोजन करना अर्थात एकासणा, बियासणा आदि व्रतों से मनोनिग्रह करना।
वृत्ति संक्षेप- तप के लिए आहार पदार्थों को कम संख्या या मर्यादा में ग्रहण करना।
रसत्याग- जिस भोजन में जुबान को रस आता है जैसे- घी, दूध, मिठाई आदि, उसका त्याग।
कायक्लेश- शरीर को सुखशील साधनों से दूर रखना, उसे कष्ट सहने योग्य बनाना, कष्ट को भी समभाव से सहन करना।
संलीनता- शरीर, साधना का बाह्य साधन है। उसे धर्मानुष्ठान के समय स्थिर रखना।
छः आभ्यंतर तप हैं-
प्रायश्चित विनय वैयावृत्य (अर्थात सेवा)
स्वाध्याय ध्यान कायोत्सर्ग
उपासक के लिए पांचवां कर्तव्य है चैत्य परिपाटी अर्थात देवदर्शन, परमात्मा की भक्ति, पूजा-अर्चना करना, विविध जिन मंदिरों के दर्शन नित्य करना, संघ सहित समूह में चैत्यों के दर्शन को जाना, गुरुजनों के नित्य दर्शन करना इत्यादि।