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महामंगल का प्रतीक कल्पसूत्रजी वाचन

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हमें फॉलो करें महामंगल कल्पसूत्रजी वाचन
- मुनि ऋषभचन्द्र विजय 'विद्यार्थी'

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आज प्रस्तुत है कल्पसूत्रजी के वाचन का संक्षिप्त सार। कल्प अर्थात आचार। अभी तक आपने श्रावकाचार का वर्णन पढ़ा, अब ग्रंथकार साधु की प्रमाद रहित क्रिया का विवेचन इस कल्पसूत्र में करते हैं। साधु के दश प्रकार के कल्प हैं। उसमें दसवाँ पर्युषण कल्प कहा गया है।

पर्युषण कल्प साधु के चातुर्मास में निश्चित प्रकटीकरण अर्थात स्थिरता की घोषणा है। चातुर्मास में 70 दिन तक एक जगह रहना स्थिरता का प्रतीक है। जैन दर्शन में कल्पसूत्र ग्रंथ के वाचन की सुव्यवस्थित विधि है। इसका वाचन एवं श्रवण करने वाले जीवात्मा निश्चय ही भव तीसरे अथवा आठवें तक मोक्ष सुख को प्राप्त होते हैं। इस महान पवित्र ग्रंथ में तीर्थंकर जीवन दर्शन, गणधर परंपरा एवं साधु समाचारी तीन अधिकार प्रस्तुत किए गए हैं।

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक साधुओं के प्रायश्चित कर्म में जड़, वक्र एवं सरल बुद्धि का वर्णन है। चातुर्मास काल में किन परिस्थितियों में साधु स्थान का परित्याग कर अन्यत्र जा सकता है, उन स्थितियों का वर्णन कर साधु को स्थान परिवर्तन के अपवाद मार्ग बताए गए हैं। भगवान महावीर के छठे पट्धर चौदह पूर्वधर भद्रबाहु स्वामी युग प्रधान हुए। उन्होंने इस ग्रंथ की रचना प्रत्याख्यान प्रवाद नामा पूर्व से दशाश्रुतस्कंध सूत्र के आठवें अध्ययन के रूप में की।

कल्पसूत्र की शुभारंभ मंगल गाथा :
पुरिम चरिमाण कप्पो मंगलं वद्धमाण जिण तित्थं॥
इह परिगहिया जिणहरा थेरावली चरितम्मि॥1

कल्पसूत्र महामंगलकारी है। इसके श्रवण से अनेक विघ्नों का नाश होता है। नमस्कार महामंत्र के वाचन से व्याख्यान प्रारंभ होकर सर्वप्रथम तीर्थंकर महावीर प्रभु के जीवन दर्शन का वर्णन है। परमात्मा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में देवलोक च्यवित होकर माता देवानंदा की कुक्षी में एवं हरिणागमेशी देव द्वारा चतुर्थ मास में पुनः उत्तरा नक्षत्र में ही माता त्रिशलादेवी के गर्भ में स्थानांतरित होते हैं। अवसर्पिणी एवं उत्ससर्पिणी काल गणना का वर्णन सूत्रकार करते हैं। अवसर्पिणी काल के चौथे में आरे के पिचहत्तर वर्ष बीत जाने पर भगवान का जन्म वैशाली गणतंत्र के क्षत्रिय कुंड ग्राम में सिद्धार्थ राजा के यहां हुआ।

भगवान महावीर के तीर्थंकरत्व की प्राप्ति हेतु जन्म से पूर्व के सत्ताईस जन्मों की गणना है। प्रथम नयसार के भव में जंगल में तपस्वी मुनिवरों को आहार दान देकर सम्यक धर्म को आत्मसात कर तीर्थंकर कर्म को प्राप्त हुए। तीसरे जन्म में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के पुत्र रूप में मरिची ने वैराग्य प्राप्त कर भगवान ऋषभदेव के पास दीक्षा ग्रहण की। साधु जीवन के कठोर नियमों से घबराकर संन्यासी परंपरा का सूत्रपात कर भगवान ऋषभदेव के सान्निध्य में ही रहे।

भगवान ऋषभदेव के श्रीमुख से मरिची को तीर्थंकर परंपरा का अंतिम तीर्थंकर जानकर भरत चक्रवर्ती वंदना करने आए। सत्ताईसवें भव में ब्राह्मण कुल में ऋषभदत्त की भार्या देवनंदा की कुक्षी में अवतरित हुए। देवताओं ने आश्चर्यपूर्वक भगवान महावीर के गर्भस्थ जीव को क्षत्रिय वंश के काश्यप गौत्रीय त्रिशलादेवी के गर्भ में प्रस्थापित किया। माता त्रिशलादेवी ने 14 दिव्य महामंगलकारी स्वप्न देखे। प्रथम स्वप्न में हाथी देखा, जिसके 4 दाँत थे- धवल मेघ के समान; दिव्य कांति वाला मदमस्त हाथी ऐरावत देखा। दूसरे स्वप्न में वृषभ एवं तीसरे स्वप्न में सिंह केशरी देखा। चतुर्थ स्वप्न में पूर्णचंद्रमुखी समान लक्ष्मीदेवी को देखा।

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