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महावीर वस्तु और स्वरूप

- डॉ. जयकुमार जलज

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सर्वज्ञ होना दृष्टिसंपन्न होना है। महावीर दृष्टिसंपन्न हो गए। वे सब देख सकते थे। सब समझ सकते थे। आधुनिक युग में दृष्टिसंपन्नता की ऐसी ही एक झलक महात्मा गाँधी में मिलती है। वे साहित्य, चिकित्साशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, लिपीशास्त्र आदि में से शायद ही किसी को जानते थे। पर उन्होंने इन सभी में मौलिक और सार्थक हस्तक्षेप किया। गुजराती भाषी थे। लेकिन राष्ट्रभाषा के लिए हिंदी का पक्ष लिया। महावीर भी तो प्रतिष्ठित भाषा संस्कृत के विपरीत प्राकृत के पक्षधर थे। स्वार्थ न हो तो सब लोग एक ही सही निर्णय पर पहुँचते हैं।

सर्वज्ञ महावीर की वस्तु स्वरूप की अवधारणा का उनके शिष्य आचार्यों ने सांगोपांग विवेचन की है।

उसका सार है :
अनंत वस्तुओं की सापेक्षता के कारण वस्तु के अनंत अंत, धर्म, पहलू हैं। वस्तु बहुमुखी, बहुआयामी है। अगर एक व्यक्ति पिता की अपेक्षा से पुत्र है तो पुत्र की अपेक्षा से वही भाई भी है। जिसे हम पिता कह रहे हैं वही अपनी बहन की दृष्टि में भाई है। क्या बहन द्वारा प्रयुक्त भाई संबोधन सही नहीं है?

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ND
विरोधी दृष्टिकोण को वस्तु में जो धर्म दिखाई देता है वह भी वस्तु में है। विवाद वस्तु में नहीं, देखने वालों की दृष्टि में है। हम भला आग्रहपूर्वक यह कैसे कह सकते हैं कि जो हमें दिखा दे रहा है वही सही है? दूसरों की दृष्टि का तिरस्कार और अपनी दृष्टि का अहंकार वस्तु स्वरूप की नासमझी से ही हमारे भीतर पैदा होता है।

इसलिए महावीर विरोधी विचारों तथा दृष्टियों के लिए सहिष्णुतापूर्ण हाशिया छोड़ने और अनेकांत दृष्टि की वकालत करते हैं। यह बहुलता और भिन्नता का स्वीकार है।

विनोबा इसे महावीर का अपि (भी) सिद्धांत कहते हैं। इस खोज को इतना आधारभूत माना गया कि परवर्ती कालों में महावीर के संपूर्ण चिंतन और दर्शन को अनेकांतवाद के नाम से ही जाना गया।

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