सुर सांभळीने संचरीया, मागध वरदामें चलीया।
पद्मद्रह गंगा आवे, निर्मल जल कलश भरावे ॥1॥
तीरथ जल औषधि लेता, वली क्षीर समुद्रे जाता।
जल कलशा बहुल भरावे, फुलचंगेरी थाळा लावे ॥2॥
सिंहासन चामर धारी, धूप धाणा रकेबी सारी।
सिद्धांते भाख्या जेह, उपकरण मिलावे तेह ॥3॥
ते देवा सुरगिरि आवे, प्रभु देखी आनंद पावे।
कलशादिक सहुं तिहां ठावे, भक्ते प्रभुना गुण गावे ॥4॥
ढाल-राग धन्याश्री
आतक्ति मल्या केई देवा, केता मित्तनु जाई,
नारी प्रेर्या वली निज कुलवट, धर्मी धर्म सखाई।
जोईस व्यंतर भुवनपतिना वैमानिक सुर आवे,
अच्युतपति हुकमे धरी कलशा, अरिहाने न्हवरावे ॥1॥
अडजाति कलशा प्रत्येके, आठ-आठ सहस प्रमाणो,
चउसठ सहस हुआ अभिषेके अढीसे गुणा करी जाणो।
साठ लाख ऊपर एक कोडी, कलशानो अधिकार,
बासठ इंद्र तणा तिंहा बासठ, लोकपालना चार ॥2॥
चंद्रनी पंक्ति छासठ-छासठ रविश्रेणी नरलोको,
गुरु-स्थानक सुरकेरो एकज, सामानिकनोएको।
सोहमपति ईशानपतिनी, इंद्राणीना सोल,
असुरनी दश इंद्राणी नागनी, बार करे कल्लोल ॥3॥
ज्योतिष व्यंतर इंद्रनी चउ चउ, पर्षदा त्रणनो एको,
कटकपति अंगरक्षक केरो, एक एक सुविवेको।
परचूरण सुरनो एक छेल्लो, ए अढीसें अभिषेको,
ईशान इंद्र कहे मुज आपो, प्रभुने क्षण अतिरेको ॥4॥
तव तस खोळे ठवी अरिहा, ने सोहमपति मनरंगे,
वृषभ रूप करी शृंग जले भरी, न्हवण करे प्रभु अंगे।
पुष्पादिक पूजीने छांटे, करी केशर रंगरोले,
मंगल दीवो आरती करतां, सुरवर जय जय बोले ॥5॥
भेरी भूंगल ताल बजावत, वळिया जिन करधारी,
जननी घर माताने सौंपी, एणि पेरे वचन उच्चारी।
पुत्र तुमारो स्वामी हमारो, अम सेवक आधार,
पंचधावी रंभादिक थापी, प्रभु खेलावणहार ॥6॥
बत्रीस कोडी कनक मणि माणिक, वस्त्रनी वृष्टिं करावे,
पूरण हर्ष करेवा कारण, द्वीप नंदीसर जावे।
करीय अठ्ठाई उत्सव देवा, निज निज कल्प सधावे,
दीक्षा केवलने अभिलाषे, नित नित जिन गुण गावे ॥7॥
तपगच्छ ईसर सिंहसूरीश्वर, केरा शिष्य वडेरा,
सत्यविजय पन्यासतणे पद, कपूर विजय गंभीरा।
खिमाविजय तस सुजसविजयना, श्री शुभवीर सवाया,
पंडित वीर विजय शिष्ये जिन-जन्ममहोत्सव गाया ॥8॥
उत्कृष्टा एक सोने सित्तेर, संप्रति विचरे वीश,
अतीत अनागत काले अनंता, तीर्थंकर जगदीश।
साधारण ए कलश जे गावे, श्री शुभवीर सवाई,
मंगल लीला सुख भर पावे, घर घर हर्ष बधाई ॥9॥
(यहाँ कलशाभिषेक करना। पीछे दूध, दही, घृत, जल और शकर इन पंचामृत से प्रक्षाल करना। फिर पूजन करके पुष्प चढ़ाना, बाद में लुण उतारकर आरती उतारना)।
मेरुशिखर नवरावे हो सूरपती, मेरु...
शांति-कलश
एक कुंडी में कंकु से साथिया करके रूपानाणुं रखना। शांति-कलश करने वाले कपाल में कंकु से चाँदला करके अक्षत लगाना, गले में पुष्पमाला पहनाना। प्रभुजी को अक्षत से वर्धापन करें। बाद में शांति-कलश करनार के दोनों हाथ में कंकुम का साथिया करके ऊपर कलश रखना। फिर उवसहगरम् स्तोत्र बोलकर- तीन नवकार गिनकर कलश से धारा का प्रारंभ। नमोऽर्हत् और एक नवकार गिनकर बृहत् शांति-पाठ बोलना।