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आचार्य महाप्रज्ञ के जीवन का रहस्य

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आज मैं उस सत्य को अनावृत करना चाहता हूँ, उद्घाटित करना चाहता हूँ, जिसके आधार पर व्यक्ति अपनी जीवनशैली का निर्माण करता है, वह स्वयं के लिए और दूसरों के लिए बहुत लाभदायी बन सकता है।

अनेकांत का दृष्टिकोण : भाग्य मानूँ या नियति? सबसे पहली बात- मुझे जैन शासन मिला। जिन शासन का अर्थ मानता हूँ- अनेकांत का दृष्टिकोण मिला। मैंने अनेकांत को जिया है। यदि अनेकांत का दृष्टिकोण नहीं होता तो शायद कहीं न कहीं दल-दल में फँस जाता।

मुझे प्रसंग याद है- दिगंबर समाज के प्रमुख विद्वान कैलाशचंद्र शास्त्री आए। उस समय पूज्य गुरुदेव कानपुर में प्रवास कर रहे थे। मेरा ग्रंथ 'जैन दर्शन : मनन और मीमांसा' प्रकाशित हो चुका था। पंडित कैलाशचंद्र शास्त्री ने कहा- मुनि नथमलजी ने श्वेतांबर-दिगंबर परंपरा के बारे में जो लिखना था, वह लिख दिया, पर वह हमें अखरा नहीं, चुभा नहीं। जिस समन्वय की शैली से लिखा है, वह हमें बहुत अच्छा लगा।

मुझे अनेकांत का दृष्टिकोण मिला, इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। जिस व्यक्ति को अनेकांत की दृष्टि मिल जाए,अनेकांत की आँख से दुनिया को देखना शुरू करे तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाता है।

अनुशासन का जीवन : दूसरी बात- मुझे तेरापंथ में दीक्षित होने का अवसर मिला। मैं मानता हूँ- वर्तमान में तेरापंथ में दीक्षित होना परम सौभाग्य है और इसलिए है कि आचार्य भिक्षु ने जो अनुशासन का सूत्र दिया, जो अनुशासन में रहने की कला और निष्ठा दी, वह देवदुर्लभ है। अन्यत्र देखने को मिलती नहीं है।

मैंने अनुशासन में रहना सीखा। जो अनुशासन में रहता है, वह और आगे बढ़ जाता है। आत्मानुशासन की दिशा में गतिशील बन जाता है। तेरापंथ ने विनम्रता और आत्मानुशासन का जो विकास किया, वह साधु-संस्था के लिए ही नहीं, पूरे समाज के लिए जरूरी है।

विनम्रता और आत्मानुशासन : महानता के दो स्रोत होते हैं- स्वेच्छाकृत विनम्रता और आत्मानुशासन। जो व्यक्ति महान होना चाहता है अथवा जो महान होने की योजना बनाता है, उसे इन दो बातों को जीना होगा। जो व्यक्ति इस दिशा में आगे बढ़ता है, विनम्र और आत्मानुशासी होता है, अपने आप महानता उसका वरण करती है।

मुझे तेरापंथ धर्मसंघ में मुनि बनने का गौरव मिला और उसके साथ मैंने विनम्रता का जीवन जीना शुरू किया। आत्मानुशासन का विकास करने का भी प्रयत्न किया। मुझे याद है- इस विनम्रता ने हर जगह मुझे आगे बढ़ाया। जो बड़े साधु थे, उनका सम्मान करना मैंने कभी एक क्षण के लिए भी विस्मृत नहीं किया। सबका सम्मान किया।

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आचार्य तुलसी के निकट रहता था। विश्वास था कि ये जो गुरुदेव से बात करेंगे, हमारा काम हो जाएगा। जो भी समस्या आती, मैं उसके समाधान का प्रयत्न करता। मैं छोटा था, बड़े-बड़े साधु मुझे कहते, पर मैंने हमेशा उनके प्रति विनम्रता और सम्मान का भाव बनाए रखा। कभी उनको यह अहसास नहीं होने दिया कि कहीं कोई बड़प्पन का लक्षण है।

मैंने आत्मानुशासन का विकास किया। शासन करना न पड़े, स्वयं अपना नियंत्रण अपने हाथ में ले ले, इसका अर्थ है कि वह व्यक्ति अपने भाग्य की चाबी अपने हाथ में ले लेता है।

गुरु का अनुग्रह : मैंने आचार्य भिक्षु को पढ़ा। उनकी जो सयंम निष्ठा थी, त्याग और व्रत की निष्ठा थी, उसे पढ़ने से जीवन को समझने का बहुत अवसर मिला। पूज्य गुरुदेव का अनुग्रह था। जब भी कोई प्रसंग आया, मुझे कहा- 'तुम यह पढ़ो।'

शायद आचार्य भिक्षु को पढ़ने का जितना मुझे अवसर दिया गया, मैं कह सकता हूँ- तेरापंथ के किसी भी पुराने या नए साधु को पढ़ने का उतना अवसर नहीं मिला। उनकी क्षमाशीलता, उनकी विनम्रता, उनकी सत्यनिष्ठा को समझने और वैसा जीने का भी प्रयत्न किया।

मुझे आचार्य तुलसी का तो सब कुछ मिला था। उनके पास रहा। जीवन जिया। उन्होंने जो कुछ करना था, किया। इतना किया कि पंडित दलसुख भाई मालवणिया जितनी बार आते, कहते। उन्होंने लिखा भी 'आचार्य तुलसी और युवाचार्य महाप्रज्ञ -गुरु और शिष्य का ऐसा संबंध पंद्रह सौ वर्षों में कहीं रहा है, हमें खोजना पड़ेगा।' आचार्य तुलसी से सब कुछ मिला, जीवन मिला।

नवीनता के प्रति आकर्षण : अध्ययन का क्षेत्र बढ़ा। सिद्धसेन दिवाकर की जो एक उक्ति थी उसने मुझे बहुत आकृष्ट किया। उनका जो वाक्य पढ़ा, सीखा या अपने हृदय पटल पर लिखा, वह यह है-'जो अतीत में हो चुका है, वह सब कुछ हो चुका, ऐसा नहीं है।' सिद्धसेन ने बहुत बड़ी बात लिख दी- 'मैं केवल अपने अतीत का गीत गाने के लिए नहीं जन्मा हूँ।

मैं शायद उस भाषा में न भी बोलूँ। पर मुझे यह प्रेरणा जरूर मिली-नया करने का हमेशा अवकाश है। हम सीमा न बाँधें कि सब कुछ हो चुका है। अनंत पर्याय है। आज भी नया करने का अवकाश है। कुछ नया करने की रुचि प्रगाढ़ होती गई। मुझे कुछ नया भी करना चाहिए। कोरे अतीत के गीत गाने से काम नहीं होगा। वर्तमान में भी कुछ करना है- मेरे गीत मत गाओ कोरे अतीत के गीत-केवल अतीत के गीत मत गाओ, कुछ वर्तमान को भी समझने का प्रयत्न करो।

आचार्य हरिभद्र, जिनभद्र, गणि क्षमाश्रमण, आचार्य हेमचंद्र, आचार्य मलयगिरि, आचार्य कुंदकुंद आदि-आदि ऐसे महान आचार्य हुए हैं, जिन्हें पढ़ने पर कोई न कोई नई बात ध्यान में आती गई। मैं उन सबका संकलन और अपने जीवन में प्रयोग करता रहा।

योग का संस्कार : दूसरी बात यह थी- जब मैं छोटा था तब गाँव में रहा। टमकोर छोटा-सा गाँव है। पाँच-सात हजार की आबादी वाला गाँव। हम कई बच्चे खेल रहे थे। गाँव में ज्यादा कोई काम तो होता नहीं। पढ़ाई करते नहीं थे। विद्यालय भी नहीं था। सारा दिन खेलकूद करते रहना, रोटी खाना और सो जाना। बस यही क्रम था।

मैंने लक्ष्य बनाया था- मुझे अच्छा साधु बनना है और मुझे जिन शासन की, भिक्षु शासन की और मानवता की सेवा में लगना है, काम करना है। आज भी वही लक्ष्य है। लक्ष्य में कोई अंतर नहीं आया। समस्याएँ आती-रहती हैं, बाधाएँ आती हैं, उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, पर एक लक्ष्य आपका निश्चित है तो आप पहुँच जाएँगे।

(अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद द्वारा प्रकाशित 'युवादृष्टि' के आचार्य महाप्रज्ञ वर्धापना विशेषांक जून-जुलाई 2003 से साभार)

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