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आत्मा का निर्मल स्वभाव है क्षमा

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हमें फॉलो करें आत्मा का निर्मल स्वभाव है क्षमा
- मुनि ऋषभचन्द विजय 'विद्यार्थी'

आज अष्टाह्निका प्रवचन का दूसरा दिन है। आज के दिन श्वेताम्बर जैन उपाश्रयों में धर्मशास्त्र का उपदेशक संदेश है- क्षमापना। जिन पांच कर्तव्यों का प्रतिपादन तीर्थंकर परमात्मा ने श्रावक जीवन की शुद्धि के लिए किया है उसमें क्षमापना तीसरा कर्तव्य है। पर्युषण महापर्व का हृदय है यह कर्तव्य। महत्वपूर्ण भावात्मक कर्तव्य इस प्रकार हैं-

अपने ज्ञात-अज्ञात अपराधों की क्षमा माँग लेना।
दूसरों के अपराधों को माफ कर देना व भूल जाना
संवत्सरी के पूर्व ही बैर-विरोधों का, क्षमा के आदान-प्रदान से अंत कर देना।

अपनी आत्मा को शांत-उपशांत करना।

आत्मा की शांति ही सच्चा सुख है। बैर-विरोधों को हृदय में बनाए रखने से आत्मा अशांत रहेगी। अशांत आत्मा ही दुःख तथा क्लेश है। जैन धर्म कर्म सिद्धांत मानता है। प्रत्येक जीवात्मा अपने कर्म से सुख-दुःख, यश-अपयश को प्राप्त करती है। अतः किसी भी व्यक्ति को अहितकर्ता मानकर अपनी आत्मा को बैर-भाव से न बांधें। पुण्य-पाप कर्मों से जीवात्मा को सफलता-असफलता मिलती है, अतः किसी पर भी आरोप नहीं लगाएं कि इसने हमारा अहित किया।

क्षमा सद्गुण है। आत्मा का निर्मल स्वभाव है। क्षमा वीरों का भूषण है। युद्ध में हजारों सैनिकों को जीतने वाला शूरवीर होगा, परंतु अपनी स्वयं की भूलों को स्वीकार कर क्षमा माँगने का वह साहस नहीं करेगा। अहंकार के विसर्जन के बिना हम क्षमा धारण नहीं कर सकते हैं। आत्मा का स्वभाव क्षमा है। अज्ञानी आत्माएं संसार में अपना प्रभाव बताने के लिए क्रोध व अहंकार का सहारा लेती हैं। अज्ञानी प्रमादी जीव ऐसा मानकर क्रोध का आचरण कर इस लोक में अपयश के भागी होकर, परलोक में अधोगति दायक पाप कर्म धते हैं। क्षमा ही आत्मा को शांति देने वाली स्वभाव दशा है।

भगवान महावीर के धर्मशासन में क्षमापना के अनेक ज्वलंत उदाहरण हैं, जैसे उदयन राजा की चंद्रप्रद्योत राजा के प्रति क्षमापना। इसी प्रकार आर्या महासती चंदबाला ने मृगावतीजी से क्षमापना करते हुए केवल्यता की प्राप्ति की। क्षमा यति धर्म का लक्षण है। यति, साधक एवं साधु क्षमा धर्म को धारण कर आत्मा को द्वेषमुक्त रखता है। क्षमाभाव का विकास करते समय महासती सुभद्रा, सीता, अंजना और अनुपमा जैसी महान नारियों को स्मरण में रखें।

आपकी छोटी सी क्षमा भावना आपको आत्मिक सुख देने वाली होगी। संवत्सरी प्रतिक्रमण कर हाथ जोड़कर 'मिच्छामि दुक्कडम्‌' देना मात्र ही हमारा कर्तव्य नहीं है अपितु जीवन में अथवा पूरे वर्ष में जिस-जिस के साथ बैर-विरोध हुए हों, जिस-जिस को हमारे कारण कोई तकलीफ पहुंची हो, उन सभी से हम क्षमायाचना कर मैत्री स्थापना करें। व्यर्थ, अर्थहीन क्षमापना न करें। बार-बार अपराध कर बार-बार क्षमा मांगना कोई मूल्य नहीं रखता। गलतियों की पुनरावृत्ति न करें। भगवान महावीर ने चंडकौशिक-संगमदेव, ग्वालों आदि को क्षमा दी। भगवान पार्श्वनाथ ने कमठ के साथ दश-दश जन्मों तक अपराध के बदले क्षमाभाव का व्यवहार किया। ये महापुरुष आज जगत पूज्य हैं।

पर्युषण के दिनों में पंचाश्रव परित्याग की बात कही गई है। ये हैं-
प्राणातिपात मृषाबाद अदत्तादान मैथुन परिग्रह

झूठ नहीं बोलें। छोटी-बड़ी कोई चोरी नहीं करें। ब्रह्मचर्य का पालन पर्व के आठों दिन करें। अपनी लोभ प्रवृत्ति पर अंकुश रखकर अपरिग्रह व्रत को धारण करें। इसके अनेक बोधजन्य उदाहरणों का अष्टाह्निका प्रवचन के दूसरे दिन श्रवण कराया जाता है।

शिलाले
संग्रहालय में कुछ जैन शिलालेख भी हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। एक शिलालेख उदयगिरि (जिला विदिशा) गुहा से उपलब्ध हुआ है, जो गुप्त संवत्‌ 106 (सन्‌ 425 ई.) का है। इसमें उल्लेख है कि कुरुदेश के शंकर स्वर्णकार ने कर्मारगण (स्वर्णकार संघ) के हित के लिए गुहा मंदिर में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा का निर्माण कराया।

एक यज्वपाल वंश के असल्लदेव (नरवर) का शिलालेख है, जो विक्रम संवत्‌ 1319 (सन्‌ 1262) का है। इसमें गोपगिरि दुर्ग के माथुर कायस्थ परिवार की वंशावली दी गई है। सर्वप्रथम भुवनपाल का नाम है, जो धार-नरेश भोज का मंत्री था। उसने जैन तीर्थंकर के मंदिर का निर्माण कराया, नागदेव ने उसमें तीर्थंकर प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई और यह शिलालेख वास्तव्य कायस्थ (श्रीवास्तव) ने लिखा। उपरोक्त स्थापत्य एवं शिल्पकला की भव्यता के कारण गोपाचल कलाक्षेत्र की श्रेणी में अपना एक स्थान रखता है।

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