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राजश्री कासलीवाल
'दिगंबर जैन समाज के पयुर्षण पर्व' समाप्ति की ओर हैं और क्षमावाणी आने ही वाली है। जिस प्रकार सूर्य के ताप से धरती की सारी विकृतियाँ दूर होती हैं उसी प्रकार दस लक्षण पर्व के इन दस दिनों में किए जाने वाले आध्यात्मिक तप से कर्म की कालिमा और भव-भव के रोग दूर होते हैं। मनुष्य भले ही कितने ही अच्छे कर्म कर ले, लेकिन उसके मन में धर्म के प्रति श्रद्धा होना लाजमी है। क्योंकि बिना धर्म प्रभावना व तप के बुराई और नर्कों की पीड़ा से मनुष्य चाहकर भी पीछा नहीं छुड़ा सकता।
आज हर इंसान अहंकार के वशीभूत होकर जी रहा है। उसकी आँखों पर बँधी यह अहं की पट्टी इंसान के देखने-समझने की शक्ति खो देती है। मनुष्य चाहकर भी अहं के लोभ से मुक्ति नहीं पा पाता। दस दिनों में किया गया धर्म आपके जीवन की छवि को बदल देता है। कई बार ऐसा भी हो जाता है कि झूठ बोले बिना काम नहीं चल सकता तो वहाँ झूठ भी बोलना पड़ता है लेकिन अगर मनुष्य अपनी गलतियों को स्वीकारने की हिम्मत रखता है तो शायद उसके पापों की संख्या में कुछ कमी हो सकती है। और यह वही समय है जब आप अपने अहं को छोड़कर अपने से छोटा हो या बड़ा, उससे बिना झिझक क्षमा माँगें और क्षमा करने का भाव भी मन में रखें।
पयुर्षण पर्व के दौरान की गई आत्मशुद्धि वह तप है जो इन्द्र के वज्र की तरह अचूक काम करता है। सच्ची श्रद्धा, ज्ञान और अच्छे चरित्र का निर्माण कर हम अपने जीवन को सुधार सकते हैं। हमारी यही सच्ची श्रद्धा उस स्वर्ण के समान है, जहाँ हमारा स्व अग्नि में तपकर पूरे विश्वास के साथ अपनी अलौकिक आभा में निखरकर आता है। जैसे माटी को तपाकर गागर बनाई जाती है उसी प्रकार जो मनुष्य गुरुओं से शिष्यता ग्रहण कर तपस्या करते हैं, वे निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
मनुष्य को चाहिए कि वह कभी भी अपने पद-प्रतिष्ठा का अहंकार न करे। उसे हमेशा धर्म की उँगली पकड़कर चलते रहना चाहिए ताकि भगवान हमेशा उसका साथ दे सकें। सांसारिक मनुष्य को जरा-जरा सी बातों में मान-सम्मान आड़े आता है। अपने अहंकार को जीतने के लिए तप का सहारा लेना बहुत जरूरी है। तप के तीन काम हैं- अपने द्वारा किए गए गलत कर्मों को जलाना, अपनी आत्मा को निखारना और केवल ज्ञान देना। अपने जीवन में ऊर्जा को मन के भीतर की ओर प्रवाहित करने का नाम ही तप है। अगर हम घर-परिवार से संपन्न हैं तो हम समाजसेवा करके भी बहुत पुण्य कमा सकते हैं।
वास्तव में अहंकार न करने वाले ही क्षमा धारण कर पाते हैं। हमारा हृदय सरलता से धर्म की ओर प्रेरित रहा तो उसे सुदृढ़ता हासिल होती है। मनुष्य के अंदर पाया जाने वाला सहनशीलता का गुण ही सर्वगुणों का सार है। अतएव हमें सहनशीलता का गुण अपनाकर सभी के प्रति क्षमा भाव रखना चाहिए। सारे राग-द्वेषों के वचनों को छोड़कर घाव सहन करने की शक्ति ही सच्चे मायने में क्षमा है। हम अपने मन में हमेशा यह विचार बनाकर चलें कि ''मेरा इस दुनिया में कोई बैरी नहीं है, मेरा किसी से बैर भाव नहीं हैं। अगर कोई मेरे प्रति बैर भाव रखता हो तो भी मैं उसे क्षमा करता हूँ और वह मुझे क्षमा करे। तभी आप सही मायने में क्षमापर्व का महत्व समझ पाएँगे।''