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भगवान महावीर का अनेकांतवाद

स्याद्वाद : सुनिश्चितता और सत्य का प्रतीक

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स्यात्‌ शब्द शायद के अर्थ में नहीं है। स्यात्‌ का अर्थ शायद हो तब तो वस्तु के स्वरूप - कथन में सुनिश्चितता नहीं रही। शायद ऐसा है, शायद वैसा है - यह तो बगलें झाँकना हुआ। संस्कृत का स्यात्‌ शब्द ध्वनि विकास की प्रक्रिया से गुजरता हुआ पालि, प्राकृत भाषाओं में सिया बन गया है और इन भाषाओं में वह वस्तु के सुनिश्चित भेदों तथा पहलुओं के संदर्भ में प्रयुक्त मिलता है।

वह वस्तु की गैर-एकांतिकता को संकेतित करता है। किसी वस्तु के धर्मकथन के समय स्यात्‌ शब्द का प्रयोग यह सूचित करता है कि यह धर्म निश्चय ही ऐसा है लेकिन अन्य सापेक्षताओं में संबंधित वस्तु के सुनिश्चित रूप से अन्य धर्म भी हैं। उन धर्मों को यहाँ कहा नहीं जा रहा है क्योंकि शब्द सभी धर्मों को युगपत्‌ संकेतित नहीं कर सकते।

स्यात्‌ शब्द केवल इस बात का सूचक है कि कहने के बाद भी बहुत कुछ अनकहा रह गया है। वस्तु के और भी धर्म हैं और भी पहलू हैं पर फिलवक्त हमारी दृष्टि के एक खास कोण के कारण वे हमें दिखाई नहीं दे रहे हैं और जब दिखाई नहीं दे रहे हैं तो उन्हें अभिव्यक्त कैसे किया जा सकता है? लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि वे मौजूद नहीं हैं।

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इस प्रकार स्याद्वाद संभावना, अनिश्चय, भ्रम आदि का द्योतक नहीं सुनिश्चितता और सत्य का प्रतीक है। महावीर की स्याद्वाद, अहिंसा, अपरिग्रह आदि की तमाम अवधारणाएँ अनेकांत की नींव पर ही खड़ी हैं। विचार में जो अनेकांत है वही वाणी में स्याद्वाद है, आचार में अहिंसा है और समाज व्यवस्था में अपरिग्रह है।

महावीर अनेकांत के द्वारा ही व्यक्ति और समाज के लिए एक निराकुल, समतावादी, शांत और निष्कपट जीवन तलाशना चाहते हैं। उनकी यह चिंता और पीड़ा सिर्फ मनुष्य के लिए ही नहीं सभी जीवों और अजीवों के लिए भी है।

एक ऐसे युग में जिसमें मनुष्य-मनुष्य के बीच भी समानता की बात सोचना संभव नहीं था। महावीर ने सभी पदार्थों को समान रूप से विराट और स्वतंत्र घोषित किया। उन्होंने अपनी घोषणा को कार्यरूप में परिणत करते हुए अपने चतुर्विध संघ में सभी वर्गों के स्त्री-पुरुषों को समान भाव से अंगीकार किया।

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