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महावीर ने सिखाई जीने की कला

सत्य और मैत्री का किया विस्तार

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जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने न केवल चिंतन दिया, चर्चा दी अपितु जीवन को व्यवस्थित, अनुशासित और मर्यादित तरीके से जीने की कला सिखाई। उक्त बातें जैन मुनि शासन प्रभावक पीयूष सागर, महाराज ने महावीर जयंती कार्यक्रम के दौरान आयोजित विशेष प्रवचन सभा में कही।

उन्होंने कहा कि विचारों की भूमिका ज्यादा देर नहीं चलती, बल्कि आचरण का अस्तित्व लंबे समय तक होता है, जिस प्रकार पानी में खींची गई रेखा का अस्तित्व नहीं होता उसी तरह मात्र चिंतन से व्यक्तित्व का विकास नहीं होता। आचरण की रेखा पत्थर पर खींची गई रेखा की तरह होती है, जिसका असर लंबे समय तक कायम रहता है। आचरण प्राणी मात्र के लिए आलंबन का कार्य करती है।

मुनिश्री ने आगे कहा कि भगवान महावीर के जीवन को देखें तो उनके दीक्षा पश्चात साढ़े बारह वर्ष का समय साधनाकाल में ही कैसे बीता, यदि हम सचमुच में इसे जान और समझ लेंगे तो हमारे जीवन की मूल दशा में सकारात्मक बदलाव आ जाएगा। वर्धमान से महावीर बनने के लिए उन्होंने किस तरह का आचरण किया, किस राह पर चले इसे समझकर यदि हम उनका अनुकरण करें तो उनकी गहराई को पहचान सकेंगे।

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भगवान महावीर ने दो प्रमुख कार्य किए सत्य की खोज और मैत्री का विस्तार। उन्होंने किसी वस्तु की खोज करने में अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं किया। केवल सत्य की खोज अपने अंर्तमन से किया, बाह्य रुप में नहीं। इसी तरह संसार के सभी जीवों से मित्रवत्‌ व्यवहार रखने की प्रेरणा दी।

विश्व के तीन लोकों का चिंतन और विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि मध्य लोक में मानव जाति के लिए 45 लाख योजन भूमि में से सिर्फ कुछ भूमि ही ऐसी है, जहाँ महापुरुषों का जन्म होता है। इस आर्य भूमि में दो प्रकृति के महापुरुष जन्म लेते हैं, एक जिन्होंने चिंतन दिया और दूसरे जिन्होंने चर्चा दी, आचरण दिया और जीवन को सही तरीके से जीने की कला सिखाई।

ज्ञात हो कि सत्य और अहिंसा के प्रणेता, जैन तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की जयंती समस्त जैन समुदाय हर्षोल्लासपूर्वक मनाते हैं।

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