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श्रीमुख से निकली अमृततुल्य गीतावाणी

कृष्ण का मूल मंत्र : सत्य के बदले सत्य

हमें फॉलो करें श्रीमुख से निकली अमृततुल्य गीतावाणी
- लोकेन्द्रसिंह को
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'कृष' धातु का मूल अर्थ होता है आकर्षित करना और कृष्ण शब्द इसी धातु से बना है। अतः नाम के अनुरूप ही कृष्ण सदैव अपनी ओर खींचने वाली चुम्बकीय शक्ति रहे हैं। साकेत में जन्मे श्रीराम और बृजभूमि में जन्मे श्रीकृष्ण के अवतरणों ने भारतीय संस्कृति को सर्वाधिक उपकृत किया है। दोनों में समय, संस्कार, विचार आदि का अंतर अवश्य है परंतु दोनों ने ही जनमानस के अंदर और बाहर के स्वरूप को प्रभावित, संवर्धित व पोषित किया है।

इसका एक छोटा-सा उदाहरण मिलता है कि पाँव में एक छोटा-सा काँटा लगने पर मुँह से हमेशा 'हरे राम' या 'हरे कृष्ण' ही निकलता है। कृष्ण का मूल मंत्र था, सत्य के बदले सत्य और असत्य के बदले असत्य। कृष्ण की दृष्टि में एक झूठ को हटाने के लिए एक अन्य झूठ का सहारा लिया जा सकता था। इसी अंतर के कारण कहा जाता है कि राम में मनुष्य से देवता बनने का प्रयास अधिक है और कृष्ण में देवता से मनुष्य बनने की कोशिश अधिक दिखाई देती है।

जन्म से ही संघर्ष लेकर जन्मे कृष्ण जिन्हें अनगिनत नामों और रूपों में पहचाना जाता है, का संपूर्ण जीवन एक जीवन न होकर जीवन पद्धति था। जहाँ एक ओर श्रीकृष्ण का बाल्यकाल वात्सल्य भाव से परिपूर्ण रहा, तो यौवन में गोकुल की नायिकाओं के निश्छल नयनों में श्याम की जादुई वंशी के सम्मोहन स्वर घुलते हुए दिखाई देते हैं।

सामान्य रूप से देखें तो उनका वध हुआ था परंतु वास्तव में उनका तो उद्धार ही हुआ था। यह सिर्फ कृष्ण की ही विशेषता हो सकती थी कि एक ओर संवेदना, कोमलता और दूसरी ओर कूटनीति, राजनीति और छल-बल। यही नहीं कृष्ण के दार्शनिक अंदाज कौन भूल सकता है, कौन भूल सकता है गीता को। भगवान कृष्ण के संबंध में स्वामी विवेकानंद ने अपने उद्गार इस प्रकार प्रकट किए हैं-श्रीकृष्ण विभिन्न रूपों में पूजे जाते हैं, वे एक विलक्षण संन्यासी होने के साथ-साथ एक अत्यंत ही विलक्षण गृहस्थ भी थे। उनमें रजोगुण अत्यंत अद्भुत मात्रा में विद्यमान था और इसके साथ ही वे एक महान जीवन व्यतीत कर रहे थे।

ज्योतिषीय काल गणना एवं अनेक विद्वानों के अनुसार भगवान कृष्ण का जन्म आज से 5100 वर्ष पहले हुआ था। श्रीमद् भागवत ग्रंथ के आधार पर कृष्ण का अवतार पूर्णावतार माना गया है। कृष्ण के विषय में यह भी प्रचलित है कि कृष्ण की सभी क्रियाएँ उनकी शक्ति के चमत्कारों से ओतप्रोत रहती थी। श्रीकृष्ण की गरिमा यह है कि भारत की पवित्र भूमि पर जन्म लेकर वे सनातन धर्म के सर्वोत्कृष्ट उपदेशक और वेदांत के अप्रतिम भाष्यकार रहे हैं। गीता में उनके समन्वय की आवाज साफ सुनाई देती है। कर्मयोग के श्रेष्ठ उद्गाता के रूप में कृष्ण ने ही जीवन में कर्म के महत्व को प्रतिपादित किया था।

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विशेषकर इन सब बातों का वर्तमान परिदृश्य में बहुत महत्व है जबकि कर्म के पहले ही फल की कामना की जाती है और 'मुफ्त' का खाने की आदत सी लगी हो। महाभारत की परिधि में श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार अपनी रणनीति से पांडवों को विजय दिलवाई थी उसी प्रकार उनके श्रीमुख से निकली अमृत तुल्य गीता वाणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय थी।

आधुनिक समाज में जहाँ धर्म का उपयोग निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए किया जाता है, अहिंसा, असत्य, चोरी, काम, क्रोध, लोभ आदि की पृष्ठभूमि में धर्म-कर्म को घसीटते हजारों मिल जाते हैं, ऐसे में कृष्ण की ही गीता हमारी श्रेष्ठ मार्गदर्शक बन सकती है। श्रीमद् भागवत में कृष्ण ने साधारण धर्म का समीचीन सारांश इस प्रकार प्रस्तुत किया है-

अहिंसा सत्यमस्तेय कामः क्रोधः लोभस्तथा।
भूत प्रिय हितेहाश्चः धर्मों सांयसार्ववर्णिकः॥

अर्थात्‌ सभी वर्णों के लिए साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीर से किसी की हिंसा न करें। सत्य पर दृढ़ रहें, चोरी न करें तथा जिन कार्यों में समस्त प्राणियों का भला हो वही करें। गीता के दसवें अध्याय के सातवें श्लोक में स्पष्ट कहा हैं-मेरे अक्षुण्य कही जाने वाली इस विभूति योग का जो ठीक साक्षात्कार कर लेता है उसे सुदृढ़ योग की प्राप्ति हो जाती है, इसमें जरा भी संशय नहीं है।

इसी श्लोक का एक विद्वान ने बहुत ही स्पष्ट चित्रण किया है-यहाँ भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि हे अर्जुन, ये भाव मानों मेरी मूर्तियों में ही है और उन्होंने सारा विश्व व्याप्त कर रखा है इसलिए ब्रह्मा से लेकर कीड़े-मकोड़े तक इस सृष्टि में मेरे सिवा कोई वस्तु नहीं है, जिसे इस बात का पता लग जाता है, उसमें ज्ञान की जागृति हो जाती है तब वह अच्छे-बुरे आदत के भेदभाव की कल्पनाओं से परे हो जाता है।

वर्तमान परिदृश्य वस्तुतः भारतीय संस्कृति का क्षरण काल है, जहाँ कर्मनिष्ठा के साथ-साथ मानवीय मूल्यों में बेतहाशा गिरावट आई है। धर्म को विद्रूप बनाकर, विश्वास की दीवारों को हिलाकर, भौतिकतावाद की बढ़ती आग के तले सभी को उपभोक्तावादी सोच में उलझाकर विषयनिष्ठा से जोड़ दिया है। ऐसे में आज फिर कृष्ण जैसे आदर्श कर्मयोगी के उपदेशों को अपनाने की जरूरत है।

कृष्ण जितने द्वापर में जरूरी थे, उतने ही आज के युग में आवश्यक हैं क्योंकि उस समय तो कंस, दुर्योधन, जयद्रथ और शकुनियों की संख्या कम ही थी परंतु आज इनकी संख्या बहुत बढ़ चुकी है और तो और कई मठाधीश कृष्ण बनकर अपनी लीलाएँ रचकर जनमानस को भ्रमित कर रहे हैं। बकौल शायर, 'हाथ में पकड़े बाँसुरी, मुँह पर छिड़के नीला रंग/सब ही किशन बनें तो राधा नाचे किसके संग।'

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