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श्रीकृष्ण हैं भारतीय संस्कृति के महानायक...

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ललि‍त गर्ग

* जन्माष्टमी : 25 अगस्त 2016 पर विशेष 
 

 
सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा का एक नाम है श्रीकृष्ण। वे हमारी संस्कृति के एक अद्भुत नायक हैं। उन्होंने मनुष्य जाति को नया जीवन-दर्शन दिया। जीने की शैली सिखलाई। 
 
उनकी जीवन-कथा चमत्कारों से भरी है, लेकिन वे हमें जितने करीब लगते हैं, उतना और कोई नहीं। वे ईश्वर हैं पर उससे भी पहले सफल, गुणवान और दिव्य मनुष्य हैं। ईश्वर होते हुए भी सबसे ज्यादा मानवीय लगते हैं इसीलिए श्रीकृष्ण को मानवीय भावनाओं, इच्छाओं और कलाओं का प्रतीक माना गया है। 
 
वे अर्जुन को संसार का रहस्य समझाते हैं, वे कंस का वध करते हैं, लेकिन उनकी छवि एक सखा की है जिसे यमुना किनारे ग्वाले के साथ शरारत या गोपियों के साथ रास रचाते देखा जाता है। श्रीकृष्ण सच्चे अर्थों में लोकनायक हैं, जो अपनी दैवीय शक्तियों से द्वापर के आसमान पर छा ही नहीं जाते, बल्कि एक राहतभरे अहसास की तरह पौराणिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में बने रहते हैं। 
 
श्रीकृष्ण ने अपने व्यक्तित्व की विविध विशेषताओं से भारतीय-संस्कृति में महानायक का पद प्राप्त किया। एक ओर वे राजनीति के ज्ञाता, तो दूसरी ओर दर्शन के प्रकांड पंडित थे। धार्मिक जगत में भी नेतृत्व करते हुए ज्ञान-कर्म-भक्ति का समन्वयवादी धर्म उन्होंने प्रवर्तित किया। अपनी योग्यताओं के आधार पर वे युग-पुरुष थे, जो आगे चलकर युवावतार के रूप में स्वीकृत हुए। उन्हें हम एक महान क्रांतिकारी नायक के रूप में स्मरण करते हैं।
 
दरअसल, श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे दार्शनिक, चिंतक, गीता के माध्यम से कर्म और सांख्य योग के संदेशवाहक और महाभारत युद्ध के नीति-निर्देशक थे किंतु सरल-निश्छल ब्रजवासियों के लिए तो वे रास-रचैया, माखनचोर, गोपियों की मटकी फोड़ने वाले नटखट कन्हैया और गोपियों के चितचोर थे। 
 
गीता में इसी की भावाभिव्यक्ति है- 'हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस भावना से भजता है, मैं भी उसको उसी प्रकार से भजता हूं।'
 
श्रीकृष्ण का चरित्र एक लोकनायक का चरित्र है। वे द्वारिकाधीश भी हैं किंतु कभी उन्हें राजा श्रीकृष्ण के रूप में संबोधित नहीं किया जाता। वे तो ब्रजनंदन हैं। समाज व्यवस्था उनके लिए कर्तव्य थी इसलिए कर्तव्य से कभी पलायन नहीं किया तो धर्म उनकी आत्मनिष्ठा बना इसलिए उसे कभी नकारा नहीं। वे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की संयोजना में सचेतन बने रहे।
 
श्रीकृष्ण के योगेश्वर, गोपीश्वर, नारायण, गोपाल, रणछोड़, छलिया, रसिया, गोपाल, गिरिधारी, वंशीधर, मुकुंद और मुरारी ढेरों नाम हैं। ये इस बात के प्रतीक हैं कि श्रीकृष्ण किस तरह समाज के कण-कण में रचे-बसे हैं। उनकी पूजा, आराधना, अभ्यर्थना से जुड़े कथानकों की कमी नहीं, वहीं उन्हें उलाहना और धिक्कारने की घटनाएं भी कम नहीं हैं। 
 
यह सब इसलिए मुमकिन हो सका, क्योंकि ईश्वर की पदवी पर बैठे होने के बाद भी श्रीकृष्ण तक सबकी पहुंच है। भारतीय संस्कृति और साहित्य में प्रतीकों की अहम भूमिका है। श्रीकृष्ण भी ठहरे, बंटे हुए समाज में बदलाव और समरसता के प्रतीक हैं।
 
यूं लगता है श्रीकृष्ण जीवन-दर्शन के पुरोधा बनकर आए थे। उनका अथ से इति तक का पूरा सफर पुरुषार्थ की प्रेरणा है। उन्होंने उस समाज में आंखें खोलीं, जब निरंकुश शक्ति के नशे में चूर सत्ता मानव से दानव बन बैठी थी। सत्ता को कोई चुनौती न दे सके इसलिए दुधमुंहे बच्चे मार दिए जाते थे। 
 
खुद श्रीकृष्ण के जन्म की कथा भी ऐसी ही है। वे जीवित रह सकें इसलिए जन्मते ही माता-पिता की आंखों से दूर कर दिए गए। उस समय के डर से जमे हुए समाज में बालक श्रीकृष्ण ने संवेदना, संघर्ष, प्रतिक्रिया और विरोध के प्राण फूंके। 

 
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महाभारत का युद्ध तो लगातार चलने वाली लड़ाई का चरम था जिसे श्रीकृष्ण ने जन्मते ही शुरू कर दिया था। हर युग का समाज हमारे सामने कुछ सवाल रखता है। श्रीकृष्ण ने उन्हीं सवालों के जवाब दिए और तारनहार बने। आज भी लगभग वही सवाल हमारे सामने मुंहबाएं खड़े हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि श्रीकृष्ण के चकाचौंध करने वाले वंदनीय पक्ष की जगह अनुकरणीय पक्ष की ओर ध्यान दिया जाए ताकि फिर उन्हीं जटिलता के चक्रव्यूह से समाज को निकाला जा सके। 
 
उनका संपूर्ण व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व धार्मिक इतिहास का एक अमिट आलेख बन चुका है। उनकी संतुलित एवं समरसता की भावना ने उन्हें अनपढ़ ग्वालों, समाज के निचले दर्जे पर रहने वाले लोगों, उपेक्षा के शिकार विकलांगों का प्रिय बनाया।
 
दरअसल, श्रीकृष्ण के लोकनायक चरित्र ने जाति, धर्म और संप्रदाय की संकीर्ण सीमाओं को लांघकर जन-जन को अनुप्राणित किया। श्रीकृष्ण के प्रेम में केवल भारतवासी ही नहीं डूबे, बल्कि संपूर्ण दुनिया में श्रीकृष्ण भक्तों की बेशुमार तादाद हैं। 
 
संभवत: 33 करोड़ देवी-देवताओं में मात्र श्रीकृष्ण ही ऐसे हैं जिन पर सर्वाधिक साहित्य रचा गया है, उनकी भक्ति में डूबकर काव्य रचने वाले कवियों की संख्या 10-20 नहीं, सैकड़ों-हजारों में है। संसार की अधिकांश भाषाओं में श्रीकृष्ण की लीलाओं का यशोगान हुआ है। विभिन्न देशों में सिर्फ प्रवासी भारतीयों द्वारा ही नहीं, बल्कि उन देशों के अपने निवासियों द्वारा भी श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व को बहुत पसंद किया जाता है। 
 
गौर वर्ण विदेशियों को भी सांवरे-सलौने श्रीकृष्ण के लावण्य, उनकी मधुर लीलाओं और एक कर्मयोगी के रूप में गीता द्वारा दिए गए संदेशों ने भक्ति रस में डुबो दिया। स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर जितना स्वस्थ खुलापन श्रीकृष्ण के यहां है वह ‘भूतो न भविष्यति’ के दर्जे का है। आज के समाज को इस पर चिंतन करते हुए स्त्री-पुरुष संबंधों में बढ़ रहीं दूरियों को कम करने के प्रयास करने चाहिए। 
 
महिलाओं के लिए श्रीकृष्ण के विचार आज के तथाकथित प्रगतिशाली विचारों से कहीं ज्यादा ईमानदार और असरदार थे। उन्होंने अपनी बहन सुभद्रा का विवाह उनकी इच्छा के मुताबिक अर्जुन से कराया। नरकासुर नाम के अत्याचारी राजा को मारकर उसकी 16 हजार बंधक स्त्रियों को समाज में वापस सम्मानजनक दर्जा दिलाने के लिए उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकारा। श्रीकृष्ण ने पर्यावरण संरक्षण का सशक्त वातावरण जो उस समय निर्मित किया था, वह आज भी अनुकरणीय है। श्रीकृष्ण के जीवन की शुरुआत एक ग्वाले के तौर पर हुई। 
 
उन्होंने लोक-संस्कृति के हर एक पक्ष को संजोने, संवारने की कोशिश की और इसके लिए दानवों और देवताओं की गैरजरूरी सत्ता को चुनौती भी दी। यमुना का जल कालिया नाम के विषैले नाग के जहर से विषैला हो गया था। जिसे पीने से न केवल पशु-पक्षी बल्कि जिंदा मानव का जीवन समाप्त होने लगा था। इसी वजह से लोगों ने यमुना के पास जाना तक बंद कर दिया। श्रीकृष्ण को जब यह पता चला तो वे यमुना में कूद पड़े और ‘एक सौ एक फनों वाले’ सांप को परास्त कर दिया। यमुना का जल फिर से जीवनदायी हो गया। इसी तरह श्रीकृष्ण ने एक बार जंगल में लगी आग को बुझाकर ग्वालों, गायों और जंगली जानवरों को बचाया।
 
इतना ही नहीं, इन्द्र की पूजा की जगह गोवर्धन पर्वत की पूजा के पीछे भी श्रीकृष्ण का पर्यावरण-प्रेम ही था। उन्होंने इसके लिए तर्क दिया कि हमें जो मिलता है, वह हमारे अपने कर्म या हमारे पर्यावरण से ही मिलता है तो इसके लिए इन्द्र की जगह पर्यावरण को धन्यवाद देना कहीं अधिक उचित होगा। नतीजा यह हुआ कि इन्द्र की जगह गोवर्धन पर्वत की पूजा हुई। इससे नाराज देवराज इन्द्र ने भयानक वर्षा की तो बाढ़ से बचने के लिए श्रीकृष्ण ने ग्वालों और जानवरों समेत गोवर्धन का आसरा लिया।
 
श्रीकृष्ण ग्रामीण-संस्कृति के पोषक बने हैं। उन्होंने अपने समय में गायों को अभूतपूर्व सम्मान दिया। वे गायों एवं ग्वालों के स्वास्थ्य, उनके खान-पान को लेकर सजग हैं। उन्होंने जहां ग्वालों की मेहनत से निकाले गए माखन और दूध-दही को स्वास्थ्यरक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया, वहीं इन अमूल्य चीजों को ‘कर’ के रूप में कंस को देने से रोका। वे चाहते थे कि इन चीजों का उपभोग गांवों में ही हो। श्रीकृष्ण का माखनचोर वाला रूप दरअसल निरंकुश सत्ता को सीधे चुनौती तो था ही, लेकिन साथ ही साथ ग्रामीण संस्कृति को प्रोत्साहन देना भी था।
 
श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव जन्माष्टमी पर आज भी जनमानस में उल्लास-उमंग देखी जा सकती है। मंदिरों में धार्मिक अनुष्ठानों के साथ-साथ घर-घर में व्रत आदि रखकर भक्ति का अभूतपूर्व प्रदर्शन किया जाता है। ‘झूला झुलाना’ इस दिन की एक विशेष धार्मिक क्रिया है, जो इस दिन करना पुण्यशाली माना जाता है। 
 
रात को 12 बजे पूजा-आरती के पश्चात पंजीरी का प्रसाद बांटा जाता है। इस दिन ‘दही-हांडी’ फोड़ना एक ऐसा खेल है, जो मुंबई से प्रारंभ होकर आज समूचे राष्ट्र में खेला जाता है।

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