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सुखमय दांपत्य की चाह का त्योहार

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-डॉ. आर.सी. ओझ
सदियों से कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चौथी तिथि को करवा चौथ के रूप में मनाया जाता है। इसे करक, करवा, करूआ या करूवा अनेक नामों से जाना जाता है। कई स्थानों पर इसे करवा गौर के नाम से भी पहचाना जाता है। करवा मिट्टी या धातु से बने हुए लौटे के आकर के एक पात्र को कहते हैं, जिसमें टोंटी लगी होती है।

करवा चौथ का व्रत स्त्रियाँ अपने सुखमय दाम्पत्य जीवन के लिए रखती हैं। शास्त्रों में दो विशिष्ट संदर्भों की वजह से करवा चौथ व्रत के पुरातन स्वरूप का प्रमाण मिलता है। इस व्रत के साथ शिव-पार्वती के उल्लेख की वजह से इसके अनादिकाल का पता चलता है।

ऐसी मान्यता है कि स्वयं भगवान शिव ने पार्वतीजी को करवा चौथ व्रत करने का सुझाव दिया था। दूसरा प्रमाण महाभारतयुगीन है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने कृष्णा को (द्रौपदी का एक नाम 'कृष्णा' भी था) करवा चौथ व्रत करवाया था।

एक कथा के अनुसार महाभारत के नायक अर्जुन जब बाहर गए थे तब अर्जुन के कुशल-मंगल के लिए द्रौपदी ने विधि-विधान से यह व्रत किया था। देवासुर संग्राम में इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने भी करवा चौथ व्रत किया था। श्रीकृष्ण ने द्रौपदी के समक्ष इंद्राणी का उदाहरण पेश किया था।

संपूर्ण भारत में, विशेष रूप से उत्तर-पूर्वी भारत में करवा चौथ का व्रत मनाया जाता है। निर्जला एकादशी व्रत की तरह यह व्रत भी निराहार व निर्जला होता है। ऐसा माना जाता है कि यह व्रत सिर्फ विवाहिता स्त्रियों के लिए है परंतु अविवाहित कन्याओं द्वारा भी इस व्रत को किए जाने के प्रमाण उपलब्ध हैं। फर्क सिर्फ इतना ही है कि सौभाग्यवती महिलाएँ चंद्रदर्शन के पश्चात व्रत तोड़ती हैं और कन्याएँ आसमान में पहले तारे के दर्शन के बाद व्रत समाप्त करती हैं। संभव है कि लोकोक्ति 'पहला तारा मैंने देखा, मेरी मर्जी पूरी' इस व्रत के कारण ही शुरू हुई हो।

करवा चौथ व्रत में शिव, पार्वती, कार्तिकेय और चंद्रमा की पूजा की जाती है। इस व्रत के लिए चंद्रोदय के समय चतुर्थी होना जरूरी माना गया है। इस व्रत में करवे का विशेष रूप से प्रयोग होता है। महिलाएँ दिनभर निर्जला उपवास रखती हैं और चंद्रोदय के बाद भोजन- जलग्रहण करती हैं। करवे में पकवान भरे जाते हैं या पताशे रखे जाते हैं और उन्हें दान में दिया जाता है
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कई स्थानों पर चावल से बने व्यंजन भी रखे जाते हैं। इसी दिन शाकप्रस्थपुर के वेदधर्मा ब्राह्मण की विवाहिता पुत्री वीरवती की कथा सुनाई जाती है, जिसने यह व्रत किया था और पुनः अपने पति को प्राप्त किया था। दीवारों पर या जमीन पर सूर्य, चंद्र और करवे के चित्र बनाए जाते हैं।

करवे को चावल व अलग-अलग रंगों से आकृतियाँ बनाकर सजाया जाता है। करवे की टोंटी में सरकंडे की सीकें लगाई जाती हैं। टोंटी वाले करवे के लोटे का चयन संकल्प व आचमन हेतु जल निकालने के लिए किया जाना, संभव है इस व्रत के पूर्व में ही विद्यमान रहा होगा।

करवा चौथ व्रत ने भित्ति चित्रों के विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया है। इसलिए इस व्रत के कलात्मक पक्ष को उजागर करना व्रत के महत्वपूर्ण पक्ष को जानने के समकक्ष है। करवा चौथ की पूजन की जो रूपरेखा दी गई है, वह उस युग में व्रत में अंतर्निहित आराधना दृष्टि कोसाकार करती है।

दीवार या आँगन में जहाँ से चंद्र उदय होने के बाद स्पष्ट रूप से दिखाई देता हो, उस स्थान पर यह रूपरेखा बनाई जाती है। इसमें सबसे ऊपर दो स्वस्तिक के निशान बनाए जाते हैं और उनके ऊपर दोनों ओर सूर्य या चंद्र की आकृतियाँ रहती हैं।

इसके नीचे फिर बाईं ओर स्वस्तिक का चित्र और दाईं ओर करवे के चित्र बनाए जाते हैं। फिर नीचे पशु-पक्षी गृहप्रवेश द्वार की आकृति रहती है और एक स्त्री या कन्या का चित्र रहता है। नीचे की ओर कई तरह के रेखाचित्र रहते हैं। पूरा रेखाचित्र करवे का एक तंत्र लगता है। कहीं-कहीं आँगन को गोबर से लीपकर यह चित्र बनाने की प्रथा है। इसी स्थान पर ताम्रपात्र में जल भरकर या जलकलश भी रखा जाता है।

करवा चौथ से शीत ऋतु का आगमन माना जाता है। चौथ की तिथि को जोड़कर इसके बारहवें दिन दीपावली का पर्व होता है। दशहरा और दीपावली के बीच यह महत्वपूर्ण पर्व है। ऐसी भी मान्यता है कि जाड़ा करवे की टोंटी से निकलता है। करवा चौथ की रात्रि ऐसी रात होती है, जब चंद्रोदय की प्रतीक्षा बहुत रहती है, परंतु चंद्रदेव अपेक्षा से ज्यादा देर से उदय होते हैं। प्रत्येक व्रती महिला चंद्रोदय का बेसब्री से इंतजार करती है।

इस व्रत में यह भी भावना रहती है कि बाल चंद्रमा के दर्शन से अगले जन्म में भी सुखमय दाम्पत्य जीवन की प्राप्ति होती है। चंद्रमा के उदय के बाद चंद्रमा का प्रतिबिंब एक जल की थाली में देखा जाता हैं। कई स्थानों पर छलनी के माध्यम से भी चंद्रदर्शन किए जाते हैं।

चंद्रमा की व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से पूजा-अर्चना की जाती है। व्रत की कथाएँ सुनाई जाती हैं, पति के चरण स्पर्श किए जाते हैं। करवे में रखे मिठाई या पताशे बाँटे जाते हैं। इसके बाद व्रत समाप्त माना जाता है और सभी व्रत करने वाली स्त्रियाँ अन्न-जल ग्रहण करती हैं।

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