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कविता : प्रकृति की करूण पुकार

डॉ. दिलीप काला

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दिया ईश्वर ने फिर वरदान,

करा मालव-निमाड़ को अमृतपान

सालों बाद मिला है इतना,

पाकर-पीकर धन्य हो गए

पेड़, जीव और इंसान

पेड़-पौधों ने कहा ईश्वर से

पहले हम भी थे प्रचुर,

ताज़ी हवा देते भरपूर

बारिश करवाते हम अच्छी ,

धरती पर होता सोना अंकुर

जब इठलाते सूर्य देवता,

गर्मी होती थी भरपूर

तब बहा ठंडी बयार हम,

भगा देते प्रचंड गर्मी भी दूर

अब मगर सब उल्टा है,

इंसान की ताक़त तो देखो

इसने सब कुछ ही पलटा है,

हमें खत्म कर दिया और

शुरू कर दिया विनाश,

फिर अभी किया वार इसने

उजाड़े पंद्रह सौ पलाश,

समझा दो हे! प्रभु इसको

वरना होगा अब सर्वनाश

या फिर दे दो ताक़त हमको,

जो देखे बुरी नज़र से

उसको ऐसा लगे पिशाच,

भागे फिर वह इधर-उधर

बनकर पागल ज़िंदा लाश।

तभी डरेगा इंसान हमसे,

नहीं करेगा हम पर वार

ऐसा होगा जब भी धरती पर,

खुशियां आएगी अपार

पौधे लगा उन्हें पेड़ बनाओ,

फिर होगा आंगन सबके

सुख-समृद्धि का अंबार,

सुख-समृद्धि का अंबार।

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पेड़ चुप हुए,

जीव-जंतु बोले

पहले हम भी थे बहुत,

संभाले जंगल को मजबूत

रहने को था आशियां,

वन-सम्पदा थी अकूत

वन उजाड़ घर हमारा छीना,

इंसान हो गया है कपूत

बिगाड़ दिया तेरी रचना को,

बन गया वह तो यमदूत

अब विनती है ईश्वर तुमसे,

फिर कर दो जंगल घनघोर

लौटा दो वो प्रकृति हमें,

जो थी चंचल,

थी चित-चोर

चीरहरण कर इंसान इसका,

कर रहा है बलात्कार

पहले था वह क्रूर लेकिन,

अब हो गया है खूंखार

पहले शिकार करता जंगल में,

पर अब मैं बिकता सरेबाज़ार

अब तो सुन ले ऐ मालिक!

कर दे ऐसा चमत्कार

हमें भी दो ताक़त इतनी,

बना दो हमें भी बलवान

चलाए आतताईयों पर हम भी,

बंदूक, तलवार, तीर, कृपाण

भागे इंसान फिर दूर हमसे,

नहीं करे वो अत्याचार

हमसे पाई धन-दौलत इसने,

और किया हम पर ही वार

कितना अहसान फरामोश है इंसान,

फिर भी बनाता मुझको आहार

बना दो इसको अहिंसक, दयालु,

सिखाओ सदाचार-मिटाओ मांसाहार

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अब बारी थी इंसान की

उसने भी प्रभु को प्रणाम किया और कहा

हे प्रभु! तेरा मुझ पर,

हर पल रहा है उपकार

दिया है अब तक, देगा आगे,

नहीं हो इसमें कोई विकार

कोटि-कोटि है नमन तुमको,

तुमने जो दिया पानी अपार

बिन पानी सब सूना था,

चाहे हो खेती या व्यापार

हाहाकार मचा था मालव-निमाड़ में ,

पानी जा पहुंचा पाताल

पग-पग रोटी, डग-डग नीर,

का बड़ा बुरा था हाल

समझ में आ गई लीला तेरी,

देख के पिछले सालों का अकाल

हर कोई लूटा मिटा-सा रहता,

हो गया था इंसान कंगाल

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सबकी सुनकर ईश्वर बोले -

ऐ सुन ले इंसान

काटना नहीं पेड़ एक भी,

जब तक लगा चलाए नहीं पौधे हजार

नहीं मारना जीव -जंतु कोई,

मत कर पारिस्थितिक तंत्र को बेकार

तूने बोए पेड़ बबूल के,

तो कहां से पाएगा आम

पाप बोएगा, पाप कटेगा,

कर तू एक या हजार

अभी देख रही ट्रेलर दुनिया,

कैसा लगा मेरा चिकनगुनिया

गर नहीं सुधरा अब तू तो,

ख़त्म हो जाएगी सारी दुनिया

मत बिगाड़ मेरी प्रकृति,

बहुत हो गई इससे छेडछाड़

वरना स्वाइन फ्लू से अनेक मंज़र,

कर देंगे धरती को इंसान से उजाड़....

(तीन वर्ष पूर्व निमाड़ में 1500 पलाश काटे जाने, चिकनगुनिया फैलने और स्वाइन फ्लू की आहट पर लिखी गई कविता)


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