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बाल कविता : घर का मतलब‌

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव

धरती सुबह-सुबह छप्पर से,
लगी जोर से लड़ने।
उसकी ऊंचाई से चिढ़कर,
उस पर लगी अकड़ने।

बोली बिना हमारे तेरा,
बनना नहीं सरल है।
मेरे ऊपर बनते घर हैं,
तू उसका प्रतिफल है।

अगर नहीं मैं होती भाई,
तू कैसे बन पाता।
दीवारें न होतीं, तुझको,
सिर पर कौन बिठाता।

छत बोला यह सच है बहना,
तुम पर घर बनते है।
किंतु बिना छप्पर छत के क्या,
उसको घर कहते हैं?

घर का मतलब, फर्श दीवारें,
छप्पर का होना है।
करो अकड़ना बंद तुम्हारा,
ज्ञान बहुत बौना है।

बिना सहारे एक-दूसरे,
के हम रहें अधूरे।
छत, धरती, दीवारों, दर से,
ही घर बनते पूरे।

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