गाया धीरे-धीरे।
था स्वभाव का वह संकोची,
बाहर कह ना पाया।
भनक न पड़ जाए लोगों को,
छुप-छुपकर था गाया।
यही गीत, पर जब मित्रों ने,
उछल-उछलकर गाया।
'निकले बहुत छुपे रुस्तम हों',
कहकर उसे चिढ़ाया।
बाथरूम पर गौर किया तो,
अजब बात यह पाई।
दीवारों में कान लगे थे,
दिए साफ दिखलाई।
बात अचानक दादाजी की,
याद उसे तब आई।
'कान दीवारों के भी होते,
बिलकुल सच है भाई।'