एक शहर मेरा था...
अपनों का बसेरा था...
गोपाल की दुकान थी...
एक पानी की टंकी थी..
एक बीटीआई स्कूल था...
एक पुस्तकालय था...
एक झंडा चौक था...
एक रामघाट था...
एक डोल ग्यारस थी...
एक श्याम टॉकीज थी...
उछह्व महराज की लोंगलता थी…
सब गलियां जानी थीं...
सब चेहरे पहचाने थे...
बूढ़ों का सम्मान था...
अपनों का भान था...
सुख-दु:ख में साथ होते थे...
साथ हंसते थे, साथ रोते थे...
आज भी शहर मेरा है...
अजनबियों का बसेरा है...
अनगिनत मकान हैं...
बहुत सारी दुकान हैं...
पुस्तकालय आज सूना है...
वो ही पानी की टंकी, बीटीआई स्कूल है...
वो ही, झंडा चौक, रामघाट, श्याम टॉकीज, डोल ग्यारस है...
लेकिन सब अजनबी-से चेहरे हैं...
दर्द के सपेरे हैं...
सब वही है लेकिन कुछ सरक-सा गया...
परिवर्तन तो सुनिश्चित है...
लेकिन उसकी आड़ में कुछ दरक-सा गया...।