एक बार महाकवि माघ राजा भोज के साथ वन विहार कर घर लौट रहे थे। राह में एक झोपड़ी के आगे एक वृद्ध औरत रास्ता साफ कर रही थी। अपनी विद्वता पर सदैव गर्व करने वाले महाकवि माघ ने उस ग्रामीण अनपढ़-सी औरत से गर्वभरे स्वर में पूछा- 'यह रास्ता किधर जाता है?'
उस औरत ने महाकवि को पहचान लिया। हँसते हुए उत्तर दिया- 'बेटा, यह रास्ता तो कहीं भी आता-जाता नहीं, अपनी जगह सदैव स्थिर ही रहता है। किंतु इस रास्ते पर लोग हरदम आते-जाते रहते हैं।' उसने पूछ लिया- 'आप लोग कौन हैं।'
महाकवि माघ उसके उत्तर में एक बार तो स्तब्ध रह गए फिर अपने और राजा भोज के बारे में पूरा परिचय न देकर सिर्फ यही कहा- 'हम दोनों तो केवल यात्री हैं।' औरत ने महाकवि माघ के प्रत्युत्तर पर कटाक्ष करते हुए कहा- 'वत्स, यात्री तो सूर्य और चन्द्रमा दोनों ही माने गए हैं। मुझे सच बतलाओ कि आप दोनों कौन हैं?'
अब तो महाकवि माघ वास्तव में सन्ना रह गए, किंतु अपनी विद्वता पर अभी भी उन्हें गर्व था। अतः उस औरत से कहा- 'हम दोनों तो क्षणभंगुर मनुष्य हैं।'
वृद्ध औरत ने तुरंत जवाब दिया- 'अरे भाई, इस संसार में यौवन और धन दो ही क्षणभंगुर बताए गए हैं, जिन पर मनुष्य को विश्वास नहीं करना चाहिए।'
महाकवि माघ का गर्व लगभग चूर-चूर हो गया और अब उस देहाती औरत की विद्वता पर आश्चर्यचकित भी थे, किंतु फिर भी हार नहीं मानी। अपने बारे में क्या बताएँ? तभी खयाल आया कि शायद यह उत्तर समुचित रहेगा और बोले- 'हमारा परिचय इतना ही बहुत है कि हम दोनों राजा हैं।'
महाकवि माघ के इस उत्तर का भी उस वृद्ध औरत ने सहज भाव से जवाब देते हुए स्पष्ट किया- 'वत्स, आप दोनों राजा कैसे हो सकते हैं? क्योंकि हमारे शास्त्रों ने तो यम और इन्द्र को ही राजा माना है।'
अब तो महाकवि माघ की सब विद्वता और सारा गर्व मिट गया। वे नम्र स्वर में बोले- 'नहीं-नहीं माताजी, हम तो सभी को क्षमा प्रदान करने वाली आत्मा हैं।' किंतु उस वृद्ध औरत ने पुनः महाकवि माघ के इस उत्तर का भी पुरजोर खंडन करते हुए स्पष्ट किया कि 'वत्स, वसुंधरा तथानारी की क्षमाशीलता के सम्मुख आपकी क्षमा नगण्य लगेगी, अतः मुझे बताओ कि आप कौन हैं?'
अंत में महाकवि माघ नतमस्तक होकर कहने लगे- 'माताजी, हम तो हार गए हैं। अब आप ही हमारा मार्गदर्शन करें।' वृद्ध औरत ने फिर भी महाकवि माघ से पूछ ही लिया- 'अरे भाई, आप इस संसार में किससे और कैसे हार गए, क्योंकि शास्त्रानुसार इस संसार में वे ही हार जाते हैं जो या तो किसी से कर्ज लेते हैं या फिर अपना नैतिक चरित्र बल खो देते हैं।'
अब महाकवि माघ के पास आगे कुछ भी कहने के लिए नहीं रहा। तब स्वयं औरत ने कहा- 'वत्स, मैं जानती हूँ आप महापंडित, प्रकांड विद्वान और महाकवि माघ हैं, किंतु विद्वान व्यक्ति को अपनी विद्वता पर कभी गर्व करना नहीं चाहिए, क्योंकि कोई भी मनुष्य पूर्ण ज्ञानी कदापि नहीं हो सकता तथा विद्वता की शोभा से नहीं, अपितु विनम्रता से ही होती है।'