एक बार ओशो रजनीश ने बहुत ही अच्छी कहानी सुनाई थी। यह किस किताब में पढ़ी थी यह तो बताना मुश्किल है परंतु कहानी बहुत ही प्रेरक है। इसे कई संदर्भों में जाना जा सकता है। कई लोग मानते हैं कि हम स्वतंत्र नहीं है, प्रकृति या ईश्वर के अधीन है या हम धर्म, समाज आदि के अधीन है। ऐसे लोगों के लिए यह समझने वाली बाता है कि क्या यह सच है?
एक व्यक्ति ने महात्मा से पूछा- क्या मनुष्य स्वतंत्र है? भाग्य, कर्म, नियति आदि क्या है? क्या ईश्वर ने हमें किसी बंधन में रखा है?
महात्मा ने उस व्यक्ति से कहा- खड़े हो जाओ। यह सुनकर उस व्यक्ति को बहुत अजीब लगा फिर भी वह खड़ा हो गया।
महात्मा ने कहा- अब अपना एक पैर ऊपर उठा लो। महात्मा का बड़ा यश था। उनकी बात न मानना उनका अनादर होता इसलिए उसने अपना एक पैर ऊपर उठा लिया। अब वह सिर्फ एक पैर के बल खड़ा था।
फिर महात्मा ने कहा- बहुत बढ़िया। अब एक छोटासा काम और करो। अपना दूसरा पैर भी ऊपर उठा लो।
व्यक्ति बोला- यह तो असंभव है। मैंने अपना दायां पैर ऊपर उठाया रखा है। अब मैं अपना बायां पैर नहीं उठा सकता। दोनों पैर एक साथ कैसे उठ सकते हैं?
महात्मा ने कहा- लेकिन तुम पूर्णतः स्वतन्त्र हो। तुमने दायां पैर ही क्यों उठाया? तुम पहली बार अपना बायां पैर भी उठा सकते थे। ऐसा कोई बंधन नहीं था कि तुम्हें दायां पैर ही उठाना था। मैंने तुम्हें ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया। तुमने ही निर्णय लिया और अपना दायां पैर उठाया। अब तुम स्वतंत्रता, भाग्य और ईश्वर की चिंता करना छोड़ो और मामूली चीजों पर अपना ध्यान लगाओ।
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमारा निर्णय ही हमारा भाग्य निर्मित करता है और हम निर्णय लेते हैं अपनी दिमाग में। ऐसे में अपने दिमाग को ही दुरुस्त करो भाग्य और कर्म की चिंता छोड़ो।