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शिक्षाप्रद बाल कहानी : झूठी शान न दिखाओ...

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उल्लू की झूठी शान ने ली परम मित्र की 'जान' 
    

 
एक जंगल में पहाड़ की चोटी पर एक किला बना था। किले के एक कोने के साथ बाहर की ओर एक ऊंचा विशाल देवदार का पेड़ था। किले में उस राज्य की सेना की एक टुकड़ी तैनात थी। देवदार के पेड़ पर एक उल्लू रहता था। वह भोजन की तलाश में नीचे घाटी में फैले ढलवां चरागाहों में आता। 
 
चरागाहों की लंबी घासों व झाड़‍ियों में कई छोटे-मोटे जीव व कीट-पतंगे मिलते, जिन्हें उल्लू भोजन बनाता। निकट ही एक बडी़ झील थी, जिसमें हंसों का निवास था। उल्लू पेड़ पर बैठा झील को निहारा करता। उसे हंसों का तैरना व उडना मंत्रमुग्ध करता। 
 
वह सोचा करता कि कितना शानदार पक्षी हैं हंस। एकदम दूध-सा सफेद, गुलगुला शरीर, सुराहीदार गर्दन, सुंदर मुख व तेजस्वी आंखें। उसकी बड़ी इच्छा होती किसी हंस से उसकी दोस्ती हो जाए।
 
एक दिन उल्लू पानी पीने के बहाने झील के किनारे उगी एक झाड़ी पर उतरा। निकट ही एक बहुत शालीन व सौम्य हंस पानी में तैर रहा था। हंस तैरता हुआ झाड़ी के निकट आया।
 
उल्लू ने बात करने का बहाना ढूंढा- हंस जी, आपकी आज्ञा हो तो पानी पी लूं। बडी़ प्यास लगी है।
 
हंस ने चौंककर उसे देखा और बोला- मित्र! पानी प्रकृति द्वारा सबको दिया गया वरदान हैं। इस पर किसी एक का अधिकार नहीं।
 
उल्लू ने पानी पीया। फिर सिर हिलाया जैसे उसे निराशा हुई हो। 
 
हंस ने पूछा- मित्र! असंतुष्ट नजर आते हो। क्या प्यास नहीं बुझी?
 
 
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उल्लू ने कहा- हे हंस! पानी की प्यास तो बुझ गई पर आपकी बातों से मुझे ऐसा लगा कि आप नीति व ज्ञान के सागर हैं। मुझमें उसकी प्यास जग गई हैं। वह कैसे बुझेगी?
 
हंस मुस्कुराया- मित्र, आप कभी भी यहां आ सकते हैं। हम बातें करेंगे। इस प्रकार मैं जो जानता हूं, वह आपका हो जाएगा और मैं भी आपसे कुछ सीखूं लूंगा।
 
इसके पश्चात हंस व उल्लू रोज मिलने लगे। एक दिन हंस ने उल्लू को बता दिया कि वह वास्तव में हंसों का राजा हंसराज हैं। अपना असली परिचय देने के बाद हंस अपने मित्र को अपने घर ले गया। शाही ठाठ थे। खाने के लिए कमल व नरगिस के फूलों के व्यंजन परोसे गए और न जानें क्या-क्या दुर्लभ खाद्य थे, उल्लू को पता ही नहीं लगा। बाद में सौंफ-इलाइची की जगह मोती पेश किए गए। उल्लू दंग रह गया।
 
अब हंसराज उल्लू को महल में ले जाकर खिलाने-पिलाने लगा। रोज दावत उड़ती। उसे डर लगने लगा कि किसी दिन साधारण उल्लू समझकर हंसराज दोस्ती न तोड़ ले।
 
इसलिए स्वयं को हंसराज की बराबरी का बनाए रखने के लिए उसने झूठमूठ कह दिया कि वह भी उल्लूओं का राजा उलकराज हैं। झूठ कहने के बाद उल्लू को लगा कि उसका भी फर्ज बनता हैं कि हंसराज को अपने घर बुलाए।
 
एक दिन उल्लू ने दुर्ग के भीतर होने वाली गतिविधियों को गौर से देखा और उसके दिमाग में एक युक्ति आई। उसने दुर्ग की बातों को खूब ध्यान से समझा। सैनिकों के कार्यक्रम नोट किए। फिर वह चला हंस के पास। जब वह झील पर पहुंचा, तब हंसराज कुछ हंसनियों के साथ जल में तैर रहा था। उल्लू को देखते ही हंस बोला- मित्र, आप इस समय?
 
उल्लू ने उत्तर दिया- हां मित्र! मैं आपको आज अपना घर दिखाने अपना मेहमान बनाने के लिए ले जाने आया हूं। मैं कई बार आपका मेहमान बना हूं। मुझे भी सेवा का मौका दें।
 
हंस ने टालना चाहा- मित्र, इतनी जल्दी क्या हैं? फिर कभी चलेंगे।
 
उल्लू ने कहा- आज तो मैं आपको लिए बिना नहीं जाऊंगा।
 
हंसराज को उल्लू के साथ जाना ही पड़ा।
 
पहाड़ की चोटी पर बने किले की ओर इशारा कर उल्लू उड़ते-उड़ते बोला- वह मेरा किला है। 
 
हंस बडा प्रभावित हुआ। वे दोनों जब उल्लू के आवास वाले पेड़ पर उतरे तो किले के सैनिकों की परेड शुरू होने वाली थी। दो सैनिक बुर्ज पर बिगुल बजाने लगे। उल्लू दुर्ग के सैनिकों के कार्यक्रम को याद कर चुका था इसलिए ठीक समय पर हंसराज को ले आया था। 
उल्लू बोला- देखो मित्र, आपके स्वागत में मेरे सैनिक बिगुल बजा रहे हैं। उसके बाद मेरी सेना परेड और सलामी देकर आपको सम्मानित करेगी।
 
नित्य की तरह परेड हुई और झंडे को सलामी दी गई। हंस समझा सचमुच उसी के लिए यह सब हो रहा हैं। अतः हंस ने गदगद होकर कहा- धन्य हो मित्र। आप तो एक शूरवीर राजा की भांति ही राज कर रहे हो।
 
उल्लू ने हंसराज पर रौब डाला- मैंने अपने सैनिकों को आदेश दिया हैं कि जब तक मेरे परम मित्र राजा हंसराज मेरे अतिथि हैं, तब तक इसी प्रकार रोज बिगुल बजे व सैनिकों की परेड निकले।
 
उल्लू को पता था कि सैनिकों का यह रोज का काम हैं। दैनिक नियम हैं। 
 
हंस को उल्लू ने फल, अखरोट व बनफ्शा के फूल खिलाए। उनको वह पहले ही जमा कर चुका था। भोजन का महत्व नहीं रह गया। 
सैनिकों की परेड का जादू अपना काम कर चुका था। हंसराज के दिल में उल्लू मित्र के लिए बहुत सम्मान पैदा हो चुका था।
 
उधर सैनिक टुकड़ी को वहां से कूच करने के आदेश मिल चुके थे। दूसरे दिन सैनिक अपना सामान समेटकर जाने लगे तो हंस ने कहा- मित्र, देखो आपके सैनिक आपकी आज्ञा लिए बिना कहीं जा रहे हैं।
 
उल्लू हड़बड़ा कर बोला- किसी ने उन्हें गलत आदेश दिया होगा। मैं अभी रोकता हूं उन्हें। ऐसा कह वह ‘हूं हूं’ करने लगा।
 
सैनिकों ने उल्लू का घुघुआना सुना व अपशकुन समझकर जाना स्थगित कर दिया। दूसरे दिन फिर वही हुआ। सैनिक जाने लगे तो उल्लू घुघुआया। सैनिकों के नायक ने क्रोधित होकर सैनिकों को मनहूस उल्लू को तीर मारने का आदेश दिया। एक सैनिक ने तीर छोड़ा। तीर उल्लू की बगल में बैठे हंस को लगा। वह तीर खाकर नीचे गिरा व फड़फड़ाकर मर गया। उल्लू उसकी लाश के पास शोकाकुल हो विलाप करने लगा- हाय, मैंने अपनी झूठी शान के चक्कर में अपना परम मित्र खो दिया। धिक्कार हैं मुझे।
 
उल्लू को आसपास की खबर से बेसुध होकर रोते देखकर एक सियार उस पर झपटा और उसका काम तमाम कर दिया।
 
सीख : झूठी शान बहुत महंगी पड़ती हैं। कभी भी झूठी शान के चक्कर में मत पड़ो।
 

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