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रक्षा बंधन पर शिक्षाप्रद कहानी : पर्यावरण संरक्षण है सच्चा बंधन

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- अ‍रविन्द कुमार साहू
 
सावन आते ही चारों ओर प्राकृतिक सुषमा छा गई थी। जहां-तहां नए पौधों के अंकुर फूटने लगे थे। नई कोंपलों और रंग-बिरंगे फूलों ने हरियाली की चादर पर मानो चित्रकारी कर दी  थी। रक्षाबंधन का पर्व नजदीक होने के कारण उत्सव की तैयारियां जोरों पर थीं। महिलाओं के साथ ही बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था। 
 
मां ने आंगन में जल से भरा मिट्टी का कलश रखकर उसे गोबर से सजाकर उसी में जौ के दाने बो दिए थे। उनमें निकले अंकुरों से थोड़ा-थोड़ा रोज बढ़ते हुए श्रेया बड़ी उत्सुकता से  देखती रहती थी। मां ने उसे बताया था कि इन पौधों को 'कजली' कहते हैं। रक्षाबंधन के दिन तक ये कजली उसके एक अंगुल बराबर तक बड़ी हो जाएगी। इन्हें वह मामाजी के कानों के पास लगाकर पारंपरिक ढंग से रक्षाबंधन का पर्व मनाएगी।
 
पर मैं तो राहुल भैया को सुंदर और बड़ी वाली राखी ही बांधूंगी। श्रेया ने मां से कहा। 
 
हां-हां, मैं बड़ी सी छोटे भीम की कार्टून वाली राखी ही बंधवाऊंगा, राहुल ने भी आंगन में आते हुए श्रेया के सुर में सुर मिलाया। 
 
जरूर बंधवाना बच्चों! जो तुम्हें अच्छा लगे। वैसे भी आजकल तो यही चलन में है, पर मैं तो पारंपरिक ढंग से ही सारे त्योहार मनाती हूं। मां ने मुस्कुराते हुए कहा। 
 
मां, ऐसा क्यों? क्या तुम्हें नया चलन अच्‍छा नहीं लगता? राहुल ने आंखें सिकोड़ी। 
 
नयापन भी अच्‍छा लगता है बेटा, क्योंकि समय के साथ कुछ बदलाव होने से परंपराएं व त्योहार अधिक दिन तक चलते हैं, पर हमें त्योहार मनाने के वे कारण भी जरूर याद रखने चाहिए, जो कि परंपराओं के साथ स्वयं जुड़े होते हैं। 
 
अच्छा? श्रेया ने आश्चर्य से कहा। रक्षाबंधन मनाने के पीछे ऐसा क्या कारण है? 
 
बच्चों! प्रत्येक भारतीय पर्व त्योहार और पूजा-पाठ की सभी परंपराएं किसी न किसी रूप में प्रकृति और पर्यावरण से ही जुड़ी हुई हैं। रक्षाबंधन का पर्व भी उनमें से एक है। यह समय वर्षा ऋतु का है। जब प्राकृतिक वातावरण एकदम धुला, साफ, हरा-भरा और प्रदूषण मुक्त होता है। ऑक्सीजन की मात्रा वायुमंडल में बढ़ जाती है। नए पेड़-पौधे उगने लगते हैं और जीव-जंतुओं के लिए भी अनुकूल वातावरण बन जाता है। इसका सर्वाधिक लाभ हमें ही मिलता है। बच्चों को यह जवाब रोचक लगा तो वे ध्यान से सुनने बैठ गए। 
 
मां ने आगे बताया कि अच्छी वर्षा, अच्छे वातावरण से अच्छी फसलें होती हैं। पेड़-पौधों से फल-फूल, औषधियां, कीमती लकड़ियां प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती हैं। ये सारी वस्तुएं हमारे दैनिक जीवन की जरूरतें तो पूरी करती ही हैं, साथ में हमें अच्‍छा स्वास्थ्य और लंबी आयु भी प्रदान करती हैं। इसलिए पर्वों-त्योहारों में हम प्रकृति के प्रतीकों और प्राकृतिक उत्पादकों को सम्मिलित करके उनके प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित करते हैं। इससे प्रकृति की सुरक्षा और सुरक्षा की हमारी जरूरत और आदतें अपने आप परिष्कृत होती रहती हैं। 
 
हां मां! सचमुच हमें अपने-अपने ढंग से प्रकृति का आदर करना चाहिए। बच्चों ने सहमति जताई। 
 
अच्‍छा मां! सच बताओ, रक्षाबंधन के पर्व पर हम अपने भाइयों को ही राखी क्यों बांधते हैं? श्रेया ने बड़ा मासूम सा सवाल किया तो राहुल भी चौकन्ना हो गया। 
 
मां गंभीर हो उठी। बोली- बेटी! सिर्फ भाइयों को ही नहीं, हम अपने किसी भी प्रिय व्यक्ति को राखी का धागा बांध सकते हैं। भाई, पिता, गुरु, सैनिक, शासक या किसी अन्य को। जिसके भी प्रति हम सम्मान की भावना रखते हैं, उसकी भी समृद्धि और लंबी आयु की कामना अवश्य करते हैं। ये राखी का धागा तो एक-दूसरे को प्रेम संबंधों में बांधे रखने का प्रतीक भर है। असली उद्देश्य तो भावनात्मक लगाव और एक-दूसरे की सुरक्षा-संरक्षा मजबूत बनाए रखने का होता है।
 
लेकिन राहुल की इस बात से श्रेया चिढ़ी नहीं बल्कि गंभीर हो उठी। हां, मैंने भी पिछली बार पुरोहितजी को मोहल्ले में दादाजी, पिताजी और सभी लोगों की कलाई पर रक्षासूत्र बांधते देखा था।
 
श्रेया के दिमाग में कुछ नया विचार कौंध रहा था। कहने लगी- ठीक है मां! ये तो समझ में आ गया कि हम किसी भी रिश्ते को प्रतीक बनाकर राखी बांध सकते हैं। तब क्या पेड़-पौधों पर भी यह नियम लागू होता है? आखिर वे भी तो हमें अनेक जीवनदायी वस्तुएं देकर हमारे जीवन के बेहद नजदीक हो जाते हैं। 
 
बिलकुल बेटी! हमारे और प्रकृति के रिश्ते पर भी शत-प्रतिशत लागू होता है। कुछ दिन पहले तुम वट सावित्री पर्व की पूजा पर मेरे साथ गई थी न? 
 
हां मां! वहां तमाम महिलाएं बरगद के पेड़ के नीचे पूजा करके उसके चारों ओर कच्चा धागा लपेट रही थीं। वहां तो ढेर सारा मोटा हो गया धागा अभी भी बंधा है। यह कैसा पर्व है? 
 
बेटी! यह भी एक प्रकार से प्रकृति का रक्षाबंधन है। दरअसल, बरगद का वृक्ष हजारों वर्षों तक जीवित और हरा-भरा रह सकता है इसलिए इसे दीर्घायु का प्रतीक माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि पौराणिक काल में ऐसे ही एक वटवृक्ष (बरगद) की छत्रछाया में सावित्री ने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण बचाकर लंबी आयु प्राप्त की थी। इसी कारण आज भी महिलाएं बरगद की पूजा करके कृतज्ञता ज्ञापित करती हैं और उसे रक्षा-सूत्र बांधकर एक-दूसरे की दीर्घायु की कामना करती हैं। 
 
मां ने लंबी सांस छोड़ते हुए कहा- ...और बेटी, यह तो तुम जानती ही हो कि ऐसे वृक्षों को पूज्य बना देने से हमारे समाज में उनकी कटान नहीं हो पाती। 
 
अरे वाह मां! तुमने तो बड़े काम की बात बता दी। क्या यह प्रकृति बंधन हम सारे पेड़ों पर लागू नहीं कर सकते? आखिर सभी पेड़ हमें कुछ न कुछ अवश्य देते हैं। उनकी भी सुरक्षा और संरक्षा इस भावनात्मक बंधन से हो सकती है। इस बात से श्रेया के साथ ही राहुल भी चहक उठा। 
 
मां ने उठते हुए कहा- अवश्य हो सकती है बच्चों। वे बाहर निकलकर मोहल्ले के बच्चों के साथ चर्चा करने चल पड़े। सभी बच्चे ज्ञानू दादा के बरामदे में जमा हुए। ज्ञानू दादा मोहल्ले के बच्चों के सवालों और समस्या समाधान के लिए हमेशा तैयार रहते थे। 
 
श्रेया-राहुल ने ज्ञानू दादा से मां के साथ हुई चर्चा को दोहराते हुए कहा कि दादाजी! शहर में हर वर्षा ऋतु में प्रशासन, स्वयंसेवी संगठनों और छात्रों द्वारा तमाम पेड़-पौधे लगाए जाते हैं किंतु साल बीतते-बीतते उनमें से अनेक पेड़-पौधे सूख जाते हैं या फिर थोड़े बड़े होते ही कट जाते हैं। उनकी देखभाल की व्यवस्था नहीं होती जिससे पौधारोपण का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता। 
 
तो क्या कहना चाहते हो तुम लोग? ज्ञानू दादा ने आश्चर्य से पूछा। 
 
दादाजी! यदि हम रक्षाबंधन को वट सावित्री पर्व की भांति प्रकृति के प्रति आस्था से जोड़ दें तो इनकी देखरेख आसानी से हो सकती है।
 
अरे वाह! यह तो बहुत अच्‍छा विचार है, किंतु होगा कैसे? दादाजी के साथ ही मोहल्ले के सारे बच्चे उत्साहित हो उठे। 
 
एक उपाय है- हम क्यों न अपने चुने हुए किसी वृक्ष को रक्षा-सूत्र में बांधकर उसकी देखभाल का जिम्मा ले लें और ऐसा करने के लिए दूसरों को भी प्रेरित करें। 
 
अवश्य बच्चों! ये तो क्रांतिकारी विचार है। इसे तो बड़ों का भी खूब समर्थन मिलेगा। 
 
तो फिर देर किस बात की? इसकी योजना अभी से बना लेते हैं। शुभारंभ हम अपने मोहल्ले के पेड़ों से करेंगे।
 
बच्चों की बैठक जम गई। कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार होने लगी। ज्ञानू दादा ने इस अभियान के प्रचार-प्रसार और बड़ों को भी जोड़ने का जिम्मा उठा लिया। दो-तीन बैठकों में सब कुछ सुनिश्चित हो गया। ...और फिर इस बार के रक्षाबंधन की बहुप्रतीक्षित सुबह भी आ गई। 
 
नहा-धोकर लक-दक कपड़ों में तैयार बच्चों ने पहले घर में रक्षाबंधन मनाया। एक-दूसरे को राखियां बांधकर मिठाइयां खिलाईं, फिर थाल सजाकर मोहल्ले में निकल पड़े। उनके पीछे ज्ञानू दादा और अन्य लोग भी निकल पड़े। पेड़ों को राखियां बांधी जाने लगीं। त्योहार सचमुच मंगलमय हो उठा था। दादाजी ने कुछ पत्रकारों को भी बुलवा लिया। कैमरों के फ्लैश चमक उठे। तालियां बजने लगीं। अगले दिन की सुबह एकदम नई लग रही थी। ये सरा अभियान अखबारों और टीवी में छा गया था। श्रेया और राहुल समेत मोहल्ले के बच्चे इस अभियान के नायक बन गए थे। 
 
साभार - देवपुत्र 

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