एक कुएं में बहुत समय से एक मेंढक रहता था। वह वहीं पैदा हुआ था और वहीं उसका पालन-पोषण हुआ। धीरे-धीरे यह मेंढक उसी कुएं में रहते-रहते मोटा और चिकना हो गया। अब एक दिन एक दूसरा मेंढक, जो समुद्र में रहता था, वहां आया और कुएं में गिर पड़ा।
कुएं के मेंढक ने पूछा- 'तुम कहां से आए हो?' इस पर समुद्र से आया मेंढक बोला- मैं समुद्र से आया हूं। समुद्र! भला वह कितना बड़ा है? क्या वह भी इतना ही बड़ा है, जितना मेरा यह कुआं? और यह कहते हुए उसने कुएं में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलांग मारी।
समुद्र वाले मेंढक ने कहा- मेरे मित्र! भला, समुद्र की तुलना इस छोटे से कुएं से किस प्रकार कर सकते हो? तब उस कुएं वाले मेंढक ने दूसरी छलांग मारी और पूछा- तो क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा है? समुद्र वाले मेंढक ने कहा- तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! समुद्र की तुलना तुम्हारे कुएं से कैसे हो सकती हैं?
अब तो कुएं वाले मेंढक ने कहा- 'जा... जा! मेरे कुएं से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं है! झूठा कहीं का? अरे, इसे बाहर निकाल दो।'
यही कठिनाई सदैव रही। मैं हिन्दू हूं। मैं अपने क्षुद्र कुएं में बैठा यही समझता हूं कि मेरा कुआं ही संपूर्ण संसार है। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएं में बैठे हुए यही समझता है कि सारा संसार उसी के कुएं में है। मुस्लिम भी अपने क्षुद्र कुएं में बैठे हुए उसी को सारा ब्रह्मांड मानता है। मैं अमेरिका वालों को धन्य कहता हूं, क्योंकि आप हम लोगों के इन छोटे-छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का महाप्रयत्न कर रहे हैं। मैं आशा करता हूं कि भविष्य में परमात्मा आपके इस काम में सहायता देकर आपका मनोरथ पूर्ण करेंगे।
(15 सितंबर 1893 को दिए गए भाषण के दौरान बताई गई एक छोटी कहानी)