अदृश्य हत्यारा है परमाणु विकिरण
, गुरुवार, 17 मार्च 2011 (13:14 IST)
हवा भी अदृश्य है। तब भी हम उसका स्पर्श महसूस करते हैं। लेकिन, रेडियोधर्मी परमाणु विकरण एक ऐसा हत्यारा है, जो न दिखाई पड़ता है, न सुनाई पड़ता है। न उसका कोई स्वाद है और न कोई गंध। हमारी ज्ञानेंद्रयों से परे है उसका स्पर्श। केवल विकिरणमापी यंत्र ही उसकी उपस्थिति को महसूस कर सकता है। वही बता सकता है कि उसकी तीव्रता खतरे के निशान से नीचे है या ऊपर। जापान में भूकंप की मार से क्षतिग्रस्त परमाणु बिजलीघरों के रिएक्टरों में इस समय जो कुछ हो रहा है, उसने इसी कारण सारी दुनिया को चिंता और भय से एकसूत्र कर दिया है। हर चेहरे पर यही प्रश्न है-- क्या भारी मात्रा में विकिरण के उत्सर्जन को रोका जा सकेगा? क्या हमारे यहाँ भी विकिरण पहुँचेगा? पहुँचा, तब क्या करना होगा? वह कैसे हमें मारेगा? कैसे हम अपना बचाव कर सकते हैं?
विषय के जानकार जर्मन विशेषज्ञ वेर्नर एक्कर्ट कहते हैं, '' परमाणु रिएक्टर रसोईघर की बत्ती नहीं, खाना पकाने की हॉटप्लेट' के समान'' है। जिस तरह हॉटप्लेट बटन बंद कर देने के बाद भी कुछ समय तक गरम रहती है, उसी तरह परमाणु रिएक्टर भी बंद होने के बाद लंबे समय तक गरम भी रहता है और रेडियोधर्मी विकिरण भी पैदा करता है। बटन बंद करने पर केवल इतना ही होता है कि उसके भीतर परमाणु विखंडन की सतत क्रिया (चेन रिएक्शन) थम जाती है।परमाणु विखंडन की जटिल क्रिया : यह सतत क्रिया चलती है रिएक्टर के केंद्र में लगी परमाणु ईंधन की उन छड़ों में, जिनमें यूरेनियम या प्लूटोनियम भरा होता है। विखंडन की क्रिया शुरू करने के लिए उन पर न्यूट्रॉन कणों की बौछार की जाती है। एक बार शुरू होने के बाद यह क्रिया अपने आप तभी आगे बढ़ और निरंतर चल सकती है, जब न्यूट्रॉन कणों की टक्कर से टूटने वाले यूरेनियम या प्लूटोनियम के हर नाभिक से एक और न्यूट्रॉन कण छटके और वह एक और नाभिक को टक्कर मारे। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो परमाणु विखंडन की क्रिया बार-बार रुक जाया करेगी। लेकिन, वास्तव में होता यह है कि हर न्यूट्रोन की टक्कर से यूरेनियम या प्लूटोनियम के हर नाभिक से एक ही नहीं, दो या तीन न्यूट्रॉन कण छटक कर अलग होते हैं।इसे रोकना पड़ता है, वर्ना सतत क्रिया नियंत्रण के बाहर हो जायेगी। रोकने के लिए ईंधन की छड़ों के बीच बोरोन या कैडमियम मिश्रित सामग्रियों वाली न्यूट्रॉन- अवशोषक छड़ें नीचे उतारी जाती हैं। उन्हें रिएक्टर में जितना ज्यादा नीचे उतारा जाता है, उतने ही ज़्यादा न्यूट्रॉनों को वे अपने भीतर सोख लेती हैं। इस तरह सुनिश्चित किया जाता है कि रिएक्टर में उतने ही न्यूट्रॉन रहें, जितने नियंत्रित सतत क्रिया के लिए जरूरी हैं। रिएक्टर को बंद करने का मतलब है न्यट्रॉन-अवशोषक छड़ों को एक दम नीचे तक उतार देना, ताकि नाभिकीय विखंडन रुक जाए। रिएक्टर तुरंत ठंडा नहीं होता : नाभिकीय विखंडन की सतत क्रिया तो रुक जाती है, रिएक्टर तुरंत ठंडा नहीं हो जाता। वेर्नर एक्कर्ट के अनुसार ''बंद हो जाने के बाद भी परमाणु बिजलीघर अपनी अधिकतम क्षमता के 5 से 10 प्रतिशत के बराबर बिजली पैदा करता है। यहाँ तक कि पूरी तरह चुक गई ईंधन- छड़ों से भी करीब उतना ही रेडियोधर्मी विकिरण निकलता रहता है, जितना विशुद्ध रेडियम से निकलता है। जिन छड़ों का परमाणु ईंधन अभी-अभी चुक गया है, उनके भीतर अब भी इतना विखंडनीय पदार्थ हो सकता है कि उनसे न केवल अच्छा-ख़ासा विकिरण ही पैदा हो रहा हो, यह विकिरण इतना बढ़ भी सकता है कि रिएक्टर बंद होते हुए भी पिघलने लगे।'' ''
इसीलिए, अपना यूरोनियम या प्लूटोनियम खर्च कर चुकी छड़ें किसी कचरे के ढेर पर नहीं डाली जातीं,'' एक्कर्ट कहते हैं, "बल्कि उन्हें उनको ठंडा करने के लिए बने विशेष टैंकों में रखा जाता है। उन्हें बार- बार ठंडा करना पड़ता है, ताकि कुछ साल बाद उन्हें 'कैस्टर' कहलाने वाले मज़बूत कंटेनरों में पैक किया जा सके। फिलहाल तो वे इन कंटेनरों में ही पड़ी रहती हैं, क्योंकि हमारे पास या किसी और देश के पास उनको अंतिम रूप से रखने का कोई स्थाई आगार नहीं है।''
यदि किसी को वर्ष भर में कुल मिलाकर 100 मिलीसीवर्ट रेडियोधर्मी विकिरण झेलना पड़ा है, तो उसे कैंसर होने की संभावना बहुत बढ़ जायेगी। जिसे कुछ ही सप्ताहों में 1 से 5 सीवर्ट तक विकिरण झेलना पड़ा है, उसे सिरदर्द, मितली आने और उल्टी होने की शिकाय़त होगी
क्या है रेडियोधर्मी विकिरण : रेडियोधर्मी विकिरण (रेडिएशन) कहते हैं उन ऊर्जासंपन्न अदृश्य किरणों व कणों को, जो यूरेनियम जैसे रेडियोधर्मी तत्वों के नाभिकों के टूटने से मुक्त होते हैं। मुख्य रूप से तीन प्रकार की किरणें पैदा होती हैं-- अल्फा, जो केवल शरीर की ऊपरी त्वचा को भेद पाती हैं; त्वचा कैंसर, गले का थाइरॉइड कैंसर, अस्थि कैंसर और ल्यूकेमिया (रक्तकैंसर) पैदा कने वाली बीटा (सेजियम 137, आयोडीन 131 या स्ट्रॉन्शियम 90 के विघटन से) और इन दोनो से भी शक्तिशाली गामा किरणें, जो वास्तव में विद्युतचुंबकीय (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक) विकिरण हैं और हमारे जीनों तक को क्षतिग्रस्त कर देती हैं।जापान में इस समय समस्या परमाणु कचरे के निपटारे की नहीं, स्वयं कई परमाणु रिएक्टरों के पिघल जाने और रेडियोधर्मी विकिरण के दूर- दूर तक फैलने की है। जर्मनी और फ्रांस जैसे कई देशों ने अपने नगरिकों से कहा है कि वे टोकियो छोड़ कर तुरंत कहीं और चले जाएँ या हो सके तो जापान से ही विदा लेलें।विकिरण की अंतरराष्ट्रीय इकाई : इस सलाह के पीछे मुख्य कारण यह है कि कोई व्यक्ति विकिरण स्रोत के जितना निकट होगा, उसका शरीर उतना ही अधिक प्रभावित होगा। मनुष्यों व अन्य जीव-जंतुओं के प्रसंग में रेडियोधर्मी विकिरण को एक विशेष अंतरराष्ट्रीय इकाई "सीवर्ट'' (Sv) में मापा जाता है। यह नामकरण स्वीडन के एक डॉक्टर रोल्फ सीवर्ट के सम्मान में किया किया गया है। एक सीवर्ट 1000 मिलीसीवर्ट (mSv) के बराबर होता है।जापानी सरकार के अनुसार, मंगलवार 15 मार्च को फुकूशीमा बिजलीघर के पास 400 मिलीसीवर्ट प्रतिघंटे रेडियोधर्मिता मापी गई। यह मात्रा उस मात्रा के 20 गुने के बराबर है, जो परमाणु संयंत्रों में काम करने वाले किसी कर्मचारी के लिए पूरे वर्ष की स्वीक़ृत मात्रा है। वैसे तो हम सभी को, संसार में हर जगह और हर समय, कुछ न कुछ प्राकृतिक रोडियोधर्मी विकिरण झेलना पड़ता है। लेकिन, वह औसतन केवल दो मिलीसीवर्ट प्रतिवर्ष होता है। उदाहरण के लिए, छाती का एक्स-रे लेते समय हमारे शरीर को 0.02 मिलीसीवर्ट और दाँतों के एक्स-रे के समय 0.01 मिलीसीवर्ट विकिरण झेलना पड़ता है।
खतरा शुरू होने की सीमा : 100 मिलीसीवर्ट शरीर के लिए खतरा शुरू होने की सीमा है। विशेषज्ञ विकिरण की तीव्रता और दीर्घता के अनुसार उसके तात्कालिक और विलंबित प्रभावों के बीच अंतर करते हैं। यदि किसी को वर्ष भर में कुल मिलाकर 100 मिलीसीवर्ट रेडियोधर्मी विकिरण झेलना पड़ा है, तो उसे कैंसर होने की संभावना बहुत बढ़ जाएगी। जिसे कुछ ही सप्ताहों में 1 से 5 सीवर्ट तक विकिरण झेलना पड़ा है, उसे सिरदर्द, मितली आने और उल्टी होने की शिकायत होने लगेगी। 15 सीवर्ट झेलने के बाद जीवित बच सकना बहुत मुश्किल है। कम तीव्रता वाले विकिरण के विलंबित परिणाम सालों बाद सामने आ सकते हैं और अधिकतर गले की थाइरॉइड ग्रंथि, ल्यूकेमिया (रक्तकैंसर) और बच्चों में शारीरिक विकृति का कारण बन सकते हैं। अधिकतर कैंसर ही होता है : फुकूशीमा बिजलीघर के आस-पास प्रतिघंटे 400 मिलीसीवर्ट रेडियोधर्मिता का मतलब है कि उस के पास केवल एक घंटे ठहरना किसी और जगह पर साल भर औसत प्राकृतिक विकरण झेलने के 200 गुने के बराबर है। इसका विलंबित परिणाम अधिकतर कैंसर के रूप में सामने आयेगा। रेडियोधर्मी विकिरण से अधिकतर कोई न कोई कैंसर ही होता है। न केवल शरीर की कोशिकाएँ ही नष्ट या विकृत होती हैं, कोशिकाओं के जीन भी क्षतिग्रस्त होते और बदल जाते हैं।एकबारगी पैदा हुआ रेडयोधर्मी विकिरण समय और दूरी के साथ घटता जाता है। लेकिन, विकिरण पैदा करने वले तत्व और परमाणु रिएक्टरों से निकला कचरा हजारों, लाखों, यहाँ तक कि करोड़ों वर्षों तक विकिरणधर्मी बना रह सकता है। उदाहरण के लिए, प्लूटोनियम ढाई लाख वर्ष विकिरणधर्मी बना रहता है।बचने के बहुत कम ही उपाय : विकिरण से बचने या उसके असर को घटाने के बहुत कम ही उपाय हैं। यदि विकिरण के बादल आ ही गये, तो यथासंभव खिड़की-दरवाजे बंद कर घर में ही रहना चाहिए। प्रदूषित हवा और धूलकणों को साँस के रास्ते भीतर जाने से किसी हद तक रोकने के लिए नकाब (मास्क) लगाना चाहिए। बाहर से घर आने पर कपड़े बदलना और नहाना चाहिए। कई बार आयोडीन की गोलियाँ लेने की भी सलाह दी जाती है, लेकिन बेहतर है कि ऐसा तभी किया जाए, जब सरकारी विभागों की ओर से ऐसा कहा गया हो। आयोडीन की गोलियाँ लेने से थाइरॉइड ग्रंथि आयोडिन से भर जाएगी, इसलिए वहाँ रेडियोधर्मी आयोडीन 131 जमा नहीं हो पाएगा। लेकिन, पहली बात, आयोडीन गोलियों की बड़ी मात्रा लेनी होगी, और दूसरी बात, आयोडीन की बहुत अधिक मात्रा स्वयं भी हानिकारक है। 45 साल से अधिक के लोगों को थाइरॉइड ग्रंथि की कोई दूसरी बीमारी हो सकती है। आयोडीन की गोलियाँ विकिरण से पैदा हो सकने वाली अन्य समस्यओं और बीमारियों से नहीं बचा सकतीं।खतरा विकिरण के बादल छंट जाने के बाद भी बना रहता है। वे फल-फूल और सब्जियाँ, जो विकिरण के बदल आने के समय खेतों में थीं, उससे प्रदूषित हो जाती हैं। प्रदूषण की तीव्रता के अनुपात में उनसे वही बीमारियाँ हो सकती हैं, जो विकिरण के सीधे प्रभाव से होती हैं। इसलिए, भोजन के मामले में भी लंबे समय तक सावधानी बरतनी पड़ सकती है।