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क्या मानव रूपान्तरित मछली है?

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मेलबोर्न , शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011 (13:18 IST)
मनुष्य को मछली का रूपान्तरण बताते हुए वैज्ञानिकों ने यह पता लगाने का दावा किया है कि जलीय प्रजाति के पेल्विस फिनों को मांसपेशियों ने कैसे नियंत्रित किया जिससे आगे चल कर कशेरूकी प्राणियों में पैरों के विकास का रास्ता बना।

मोनाश विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पीटर क्यूरी और सिडनी विश्वविद्यालय के डॉ. निकोलस कोल ने कहा कि उनकी खोज मानव के दूरस्थ वंशजों सहित चार पैरों वाले उन प्राणियों अर्थात टेट्रापोड के विकास पर रोशनी डालती है जिन्होंने करीब 40 करोड़ वर्ष पहले धरती पर पहला कदम रखा था।

वैज्ञानिकों ने उपास्थियों वाली प्राचीन मछली, ऑस्ट्रेलिया की बैम्बू शार्क और उसकी अन्य प्रजातियों, एलीफैन्ट शार्क, तीन हड्डियों वाली मछली, ऑस्ट्रेलियाई लंग फिश, जेब्राफिश और अमेरिकी पैडलफिश का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है।

प्रो क्यूरी का कहना है कि मछली की अनुवांशिकी में मनुष्य की अनुवांशिकी से बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता। उन्होंने कहा कि हमने बताया है कि हड्डियों वाली मछली में पेल्विस मांसपेशी निर्माण की प्रक्रिया वास्तव में शार्क और चार पैरों वाले प्राचीन प्राणियों के बीच की अवस्था है।

प्रो क्यूरी ने कहा कि मछलियों की अलग-अलग प्रजातियों में उनके पेल्विक फिनों की मांसपेशियों के निर्माण के तरीके का अध्ययन कर हम यह पता लगा पाए हैं कि मानव के पिछले पैरों का विकास कैसे हुआ होगा। इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि मनुष्य एक रूपान्तरित मछली है। वैज्ञानिकों ने पेल्विक फिनों की मांसपेशियों के विकास का अध्ययन करने के लिए वर्तमान दौर की मछली की प्रजातियों का इस्तेमाल किया और यह पता लगाया कि चार पैरों वाले प्राणियों अर्थात टेट्रापोड्स के शरीर का भार संभालने वाले पिछले पैरों का विकास किस तरह हुआ।

पेल्विक फिन की मांसपेशियों के निर्माण में अंतर का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने कशेरूकी प्राणियों के विकास में उल्लेखनीय परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रजातियों के वंशजों के भ्रूण का तुलनात्मक अध्ययन किया।

विकास की शुरुआती अवस्था में जब शरीर आकार ग्रहण करता है, उस समय अग्रगामी मांसपेशियों की कोशिकाओं के विभिन्न भागों में प्रसार का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने मछलियों की अनुवांशिकी में परिवर्तन भी किया। ऐसी मछलियों में इन कोशिकाओं से लाल या हरे रंग की रोशनी उत्सर्जित हुई।

अध्ययन के नतीजे ‘पीएलओएस बायोलॉजी’ जर्नल में प्रकाशित हुए हैं। (भाषा)

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