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खतरे की घंटी बजी, कार्बन डाईऑक्साइड पहुंचा खतरनाक स्तर पर...

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वैज्ञानिकों ने दुनिया भर के नेताओं को चेतावनी दी है कि वायुमंडल में बढ़ते कार्बन डाई ऑक्साइड के स्तर के देखते हुए इस पर नियंत्रण करने के लिए तुरंत कदम नहीं उठाएं गए तो तबाही मच जाएगी।

हवाई में मौजूद अमरीकी प्रयोगशाला में रोजाना होने वाले कार्बन डाई ऑक्साइड (Co2) के उत्सर्जन की माप से अंदाजा मिला है कि पहली बार इस गैस का उत्सर्जन 400 पार्ट्स प्रति 10 लाख के स्तर पर पहुंच गया है।

ब्रिटेन की रॉयल सोसायटी के मौसम परिवर्तन विभाग के प्रमुख ब्रायन हस्किंस का कहना है कि कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस के आंकड़े यह संकेत दे रहे हैं कि दुनिया की सरकारों को इसके लिए उचित क़दम उठाना चाहिए।

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साल 1958 से लेकर अब तक माउना लोआ ज्वालामुखी पर मौजूद गैस मापक स्टेशन में दर्ज किए जाने वाले आंकड़े दर्शाते हैं कि इस गैस की मात्रा लगातार बढ़ रही है।

उल्लेखनीय है कि मानव जीवन के अस्तित्व से करीब 30 से 50 लाख साल पहले नियमित तौर पर कार्बन डाई ऑक्साइड (Co2) की मात्रा 400 पीपीएम से ऊपर थी।

वैज्ञानिकों का कहना है कि उस वक्त का मौसम आज के मुकाबले काफी गर्म हुआ करता था। कार्बन डाईऑक्साइड को सबसे प्रमुख मानव जनित ग्रीनहाउस गैस माना जाता है और उसे पिछले कुछ दशकों से धरती के तापमान को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार माना जाता है। जीवाश्म ईंधन मसलन कोयला, तेल और गैस के जलने से मुख्य तौर पर कार्बन का उत्सर्जन होता है।

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ज्वालामुखी के आसपास आमतौर पर यह रुझान देखा जाता है कि Co2 की मात्रा ठंड के मौसम में बढ़ती है लेकिन उत्तरी गोलार्द्ध में मौसम बदलने के साथ ही इसकी मात्रा कम हो जाती है। भला हो पृथ्वी पर फैले जंगलों, दूसरे पौधों और वनस्पतियों का जिनकी वजह से वातावरण को नुकसान पहुंचाने वाले गैस की मात्रा कम होती है।

माउना लोआ और दक्षिणी ध्रुव की वेधशालाएं दो ऐसी प्रतिष्ठित जगहें हैं जहां साल 1958 से ही Co2 की मात्रा मापी जा रही है। पिछले साल पहली बार आर्कटिक क्षेत्र की सभी जगहों पर Co2 की मात्रा 400 पीपीएम के स्तर पर पहुंच गई। वैज्ञानिकों का मानना है कि संभवतः अगले साल तक या उसके बाद औसत सालाना रीडिंग 400 पीपीएम के स्तर को पार कर लेगी।

Co2 के स्तर को तय करने से वैज्ञानिकों को प्रॉक्सी मापन का इस्तेमाल ज़रूर करना पड़ता है। इसके तहत अंटार्कटिक के बर्फ में मौजूद प्राचीन काल के हवा के बुलबुले का अध्ययन किया जाता है। इस तरीके का इस्तेमाल कर पिछले 800,000 सालों के Co2 के स्तर को बताया जा सकता है।

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