भारत में उस समय 3 दिसंबर की तारीख शुरू हो चुकी थी। अमेरिका में अभी 2 दिसंबर 1942 का तीसरा प्रहर चल रहा था, जब खबर आई की परमाणु के नियंत्रित सतत विखंडन में सफलता मिल गई है। शिकागो में पहली बार मिली इस सफलता को ही परमाणु बिजली व परमाणु बम के युग का जन्मदिन माना जाता है।
अणु से भी कहीं छोटे परमाणु को भी विखंडित किया जा सकता है, यह तो 1938 का अंत आते-आते पता चल गया था। जर्मनी के दो भौतिकशास्त्रियों ओटो हान और फ्रित्स श्ट्रासमान को यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ था कि यूरेनियम का नाभिक उस समय टूट कर बिखरने लगता है और दूसरे रासायनिक तत्वों में बदल जाता है, जब उस पर न्यूट्रॉन कणों की बौछार की जाती है।अगला प्रश्न यह था कि नाभिकीय विखंडन की इस अज्ञात क्रिया को क्या एक सतत क्रिया (चेन-रिएक्शन) का भी रूप दिया जा सकता है? न केवल दुनिया भर के भौतिकीविद ही इस सतत क्रिया का सुराग पाने में जुट गए, यूरोप और अमेरिका के सैन्य अधिकारियों और राजनेताओं के भी कान खड़े हो गए। विज्ञान और राजनीति के बीच तब जो मिलीभगत शुरू हुई, वह इतिहास में पहले कभी देखने में नहीं आई थी। कैसे होता है परमाणु विखंडनः सिद्धांत रूप में, किसी न्यूट्रॉन कण को तेज गति से यूरेनियम के किसी नाभिक पर दागने से वह नाभिक दो या तीन नए न्यूट्रॉन कण पैदा करते हुए खंडित हो जाता है। ये नए न्यूट्रॉन कण किसी दूसरे नाभिक से टकरा सकते हैं और उसे तोड़ कर फिर से नए न्यूट्रॉन कण पैदा कर सकते हैं।यदि न्यूट्रान कणों की हर बार एक सही गति हो और यूरेनियम की एक तथातथित सही 'क्रांतिक मात्रा' (क्रिटिकल मास) हो, तो यह क्रिया स्वतः ही चल पड़ती है और हर नाभिक के टूटने के साथ भारी मात्रा में ऊर्जा भी पैदा करती है। किसी रिएक्टर में नियंत्रित होने पर यही ऊर्जा बिजली बनाने के काम आ सकती है जबकि किसी बम में बंद होने पर प्रलयंकारी विध्वंस मचा सकती है। 1938
में जर्मनी हिटलर के शिकंजे में था। यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के बादल घिरने शुरू हो गए थे। यहूदियों और अपने हर तरह के विरोधियों का सफाया कर देने के हिटलर के संकल्प के कारण जर्मनी के अल्बर्ट आइनश्टाइन और हंगरी के लेओ शिलार्द जैसे चोटी के वैज्ञानिकों को भाग कर अमेरिका में शरण लेनी पड़ी थी। दोनो यहूदी थे। शिलार्द ने तो ओटो हान के परमाणु विखंडन से करीब 5 साल पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि एक बार शुरू हो जाने पर स्वतः परमाणु विखंडन की सतत क्रिया भी संभव है। हिटलर की भूमिकाः हिटलर के अत्याचारों से बचने के लिए जर्मनी से भागे वैज्ञानिकों व अन्य वैज्ञानिकों को उन दिनों यही चिंता सता रही थी कि कहीं ऐसा न हो कि जर्मनी उनसे पहले परमाणु के सतत विखंडन का रहस्य जान ले और शायद पहला परमाणु बम भी बना ले। तब तो बेड़ा गर्क ही हो जाएगा। अतः वे पूरे जोर-शोर से जर्मनी से पहले ही यह रहस्य जान लेना और जर्मनी से आगे बढ़ जाना चाहते थे।
यही बेचैनी इटली के एनरीको फेर्मी को भी थी। उन्हें 1938 में परमाणु भौतिकी में उनके शोधकार्यों के लिए नोबेल पुरस्कार भी मिला था। उनके सामने भी समस्या यह थी कि उनकी पत्नी यहूदी थी और उस समय इटली में हिटलर के परम मित्र बेनीतो मुसोलिनी की फासिस्ट सरकार की अत्याचारशाही थी। नोबेल पुरस्कार लेने के बहाने से फेर्मी सपरिवार देश छोड़ कर भागने और अमेरिका में शरण पाने में सफल रहे।अमेरिका पहुंचते ही फेर्मी एक ऐसा रिएक्टर बनाने में जुट गए, जिसके माध्यम से वे दिखाना चाहते थे कि सतत परमाणु विखंडन की क्रिया को नियंत्रित भी किया जा सकता है।इस बीच हिटलर ने पहली सितंबर 1939 को पोलैंड पर आक्रमण कर द्वितीय विश्व युद्ध का बिगुल भी बजा दिया था। अमेरिका सजग तो हो गया था, लेकिन युद्ध में लगभग तीन साल बाद तब शामिल हुआ, जब जापान ने उसके नौसैनिक अड्डे पर्लहार्बर पर बमबारी करदी।अमेरिका इस हमले से ऐसा बौखलाया कि वह पहला परमाणु बम बनाने के अपने तथाकथित 'मैनहटन प्रॉजेक्ट' को मूर्तरूप देने पर तुरंत जुट गया। पहला परमाणु रिएक्टरः 1942 में लगभग उसी समय एनरीको फेर्मी और लेओ शिलार्द की बनाई रूपरेखा के आधार पर शिकागो के एक स्टेडियम के स्क्वैश हॉल में वह पहला परमाणु रिएक्टर भी बन कर तैयार हुआ, जिसमें पहली बार परमाणु विखंडन की नियंत्रित सतत क्रिया का प्रदर्शन किया जाना था। रिएक्टर एक-दूसरे पर रखी ग्रेफाइट और यूरेनियम की टनों भारी परतों का बना था। ग्रेफाइट परतों का काम था न्यूट्रॉन कणों की बौछार की गति को घटाते हुए सही सीमा के भीतर रखना। परमाणु विकिरण से रक्षा के बारे में बहुत कम ही सोचा गया था।दोनों वैज्ञानिक कैडमियम के एक घोल से भरी कुछ बाल्टियां लिए बैठे थे, ताकि कोई आपात स्थिति पैदा होने पर वे यह घोल रिएक्टर पर उड़ेल कर सतत विखंडन की क्रिया को रोक सकें। कैडमियम क्योंकि न्यूट्रॉन कणों को सोख लेता है, इसलिए वे उसके द्वारा सोख लिए जाने पर यूरेनियम के नाभिकों से नहीं टकरा पाते और तब विखंडन की क्रिया ठंडी पड़ जाती।शिकागो में 2 दिसंबर 1942 की सुबह यह प्रयोग शुरू हुआ। फेर्मी के आदेश पर दोपहर में कुछ देर आराम के लिए काम रोक दिया गया। बाद में जब प्रयोग आगे बढ़ा, तब स्थानीय समय के अनुसार तीसरे पहर तीन बज कर 20 मिनट पर न्यूट्रॉन कणों द्वारा यूरेनियम के नाभिक तोड़ने, नए न्यूट्रॉन कण पैदा करने और फिर नए नाभिक तोड़ने और नए न्यूट्रॉन पैदा करने की सतत क्रिया चल पड़ी।इस तरह यह पहली बार सिद्ध हो गया कि परमाणु विखंडन की क्रिया को ऐसे भी शुरू एवं नियंत्रित किया जा सकता है कि एक बार शुरू हो कर वह अपने आप चलती रही। लेकिन, स्वतः चलने वाली यह सतत क्रिया तभी शुरू होती है, जब यूरेनियम जैसे विखंडनीय पदार्थ की क्रांतिक मात्रा कहलाने वाली एक निश्चित मात्रा भी मौजूद हो। रिएक्टर के बाद बम : इस प्रयोग की सफलता के बाद फेर्मी, शिलार्द और उनके साथी वैज्ञानिक परमाणु बम वाली मैनहटन परियोजना को सफल बनाने में जुट गए। उसकी परिणति 6 और 9 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर दो अमेरिकी परमाणु बमों के गिराने से हुई अपू्र्व प्रलयलीला के रूप में दुनिया के सामने आई।किंतु, दुनिया अमेरिका की चाहे जितनी निंदा-भर्त्सना करे, असली दोषी तो वह हिटलर था, जिसने 6 वर्ष पूर्व पोलैंड पर अकारण आक्रमण कर विश्वव्यापी युद्ध की आग जलाई थी। शिलार्द बम के इस्तेमाल के पक्ष में नहीं थे, जबकि फेर्मी पक्ष में थे। दोनों को इस बात का भी श्रेय दिया जाता है कि उनके बनाए पहले रिएक्टर ने ही परमाणु ऊर्जा को बिजली में बदलने का मार्ग भी प्रशस्त किया। लेकिन आज, परमाणु युग का सूर्योदय होने के 70 साल बाद, यह युग गर्व से अधिक शोक का विषय बन गया है। सारी दुनिया में उसके सूर्यास्त की मन्नत मानाई जा रही है। हिरोशिमा और नागासाकी यदि बम-विभिषिका की दारुण गाथा गा रहे हैं तो चेर्नोबिल और फुकूशिमा रिएक्टर-विस्फोट की त्रासदी सुना रहे हैं।