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मानव अंतरिक्ष यात्रा के 50 वर्ष पूर्ण

12 अप्रैल: गागरिन के गगन-चुंबन की स्वर्ण जयंती

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राम यादव

, मंगलवार, 12 अप्रैल 2011 (12:31 IST)
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12 अप्रैल 1961 मानव-इतिहास का एक युगप्रवर्तक दिन था। इस दिन पहली बार एक धरतीवासी अपना भार धरती पर छोड़ कर भारहीन अंतरिक्ष की गोद में गया था। तत्कालीन सोवियत संघ (आज के रूस) के यूरी गागरिन की उस पहली उड़ान के साथ समानव अंतरिक्ष यात्राओं के एक ऐसे रोमांचक युग का श्रीगणेश हुआ, जिसने कुछ ही वर्षों में चंद्रयात्रा को संभव बनाया और अब हम मंगल ग्रह पर पहुँचने की राह में हैं। वह पहली अंतरिक्ष यात्रा एक ऐसी अपूर्व चुनौती थी, जिससे जुड़े कई तथ्य केवल पिछले कुछ वर्षों में प्रकाश में आए हैं।

दक्षिण-पश्चिमी रूस का सारातोव जिला। 1961 के 12 अप्रैल वाले उस दिन स्थानीय समय के अनुसार वहाँ पूर्वाह्न के 10 बज कर 55 मिनट हुए थे। अन्ना तख्तारोवा अपने गाँव स्मेलोव्का के पास अपनी पोती रीता का हाथ थामे अपने खेत में खड़ी थीं। तभी, पैराशूट की डोरियों को एक ओर झटकती हुई नारंगी रंग के एक ओवरॉल में लिपटी और हेल्मेट से ढकी दो पैरों वाली एक आकृति उन्हें अपनी तरफ आती दिखी। कौतूहल से अधिक शायद डर से उनकी साँस थम गयी। 'ये भला क्या है, कौन है?' उन्होंने मन ही मन सोचा। ऐसा कुछ पहले तो कभी नहीं देखा था!

अन्ना तख्तारोवा ने उस आकृति को पास आते देख पोती का हाथ कस कर पकड़ लिया और वहाँ से भागने लगीं। लेकिन, जैसे ही दुबारा पीछे मुड़ कर देखा, तो पाया कि उस आकृति ने अपना हेल्मेट उतार दिया था। उसका चेहरा रूसी आदमियों जैसा था। वह आदमी कह रहा था, 'मैं तुम्हीं लोगों में से एक हूँ। अपना ही आदमी हूँ, अपना ही आदमी।.... मैं अभी-अभी अंतरिक्ष से लौटा हूँ।'

अंतरिक्ष से लौटा, खेत में उतरा
कैसी विडंबना थी। पहली बार कोई आदमी पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो कर अंतरिक्ष में गया था। अभी-अभी लौटा था। एक अपूर्व ऐतिहासिक क्षण था। गाजा-बाजा नहीं। कोई स्वागत-सत्कार नहीं। दूर-दूर तक बस खेत ही खेत थे। सामने थी भय और कौतूहल से डरी-सहमी एक किसान महिला और उसकी पोती!

उस आदमी का नाम था यूरी अलेक्सेयेविच गागरिन। आयु मात्र 27 साल। गागरिन के रूप में किसी मनुष्य की पहली अंतरिक्ष यात्रा और उसकी सकुशल वापसी का समाचार कुछ ही मिनटों में जब मॉस्को पहुँचा, तो उसे बाकी दुनिया में पहुँचते भी देर नहीं लगी। पहले रूस में और फिर सारी दुनिया में गागरिन के स्वागत-सत्कार में पलक-पाँवड़े बिछने लगे। फूलों, उपहारों और पुरस्कारों की वर्षा हुई।

भारत में भी गागारिन की झलक पाने के लिए लाखों की भीड़ उमड़ी। तब, बहुत से लोग अंतरिक्ष का सही अर्थ जानते भी नहीं थे। समझते थे, धरती से बहुत दूर वह शायद वही जगह है, जहाँ भगवान रहते हैं। जो लोग अंतरिक्ष का अर्थ जानते थे, वे भी और जो नहीं जानते थे, वे भी भौंचक्के रह गए कि रूसियों ने यह कमाल कर कैसे दिखाया! अमेरिका यह चमत्कार क्यों नहीं कर पाया!

राजनैतिक श्रेष्ठता का सिक्का जमाया
रूसियों ने भी उस समय के तथाकथित 'शीतयुद्ध' के अपने सबसे दमदार प्रतिद्वंद्वी अमेरिका पर अपने समाजवाद (कम्यूनिज़्म) की राजनैतिक श्रेष्ठता का सिक्का जमाने के लिए तथ्यों को छिपाने और शेखी बघारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दावा किया कि उनके अंतरिक्ष कार्यक्रम के अधीन कभी किसी की मौत नहीं हुई। सब कुछ पूरी तरह योजनानुसार चला।युवा यूरी गागरिन को इस सोवियत (रूसी) प्रचार का ध्वजधारी बनना पड़ा।

उनका जन्म 9 मार्च 1934 को एक साधारण परिवार में हुआ था। पिता राजगीर थे, माँ एक सामूहिक कृषि फ़ार्म में खेती-किसानी करती थीं। अपने माता-पिता की चार संतानों में यूरी तीसरे थे। उनका परिवार पश्चिमी रूस में क्लूशीनो नाम के जिस गाँव में रहता था, वह आज के बेलारूस की सीमा के बहुत पास है। निपट देहाती वातावरण में पला यह युवक धरती से परे अंतरिक्ष की कौन कहे, कभी मॉस्को भी पहुँच पाएगा, यह भी कोई सोच नहीं सकता था। उसके भाग्य में तो राजगीर या किसान बनना ही लिखा होना चाहिए था।

मैं भी विमान चालक बनूँगा
लेकिन, वह न केवल मॉस्को ही पहुँचा, सोवियत वायुसेना का एक कुशल विमान-चालक और विश्व का पहला अंतरिक्ष यात्री भी बना। हुआ यह कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यूरी गागरिन के गाँव क्लूशीनो पर हिटलर की जर्मन सेना का कब्जा हो गया। जर्मन सैनिकों को वहाँ से खदेड़ बाहर करने के लिए सोवियत लाल सेना के विमान उन पर बम बरसाने लगे। ऐसी ही एक बम-वर्षा के समय यूरी गागरिन ने एक दिन एक रोमांचक दृश्य देखा।

एक सोवियत युद्धक विमान-चालक उनके गाँव के पास के दलदल में गिर कर फँस गए एक साथी विमान-चालक को उठाने के लिए वहाँ इस सफाई के साथ उतरा कि दलदल में स्वयं फँसे बिना उस साथी को निकाल कर फिर उड़ चला। बालक गागरिन ने अपने मन में उसी समय ठान ली कि 'मैं भी विमान चालक बनूँगा।'

लेकिन, विमान उड़ाने से पहले यूरी गागरिन को ढलाईगिरी (कास्टिंग) सीखनी पड़ी। 1955 में सारातोव शहर में में उन्होंने कास्टिंग तकनीक का डिप्लोमा प्राप्त किया और साथ ही वहाँ के फ्लाइंग क्लब में भर्ती हो कर विमान चलाना भी सीखने लगे। बाद में सोवियत सेना में भर्ती हो गए और समय के साथ युद्धक विमान चलाने का इतना ढेर सारा अनुभव प्रप्त कर लिया कि लोग उनकी वाहवाही करने लगे। उन्हें बहुत ही शांतचित्त, संयमित और सुरक्षित विमान-चालक माना जाने लगा।

अंतरिक्ष में पहले पहुँचने की होड़
गागरिन जिस समय विमान उड़ाने में नाम कमा रहे थे, उन्हीं दिनो सोवियत संघ अंतरिक्ष की तरफ हाथ बढ़ाने में अमेरिका के साथ होड़ कर रहा था। चार अक्टूबर 1957 को उसने 'स्पुत्निक 1' नामक मानव निर्मित पहला कृत्रिम उपग्रह अंतरिक्ष में भेज कर अमेरिका से बाजी मार ली थी। 'स्पुत्निक 1' 58 सेंटीमीटर व्यास वाली किसी बड़ी-सी गेद के समान गोलाकार और 83.6 किलो भारी था। उसमें केवल एक तापमापी (थर्मामीटर) और एक छोटा-सा शॉर्ट वेव रेडियो ट्रांसमीटर रखा हुआ था।

यह ट्रांसमीटर 21 दिनों तक पृथ्वी पर 'बीप-बीप' की आवाज वाला रेडियो संकेत भेजता रहा, ताकि दुनिया को विश्वास हो जाए कि सोवियत संघ ने सचमुच अंतरिक्ष में पैर रख दिया है। 'स्पुत्निक 1' हर 96 मिनटों पर पृथ्वी की एक परिक्रमा पूरी करता था। लेकिन, हर परिक्रमा के साथ अपनी ऊँचाई खोते-खोते 92 दिन बाद वह वायुमंडल की घनी परतों में हवा के साथ रगड़ खाते हुए जल कर भस्म हो गया।

दूसरा धमाका
एक ही महीने बाद, तीन नवंबर 1957 को सोवियत संघ ने दूसरा धमाका किया। 'स्पुत्निक 2' से लाइका नाम की एक कुतिया के रूप में पहली बार किसी जीवित प्राणी को अंतरिक्ष में भेजा और पहली बार स्पुत्निक में लगे टेलीविजन कैमरे की सहायता से उसके सजीव (लाइव) चित्र दिखाए। पर, लाइका जीवित नहीं लौट सकी। प्रक्षेपण के कुछ ही घंटो के भीतर 'स्पुत्निक 2' के अंदर तापमान इतना बढ़ गया कि लाइका ने तड़पते हुए दम तोड़ दिया।

उस समय, शुरू-शुरू में इस बात को छिपाया गया कि लाइका को 10 दिनों तक जिंदा रहना था, ताकि उसकी शारीरिक क्रियाओं के बारे में पर्याप्त आँकड़े इत्यादि जुटाऐ जा सकते। उसे जीवित वापस लाने की तकनीकी क्षमता तब तक विकसित नहीं हो सकी थी, इसलिए मूल योजना यह थी कि 10 दिन बाद उसे जहर खिला कर मौत की नींद सुला दिया जाता।

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रहस्य का पर्दा
इस बात को भी छिपाया गया कि जिसे बाद में 'स्पुत्निक 3' नाम दिया गया, वास्तव में उसी को 'स्पुत्निक 1' बनना था और सबसे पहले अंतिरक्ष में जाना था। 'स्पुत्निक 3' पहले तो समय पर बन कर तैयार नहीं हो पाया, और दूसरे, इतना भारी हो गया था कि उस की जगह कहीं हल्के 'स्पुत्निक 1' को भेजने का निर्णय करना पड़ा। इसके बावजूद, तीन फरवरी 1958 को 'स्पुत्निक 3' का प्रक्षेपण विफल सिद्ध हुआ। तब 15 मई 1957 को एक नये उपग्रह को 'स्पुत्निक 3' के नाम से अंतरिक्ष में भेजा गया। उसका प्रक्षेपण तो सफल रहा, पर वैज्ञानिक प्रयोगों आदि के लिए उसके साथ जो उपकरण भेजे गए थे, डेटा टेपरेकॉर्डर में खराबी आ जाने के कारण उनकी बहुत सारी सूचनाएँ धरती पर नहीं पहुँच सकीं।

अगस्त 1960 में स्त्रेल्का और बेल्का नाम की दो कुतियाओं को 'स्पुत्निक 5' से अंतरिक्ष में भेजने और जीवित वापस लाने में सफल रहने के बाद सोवियत वैज्ञानिकों को लगा कि अब मनुष्य को अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी करने का समय आ गया है।

यूरी गागरिन को अंतरिक्ष में भेजने से पहले सोवियत संघ ने कुल 10 'स्पुत्निक' प्रक्षेपित किए। 15 मई 1960 को भेजा गाया 'स्पुत्निक 4' बाद में 'वोस्तोक' कहलाने वाले उन अंतरिक्ष यानों का पहला संस्करण था, जिनका समानव अंतरिक्ष यात्राओं के लिए उपयोग किया गया।

समानव अंतरिक्ष यात्रा की तैयारी
19 अगस्त 1960 को भेजे गए 'स्पुत्निक 5' में बेल्का और स्त्रेल्का नाम की दो कुतियाओं के साथ-साथ 42 चूहे-चूहियों, कुछ मक्खियों और पौधों को भी अंतरिक्ष मे भेजा और 18 परिक्रमाओं के बाद अगले दिन पृथ्वी पर उतार लिया गया। स्त्रेल्का ने बाद में 6 पिल्लों को जन्म दिया, जिन में से एक को तत्कालीन सोवियत प्रधानमंत्री निकिता ख्रुश्चोव ने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी की पुत्री कैरोलाइन को भेंट कर दिया।

यूरी गागरिन की उड़ान से तीन सप्ताह पूर्व, 25 मार्च 1961 को, 'स्पुत्निक 10' के साथ, जो वास्तव में अंतरिक्ष यान वोस्तोक का पाँचवाँ प्रोटोटाइप था, सोवियत संघ ने अंतिम बार किसी कुत्ते को अंतरिक्ष में भेजा। कुत्ते स्वेसदोच्का के साथ 'इवान इवानोविच' नाम का मनुष्य की हूबहू नकल वाला एक पुतला भी था। दोनो को पृथ्वी की एक परिक्रमा के बाद सकुशल वापस उतार लिया गया। यह प्रयोग इस बात को सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि अगली बार जब पहले मनुष्य को अंतरिक्ष में भेजा जाए, तो वह सचमुच सकुशल वापस लौटे।

'हमें तुरंत समानव अंतरिक्ष यात्रा चाहिए'
सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता और प्रधानमंत्री निकिता ख्रुश्चोव अधीर हो रहे थे कि 'हमें तुरंत समानव अंतरिक्ष यात्रा चाहिए। सेर्गेई कोरोल्योव उस समय सोवियत रॉकेटों और अंतरिक्ष यानों के मुख्य रचनाकार थे। उन्होंने 'वोस्तोक 1' नाम वाले एक ऐसे अंतरिक्ष वाहन का निर्माण किया, जो मूल रूप में दो हिस्सों का बना था। एक था अंतरिक्षयात्री के लिए यात्रीकक्ष (कैप्सूल) और दूसरा था यान को पृथ्वी की परिक्रमा कक्षा में स्थापित करने और बाद में वहाँ से वापस लाने वाले चरणों के लिए इंजन प्रणाली।

'वोस्तोक 1' के गेंद के आकार के यात्री कक्ष का व्यास 2.30 मीटर था। उसमें कुल 6 घनमीटर के बराबर जगह थी और वजन था 4.73 टन। उसकी विभिन्न कार्यप्रणालियों को बिजली के 56 मोटर चलाते और नियंत्रित करते थे।

विफलता के झटके
मुख्य प्रश्न यह था कि क्या सभी मशीनें और उपकरण अचूक ढंग से काम करेंगे और उनके बीच वह तालमेल बना रहेगा, जो होना अनिवार्य है? संदेह के कई कारण थे। दिसंबर 1960 में 'स्पुत्निक 6' से जिन दो कुतियों को अंतरिक्ष में भेजा गया था, उनका कैप्सूल पृथ्वी पर वापसी के समय इतने कम झुकाव वाले कोण पर लौट रहा था कि वायुमंडल की घनी परतों में हवा के साथ घर्षण के समय जल कर नष्ट हो गया। दोनो कुतियाँ मारी गयीं।

कुछ ही सप्ताह पहले, अक्टूबर 1960 में, सोवियत अंतरिक्ष अड्डे बाइकोनूर पर, जो कजाकिस्तान में पड़ता है, एक अंतरमहाद्वीपीय रॉकेट में ठीक उड़ान भरते समय भयंकर विस्फोट हो गया, जिसने 126 प्राणों की बलि ली। इस दुर्घटना को उस समय इस तरह दबा दिया गया कि उसका पता सोवियत संघ के विघटन के बाद 1990 वाले दशक में ही लग पाया।

प्रश्न यह भी था कि समानव अंतरिक्षयान और उसका यात्रीकक्ष क्या किसी उल्का से टकराने पर भी सुरक्षित रह पाएँगे? कोई आदमी उस समय अपने शरीर पर गुरुत्वाकर्षण बल के बहुत तेज़ी से बढ़ते हुए उस प्रचंड दबाव को क्या वाकई झेल पाएगा, जो अंतरिक्षयान को ले जा रहे रॉकेट की गति बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है? यह दबाव इतना बढ़ जाता है कि किसी-किसी की हृदयगति रुक सकती है या कुछ समय के लिए बेहोशी आ सकती है।

नियम यह है कि किसी चीज को पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल से मुक्ति दिलाने और भारहीनता की अवस्था में पहुँचाने कि लिए जरूरी है कि वह कम से कम 11.2 किलोमीटर प्रतिसेकंड की गति प्राप्त करे। इस गति तक पहुँचने से पहले की स्थिति बहुत कष्टदायक होती है।

प्रश्न अनेक, उत्तर एक
सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रिय समिति ने इन प्रश्नों को दरकिनार करते हुए तय किया था कि 10 से 20 अप्रैल 1960 के बीच आदमी को अंतरिक्ष में भेजना ही है। उस साल तो नहीं, पर ठीक एक साल बाद सोवियत वैज्ञानिकों ने पार्टी के आदेश को पूरा कर ही दिखाया।

मार्च 1960 में सोवियत वायुसेना के 20 सबसे सुयोग्य विमान चालकों को मिला कर भावी अंतरिक्षयात्रियों की पहली टीम बनाई गयी। उनके स्वास्थ्य, कौशल, मनोबल और विवेकबुद्धि की कठिन परीक्षाएँ ली गईं। एक नाम, जो इन अग्निपरीक्षाओं में सबसे अधिक निखरा, वह था यूरी गागरिन का। 8 अप्रैल 1961 को एक सरकारी आयोग ने एकमत से तय किया कि यूरी गागरिन ही सोवियत संघ और संसार के प्रथम अंतरिक्ष यात्री बनेंगे। पर, यह सारी बातें गुप्त रखी गईं।

उड़ान अंतिम क्षण तक गोपनीय
तय यह भी हुआ और अंतिम क्षण तक गोपनीय रखा गया कि 12 अप्रैल 1961 को मॉस्को के समय के अनुसार पूर्वाह्न नौ बज कर सात मिनट पर ( भारतीय समय 11 बज कर 37 मिनट पर) यूरी गागरिन 'वोस्तोक 1' में बैठ कर कजाकिस्तान में स्थित सोवियत अंतरिक्ष अड्डे बाइकोनूर से अंतरिक्ष के लिए रवाना होंगे।

गागारिन को प्रक्षेपण-समय से ढाई घंटे पहले ही अपना भारी अंतरिक्ष सूट (ओवर ऑल) पहन कर यान के यात्रीकक्ष (कैप्सूल) में बैठ जाना पड़ा, बल्कि लेट जाना पड़ा। कोई एक घंटे बाद कैप्सूल का दरवाज़ा बंद करने का जब समय आया, तो पता चला कि वह तो 'ठीक से बंद ही नहीं हो रहा है।'

'अब चलते हैं'
तीन तकनीशियनों ने दरवाज़े के सभी 30 सुरक्षा स्क्रू खोले और उन्हें फिर से लगाया। अंततः नौ बज कर सात मिनट पर जब वाहक रॉकेट प्रक्षेपण मंच से उठा, तो गागरिन ने कहा, 'अब चलते हैं।'

नौ बज कर 11 मिनट पर उड़ान नियंत्रण कक्ष से उन्होंने कहा, 'एक असह्य ताक़त मुझे मेरी सीट पर दबाए जा रही है। हर पल कई- कई मिनटों के बराबर लग रहा है।' उड़ान शुरू होने के दस मिनट बाद उनके शब्द थे, 'भारहीनता की अनुभूति काफी अच्छी लग रही है।' यानी उनका अंतरिक्षयान उड़ान शुरू होने के 10 मिनट बाद पृथ्वी की परिक्रमा कक्षा में पहुँच गया था।

पृथ्वी की केवल एक परिक्रमा के बाद नौ बज कर 57 मिनट पर पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार गागरिन के कैप्सूल को पृथ्वी पर लौटने का आदेश दिया गया। सारी उड़ान स्वचालित थी। वापसी को याद करते हुए गागरिन ने बाद में बताया, 'यान का बाहरी तापरक्षा- कवच बहुत तेज़ी से तपने लगा था। बुलआई (झरोखे) से मैं उन धधकती हुई लपटों की लालिमा देख सकता था, जो यान को घेरे हुए थीं। लेकिन मेरे यात्रीकक्ष में तापमान केवल 20 डिग्री सेल्सियस ही था।'

अंतिम चरण में आफत आई
पृथ्वी पर उतरने के अंतिम चरण में वोस्तोक यान का वह हिस्सा अवतरण हिस्से से अलग नहीं हो रहा था, जिसे अपने आप अलग हो जाना चाहिए था। यान किसी लट्टू की तरह अपनी ही धुरी पर तेजी से घूमने लगा। सबकी सासें थम गईं। कलेजा मुँह को आने लगा। नौ मिनट तक यही हाल रहा। तब, जिस तरह संकट के समय युद्धक विमानों के चालक अपनी सीट को हवा में उछाल कर पैराशूट के सहारे नीचे आते हैं, उसी तरह गागरिन ने भी कोई सात किलोमीटर की ऊँचाई पर अपनी सीट को उछाल कर उसे अवतरण कैप्सूल से अलग किया और उड़ान शुरू होने के 108 मिनट बाद, 10 बज कर 55 मिनट पर, एक खेत में अपने पैर जमीन पर रखे।

पूरा संसार अचंभित था। पर, खुश भी कि गागरिन सकुशल थे और मनुष्य ने प्रकृति की वह सीमा भी लाँघ ली थी, जिसके बाद सब कुछ भारहीन हो जाता है।

विधि की दारुण विडंबना
लेकिन, विधि की भी क्या विडंबना है कि जो धीर-गंभीर-वीर पुरुष मानव-इतिहास में पहली बार अंतरिक्ष की चुनौतियों को झेल जाता है, सात किलोमीटर की ऊँचाई पर जान हथेली पर लेते हुए अपने कैप्सूल से बाहर निकल आता है और पैराशूट के सहारे जमीन पर सुरक्षित उतर जाता है, वही वीर पुरुष इस अपूर्व चमत्कार के केवल सात साल बाद एक सैनिक जेट विमान को चलाते हुए दुर्घटना का शिकार हो जाता है।

27 मार्च 1968 वह दिन था, जब अंतरिक्षवीर यूरी गागारिन एक मिग-15 विमान के साथ अभ्यास-उड़ान के दौरान मॉस्को के पास दुर्घटना का शिकार हो गए। विमान में उनके साथ थे पाइलट ट्रेनिंग सेंटर के बहुत ही अनुभवी कमांडर व्लादीमीर सेर्योगिन।

जाँच रिपोर्ट गोपनीयता की तिजोरी में
सरकारी जाँच आयोग ने दुर्घटना के बारे में 30 पृष्ठों की जो रिपोर्ट तैयार की, उसे गोपनीय रखते हुए कभी प्रकाशित नहीं किया गया। इसीलिए सही कारण आज तक अटकलों का विषय बना हुआ है। हालाँकि, एक विशेषज्ञ मंडल ने गत मार्च महीने के अंत में दावा किया कि एक बैलून (गुब्बारे) से टकराने से बचने के लिए गागरिन के विमान ने इस तेज़ी से अपनी दिशाएँ बदली कि विमान अपना संतुलन शायद खो बैठा।

वैसे, सच यह भी है कि उन दिनों मिग विमानों में फ्लाइट रेकॉर्डर (उड़ानलेखी यंत्र) नहीं होता था, इसलिए कोई इसे सिद्ध नहीं कर सकता कि गागरिन के विमान की दुर्घटना का असली कारण क्या था।

मात्र 34 साल की अल्प आयु में ही यूरी गागरिन की विपुल उपलब्धियों को देखते हुए हर कोई यही कहेगा कि वे सौभाग्य और विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। लेकिन, उनका जैसा दारुण अंत हुआ और अंत का असली कारण आज तक जिस ढंग से अज्ञात है, उसे देखते हुए शक होने लगता है कि जिसे हम ईश्वरीय अनुकंपा समझते हैं, वह कहीं अभिशाप तो नहीं था।

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