वर्ष 2011- कई नए ग्रह मिले और मिली प्रकाश को चुनौती
, शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011 (17:28 IST)
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विज्ञान जगत के लिए बहुत ही रोमांचक वर्ष रहा। सौरमंडल से बाहर ब्रह्मांड के गर्भ में कई नए ग्रहों की खोज हुई। पृथ्वी से मिलते-जुलते दो नए ग्रहों का पता चला। जबकि सारे ब्रह्मांड में सबसे अधिक गतिवान प्रकाश को पृथ्वी पर पहली बार चुनौती मिलती दिखी। वैज्ञानिक 'ब्रह्मकण' कहलाने वाले हिग्स-बोसोन के रहस्य पर से पर्दा उठाने के जहाँ कुछ और निकट पहुँचे, वहीं 'ब्रह्म' ने पुनः उन्हें चेतावनी दि कि मेरी परमाणु शक्ति के साथ छेड़-छाड़ मत करो। कह सकते हैं कि 2011 खगोल विज्ञान का वर्ष रहा। उसका आरंभ भी खगोल विज्ञान की खोजों के साथ हुआ और अंत भी। अमेरिकी अंतरिक्ष अधिकरण नासा ने जनवरी के दूसरे सप्ताह में बताया कि उसके अंतरिक्ष दूरदर्शी केप्लर ने हमारे सौरमंडल से बाहर पृथ्वी के समान ही ठोस चट्टानी सतह वाला एक ग्रह ढूंढ निकाला है। इससे पहले केप्लर ने जितने भी बाह्यग्रह खोजे थे, वे ठोस चट्टानी सतह वाले नहीं थे।नए ग्रह को नाम दिया गया 'केप्लर 10 बी'। वह आकार में पृथ्वी से तो केवल 1.4 गुना ही बड़ा है, पर उसका द्रव्यमान (मास) पृथ्वी से 4. 6 गुना अधिक होने के कारण वहाँ हर चीज़ पृथ्वी की अपेक्षा 4.6 गुना अधिक भारी होगी। तापमान भी इतना ज्यादा है कि वहाँ किसी प्रकार के जीव-जंतु होने की संभावना नहीं के बरार है। दिन में इस ग्रह का तापमान 1371 डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा हो जाता है। इस तापमान पर तो लोहा भी पिघल जाता है, जीवधारियों के डीएनए और आरएनए तो बच ही नहीं सकते।'
केप्लर 10 बी' 0.84 दिन में अपनी सौर परिक्रमा पूरी कर लेता है। हमारे सूर्य से बुधग्रह की दूरी की तुलना में वह अपने तारे 'केप्लर10' से 24 गुना ज्यादा करीब है। केप्लर परियोजना से जुड़े नासा के वैज्ञानिकों का मत था कि इस ग्रह पर जीवन की संभावना नहीं होने के बावजूद उसकी खोज एक बड़ी सफलता है। इस खोज से सामने आई जानकारियों से यह साबित होता है कि आने वाले समय में कुछ और बड़ी सफलताएँ हाथ लग सकती हैं।तीन तारों का तीन ताल नृत्य : जनवरी के ही मध्य में अमेरिकी खगोलविदों के सिएटल में हुए सम्मेलन में बताया गया कि केप्लर ने पहली बार यह भी पता लगाया है कि ग्रह ही किसी तारे की परिक्रमा नहीं करते, तारे भी किसी दूसरे तारे की परिक्रमा करते हैं।केप्लर ने तीन हजार प्रकाशवर्ष की दूरी पर तीन ऐसे तारे ढूँढ निकाले हैं, जिन में से दो किसी प्रेमी युगल की तरह एक- दूसरे के, और दोनों मिल कर एक तीसरे तारे के चारों ओर घूम रहे हैं। दोनों छोटे तारे दो दिन से भी कम समय में एक-दूसरे की एक परिक्रमा पूरी कर लेते हैं, जबकि दोनो मिल कर क़रीब एक महीने में अपने से कहीं बड़े तारे का एक चक्कर लगाते हैं। हिसाब लगाया गया है कि दोनो छोटे तारों में से हरएक की द्रव्यराशि (मास) हमारे सूर्य की द्रव्यराशि के केवल एक-चौथाई के बराबर है, जबकि बड़े तारे की द्रव्यराशि हमारे सूर्य के छह गुने के बराबर है।छह ग्रहों वाला सौरमंडल : फरवरी के पहले सप्ताह में पता चला कि डेढ़ वर्षों से पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे केप्लर दूरदर्शी ने स्वॉन (हंस) नक्षत्र में छह ग्रहों वाले एक नए सौरमंडल को खोज निकाला है। उसे 'केप्लर 11' नाम दिया गया। इससे पहले भी तीन ग्रहों वाला एक छोटा सौरमंडल मिला था, जिसे 'केप्लर 9' नाम दिया गया था। नासा ने बताया कि हमारी पृथ्वी से दो हज़ार प्रकाशवर्ष दूर की इस ग्रहप्रणाली के सभी ग्रह जिस तारे के चारो ओर घूम रह हैं, वह हमारे सौरमंडल वाले सूर्य से काफ़ी मिलता-जुलता है।दो हजार प्रकाशवर्ष का मतलब है कि 'केप्लर 11' से इस समय जो प्रकाश हमारे पास पहुँच रहा है, वह लगभग उस समय वहाँ से चला था, जब ईसा मसीह का जन्म हुआ था और ईस्वी सन की नींव पड़ी थी। नासा के वैज्ञानिकों ने बताया कि इस ग्रहप्रणाली के पाँच भीतरी ग्रह जिस दूरी पर से अपने तारे की परिक्रमा कर रहे हैं, वह हमारे बुध ग्रह और सूर्य के बीच की दूरी से भी कम है।पाँचो ग्रह एक-दूसरे के बहुत नजदीक हैं। इन वैज्ञानिकों ने कभी कल्पना तक नहीं की थी कि ऐसा भी संभव है कि इतने सारे ग्रह एक-दूसरे के इतना नज़दीक रहते हुए भी अपने सूर्य के फेरे लगा सकते हैं। उन के परिक्रमापथ एक-दूसरे के इतना पास-पास हैं, कि वे अपने गुरुत्वाकर्षणबल से एक-दूसरे को धकिया-मुकिया भी सकते हैं।'
केप्लर11' के ग्रह हमारे सौरमंडल के बृहस्पति (गुरु/ज्यूपिटर) जितने बड़े तो नहीं हैं, पर बहुत छोटे भी नहीं हैं। हमारी पृथ्वी के व्यास की तुलना में सबसे छोटे ग्रह का व्यास दुगुना और सबसे बड़े ग्रह का चौगुना बड़ा है। क्योंकि सभी ग्रह अपने सूर्य के बहुत निकट हैं, इसलिए वे इतने गरम होंगे कि वहाँ किसी प्रकार का जीवन संभव नहीं होना चाहिए। केप्लर ने अब तक 1200 से अधिक ऐसे आकाशीय पिंडों का सुराग दिया है, वैज्ञानिक जिन में से 80 प्रतिशत के ग्रह होने का अनुमान लगा रहे हैं। उन के बीच के 68 ग्रह हमारी पृथ्वी से काफी मिलते-जुलते हो सकते हैं। हो सकता है, वहाँ किसी प्रकार का जीवन भी हो।वैज्ञानिक एक ओर, दूर अंतरिक्ष में जीवन-योग्य कोई हरी-भरी धरती खोज निकालने का सब्जबाग देख हैं, तो वहीं, दूसरी ओर, हमारी इस हरी-भरी वसुंधरा के लिए विज्ञान की ही कुछ देनें, जिन्हें हम कल तक वरदान समझ रहे थे, अब अभिशाप सिद्ध हो रही हैं। फुकूशिमा परमाणु दुर्घटना : 11 मार्च को, स्थानीय समय के अनुसार दिन में पौने तीन बजे, जापान में एक ऐसा ज़ोरदार भूकंप आया, जो देखते ही देखते एक प्राकृतिक आपदा के साथ ही विज्ञानजनित परमाणु विभीषिका भी बनता लगा। इस महाशक्तिशाली भूकंप का झटका जब 23 सेकंड बाद भूकंप के केंद्र से 163 किलेमीटर दूर फुकूशिमा परमाणु बिजलीघर तक पहुँचा, तो बिजलीघर की बिजली पहले ही गुल हो गई। दो मिनट तक चले झटकों से बिजलीघर के 6 में से 3 रिएक्टर तुरंत क्षतिग्रस्त हो कर नियंत्रण से बाहर हो गए।कोई पौन घंटे बाद समुद्र से आई 13 से 15 मीटर ऊँची त्सुनामी लहर ने बची-खुची कसर भी पूरी करदी। सभी रिएक्टरों में एक से पाँच मीटर तक पानी भर गया। 12 में से 11 आपातकालीन बिजली जनरेटर पानी में डूब गए। रिएक्टरों को ठंडा रखने वाली प्रणाली ठप्प पड़ जाने से उन के तप कर पिघलने की नौबत आ गई। सारी दुनिया में हड़कंप : गनीमत रही कि उस दिन 6 में से केवल 3 ही रिएक्टर चालू थे। पर, क्योंकि उन्हें समय रहते बंद नहीं किया जा सका, और बंद रहने पर भी उन में कुछ न कुछ परमाणु विखंडन चलता रहता है, इसलिए अगले तीन दिनों में बिजलीघर के 4 रिक्टरों में कई धमाके हुए। उनसे काफी बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी तत्व हवा में फैले। सारी दुनिया में हड़कंप मच गया।कोई नहीं जानता था कि फुकूशिमा के क्षतिग्रस्त रिएक्टरों के भीतर क्या हो रहा है? कब कोई रिएक्टर अपने भीतर की गर्मी से पिघल जाएगा या उस में नया धामका होगा? रेडयोधर्मी विकिरण के बादल कहाँ-कहाँ पहुँचेंगे? बिजलीघर के 20 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले 80 हजार लोगों को उन के घरों से हटाना पड़ा। दिसंबर के मध्य में जापान सरकार ने कहा कि नौ महीने बाद अब वे पुनः अपने घरों में लौट सकते हैं। रेडियोधर्मी परमाणु विकरण एक ऐसा हत्यारा है, जो न दिखाई पड़ता है, न सुनाई पड़ता है। न उसका कोई स्वाद है और न कोई गंध। बंद कर देने पर भी रिएक्टर तुरंत ठंडा नहीं हो जाता। अधिकतम क्षमता के 5 से 10 प्रतिशत के बराबर बिजली पैदा होती रहती है। यहाँ तक कि पूरी तरह चुक गई ईंधन- छड़ों से भी करीब उतना ही रेडियोधर्मी विकिरण निकलता रहता है, जितना विशुद्ध रेडियम से निकलता है। जिन छड़ों का परमाणु ईंधन अभी-अभी चुक गया है, उनके भीतर अब भी इतना विखंडनीय पदार्थ हो सकता है कि उनसे न केवल अच्छा-खासा विकिरण ही पैदा हो रहा हो, यह विकिरण इतना बढ़ भी सकता है कि रिएक्टर बंद होते हुए भी पिघलने लगे। रेडियोधर्मिता खतरनाक बनी : जापानी सरकार के अनुसार, 15 मार्च को फुकूशीमा बिजलीघर के पास 400 मिलीसीवर्ट प्रतिघंटे रेडियोधर्मिता मापी गई। यह मात्रा उस मात्रा के 20 गुने के बराबर है, जो परमाणु संयंत्रों में काम करने वाले किसी कर्मचारी के लिए पूरे वर्ष की स्वीक़ृत मात्रा है। उदाहरण के लिए, छाती का एक्स-रे लेते समय हमारे शरीर को 0.02 मिलीसीवर्ट और दाँतों के एक्स-रे के समय 0.01 मिलीसीवर्ट विकिरण झेलना पड़ता है।100
मिलीसीवर्ट कैंसर के रूप में शरीर के लिए खतरा शुरू होने की सीमा है। जापानी सरकार ने ऐसा कुछ नहीं बताया कि फुकूशिमा की परमाणु दुर्घटना से कितने लोग विकिरण का शिकार बने, मरे या बीमार पड़े। लेकिन, इतना तय है कि समय के साथ उन लोगों की संख्या जरूर तेजी से बढ़ेगी, जो विकिरण के विलंबित प्रभाव के कारण कैंसर से पीड़ित होंगे।यूक्रेन में हुई चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना की 25 वीं वर्षगाँठ से डेढ़ ही महीने पहले जापान के फुकूशिमा में भी एक बड़ी परमाणु दुर्घटना हमारे लिए शायद इस बात की पुनः दैवीय चेतावनी थी कि अपना स्वास्थ्य और जीवन प्यारा है, तो अब भी चेत जाओ, परमाणु ऊर्जा से दूर रहो। जर्मनी और ऑस्ट्रिया जैसे कुछ देशों ने यही किया। उन्होंने परामाणु ऊर्जा को सदा के लिए त्याग देने का फैसला कर लिया।
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साल बाद बुध की सुध आई : फुकूशिमा परमाणु दुर्घटना की गहमागहमी के ही दिनों में अंतरिक्ष की अपार गहराइयों में 7 अरब 90 करोड़ किलोमीटर चलने के बाद अमेरिकी अन्वेषणयान मेसेन्जर 18 मार्च से बुध ग्रह (मर्क्यूरी) की परिक्रमा कर रहा है। सौरमंडल में बुध ही सूर्य का सबसे निटवर्ती, मान्यता प्राप्त 8 ग्रहों में सबसे छोटा और हमारे लिए अब तक सबसे अनजान ग्रह कहलाता है। पैंतीस साल बाद पृथ्वी-वासियों को एक बार फिर बुध की सुध आई है। मेसेंजर तीन अगस्त 2004 को अपनी यात्रा पर चला था। वह कम से कम मार्च 2012 तक बुध ग्रह से 200 से 15 000 किलोमीटर दूर रहते हुए अंडाकार कक्षा में उसके चक्कर लगायेगा। वैज्ञानिकों को उससे पहली बार बुध ग्रह की संपूर्ण ऊपरी सतह का नक्शा बनाने लायक चित्र मिल रहे हैं। उसमें रखे सात अलग-अलग उपकरणों और कैमरों ने बुध की भूपटलीय और भूगर्भीय संरचना, उसकी उत्पत्ति के इतिहास, वायुमंडल की बनावट, खनिज पदार्थों, उसके चुंबकीय क्षेत्र और सौर-आँधियों के उस पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में ढेर सारे आँकड़े इत्यादि भेजें हैं और आब भी भेज रहे हैं।रहस्यमय अजीब ग्रह : काफी रहस्यमय और अजीब ग्रह है बुध। इतना छोटा है कि पृथ्वी पर से रात को तो दिखता नहीं और दिन में भी सूर्य की चमक के आगे नदारद रहता है। केवल कभी-कभार सुबह या शाम के झुटपुटे में उसकी हल्की-सी झलक मिल जाती है। उसका 4878 किलोमिटर व्यास पृथ्वी के व्यास के केवल 40 प्रतिशत के बराबर है। सूर्य से उसकी औसत दूरी 5 करोड़ 80 लाख किलोमीटर है, हालाँकि अपनी दीर्घ अंडाकार कक्षा में सूर्य की परिक्रमा करते हुए वह उससे कभी 6करोड़ 98 लाख किलोमीटर दूर तक चला जाता है, तो कभी 4 करोड़ 60 लाख किलोमीटर तक पास भी आ जाता है। पृथ्वी की अपेक्षा बुध सूर्य से तीन गुना निकट है।मेसेन्जर के चित्रों व आँकड़ों से पता चलता है कि बुध की ऊपरी सतह चन्द्रमा की ही तरह क्रेटरों (गड्ढों) और लावा की बनी कई- कई किलोमीटर मोटी परतों से भरी पड़ी है। वहाँ सैकड़ों किलोमीटर लंबी और तीन- तीन किलोमीटर ऊँची दीवारों जैसे सीधे उठते पहाड़ हैं। साथ ही ऊपरी सतह की रासायनिक संरचना पृथ्वी या मंगल जैसे सौरमंडल के उन ग्रहों से अलग है, जो ठोस और चट्टानी हैं। बुध का चुंबकीयक्षेत्र भी पृथ्वी की अपेक्षा न केवल दुर्बल है, बहुत असंतुलित भी है।चित्रों में वैज्ञानिकों ने पहली बार ऐसे ढेरों गड्ढे देखे, जो ऐसे हैं, मानो किसी ने उन्हें काट और तराश कर बनाया हो। ये गड्ढे या धँसाव कई सौ मीटर से लेकर कई-कई किलोमीटर तक बड़े हैं और अक्सर सूर्यप्रकाश को परावर्तित करने वाली किसी चमकीली सामग्री से घिरे हुए हैं। वैज्ञानिक अभी तक बूझ नहीं पाए हैं कि यह क्या समग्री है और उस के होने का मतलब क्या है। उनका अनुमान है कि यह चीज़ बुध के भीतर से उस के धरातल पर बह कर जमा होने वाली कोई चीज होनी चाहिये।तापमान में उतार-चढ़ाव सबसे अधिक : बुध ग्रह पर किसी जीवन की संभावना नहीं देखी जाती, क्योंकि वहाँ तापमान में उतार-चढ़ाव सारे सौरमंडल में सबसे अधिक है--अधिकतम 430 डिग्री सेल्ज़ियस और न्यूनतम ऋण 170 डिग्री सेल्ज़ियस। इस भारी उतार-चढ़ाव के पीछे तीन मुख्य कारण माने जाते हैं। एक तो यह कि बुध ग्रह का एक वर्ष पृथ्वी पर के केवल 88 दिनों के बराबर है। इस समय में वह सूर्य से अपनी औसत दूरी की अपेक्षा कभी बहुत पास तो कभी बहुत दूर चला जाता है।इसी अनुपात में उस पर पड़ने वाली धूप और गर्मी घटती या बढ़ती है। साथ ही वह अपने अक्ष (धुरी) पर लंबवत रह कर हर दो सौर परिक्रमाओं के दौरान केवल तीन बार घूमता है। यानी, उसका एक दिन पृथ्वी पर के लगभग 59 दिनों के बराबर है। इस लंबे समय में सूर्य के सामने वाली उसकी ऊपरी सतह भयंकर गरम और सूर्य से विमुख सतह भयंकर ठंडी हो जाती है। तीसरा करण है, उसका बहुत ही विरल वायुमंडल। पृथ्वी पर का घना वायुमंडल तापमान को काफ़ी हद तक संतुलित रखता है।प्रतिपदार्थ को 17 मिनट तक रोके रखा : हमारा शरीर, सारे रासायनिक तत्व (एलिमेंट), सारा ब्रह्मांड और ब्रह्मांड का कण-कण एक ही सूक्ष्म इकाई का बना हुआ है- इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटॉन के मेल से बने परमाणुओं का। परमाणु ही पदार्थ की, द्रव्य की इकाई हैं। वे सारे ब्रह्मांड में आज एक जैसे हैं। तथाकथित प्रतिपदार्थ (प्रतिपरमाणु/एन्टीमैटर या एन्टी ऐटम) अब कहीं नहीं मिलता, हालाँकि समझा जाता है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति के क्षणों में पदार्थ और प्रतिपदार्थ दोनो जरूर रहे होंगे। पदार्थ और प्रतिपदार्थ दर्पण में बने एक-दूसरे के ऐसे प्रतिबिंब के समान हैं, जिस में मूल आकृति का दायाँ पक्ष, प्रतिबिंब में बायाँ पक्ष बन जाता है, दूसरा कुछ नहीं बदलता। लेकिन, पदार्थ और प्रतिपदार्थ का स्वभाव ऐसा है कि वे आमने-सामने आने पर काफी ऊर्जा मुक्त करते हुए एक-दूसरे का तुरंत सफाया कर देते हैं। समझा जाता है कि यही ब्रह्मांड की उत्पत्ति के समय भी हुआ होगा। लेकिन, उस समय पदार्थ की, यानी इस समय के हमारे सुपरिचित परमाणुओं की संख्या, प्रतिपदार्थ वाले परमाणुओं से किंचित अधिक रही होगी, इसलिए प्रतिपरमाणु तो सब के सब साफ़ हो गए, बच रहे केवल आज के सामान्य परमाणु। अत्यंत क्षणभंगुर : प्रतिपदार्थ (प्रतिपरमाणु) एन्टीहाइड्रोजन के परमाणुओं के रूप में केवल गिनी-चुनी प्रयोगशालाओं में ही कृत्रिम रूप से बनाए जाते है और वहाँ भी कुछेक मिली सेकंड में नष्ट हो जाते हैं। स्विट्ज़रलैंड में जेनेवा की सेर्न प्रयोगशाला में भी यही होता रहा है। वर्षों से वहाँ के वैज्ञानिक LHC जैसे अपने मूलकण त्वरकों (पार्टिकल एक्सिलरेटर) में प्रतिपदार्थ के एन्टीप्रोटॉन ( p- ) और पॉज़ीट्रॉन ( e+ ) के मेल से एन्टीहाइड्रोजन के परमाणु पैदा करते रहे हैं, पर उन्हें एक सेकंड के लिए भी इस तरह रोके नहीं रख पाते थे कि वे नष्ट न हो जाएँ।सेर्न का महात्वरक : लेकिन, अप्रैल में वे एन्टीहाइड्रोजन को एक हज़ार सेकंड (लगभग 17 मिनट) का अब तक का सबसे लंबा जीवनकाल देने में सफल रहे। यह समय नवंबर 2010 में उन्हीं के बनाए पिछले रेकॉर्ड 172 मिलीसेकंड की तुलना में 5800 गुना लंबा था। उस समय के केवल 38 एन्टीहाइड्रोजन परमाणुओं की तुलना में इस बार परमाणुओं की संख्या भी कहीं अधिक थी- 309 परमाणु। ये 309 परमाणु एक त्वरक में करोड़ों पॉज़िट्रॉनों और एन्टीप्रटॉनों की टक्कर के बाद बन पाए थे। उन को 17 मिनट के रेकॉर्ड समय तक नष्ट होने से बचाते हुए रोके रखने के लिए ऋण 273.15 डिग्री सेल्सियस के लगभग परमशून्य (ऐब्सल्यूट जीरो) तापमान पर एक सशक्त चुंबकीय क्षेत्र वाले परम निर्वात में इस तरह फँसाए रखना पड़ा था कि वे कहीं किसी सूक्ष्मतक चीज को भी छू न पाएँ। वैज्ञानिक यह देखना चाहते थे कि सामान्य हाइड्रोजन और इस एन्टीहाइड्रोजन के बीच क्या असमानताएँ हैं और यदि उस का बड़े पैमाने पर निर्णाण किया जा सके, तो उसका क्या उपयोग हो सकता है।अप्रैल महीने में ही अमेरिका में न्यूयॉर्क के पास की ब्रुकहैवन नैशनल लैब के वैज्ञानिकों की एक टीम ने दावा किया कि उसने पहली बार स्वर्ण (गोल्ड) नाभिकों के बीच टक्कर द्वारा एन्टीहीलियम के 18 परमाणु पैदा करने में सफलता पाई है। लेकिन, इस दावे को अभी तक औपचारिक मान्यता नहीं मिल पाई है।शटल अध्याय का अंत : 2011 एक ऐसी विदाई का वर्ष भी था, जिस की टीस अंतरिक्षयात्रा के प्रेमीयों के मन को लंबे समय तक दुखाती रहेगी। अमेरिकी शटल यान एटलांटिस के 8 जुलाई को अपनी अंतिम उड़ान पर अंतरिक्ष में जाने और 21 जुलाई को लौटने के साथ ही अमेरिका के अंतरिक्ष अन्वेषण अभियान के एक ऐसे अध्याय का अंत हो गया, जो कुल 135 शटल उड़ानों के साथ 30 वर्षों तक चला था और जिस के बिना अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशनISS का निर्माण संभव नहीं हो पाया होता। शटल यान ऐसे ट्रकों के समान थे, जो इस स्टेशन के निर्माण के लिए ज़रूरी निर्माण सामग्रियाँ ढो-ढो कर अंतरिक्ष में पहुँचाते थे। अब वे संग्रहालयों की शोभा बढ़ायेंगे। कुल छह शटल यान बने थे, हालांकि पहला यान एन्टरप्राइज कभी अंतरिक्ष में नहीं गया। बाफी पाँच में से दो यान फरवरी 1986 और फ़रवरी 2003 में दुर्घटनाग्रस्त हो गए। शेष बचे तीन समय के साथ बूढ़े हो चले थे। उन का रखरखाव बहुत मँहगा पड़ने लगा था। दुर्घटना का ख़तरा बढ़ने लगा था। वे एक महाशक्तिशाली रॉकेट की पीठ पर सवार हो कर अंतरिक्ष में जाते थे और किसी विमान की तरह जमीन पर लौटते थे।बजट में कटौती जैसी जमीनी वास्तविकताएँ अंततः इतनी शक्तिशाली निकलीं कि पूर्वनियोजित 55 के बदले 30 वर्षों में ही उन्हें ज़मीन पर बैठा दिया गया। अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन ISS तक जाने-आने के लिए इस समय अमेरिका के पास अपना कोई विकल्प नहीं है। वह फिलहाल रूसी सोयूज़ यानों पर पूरी तरह निर्भर है। अगस्त में एक मानवरहित रूसी परिवहन यान को ISS की तरफ भेजते समय सोयूज़ रॉकेट के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से इस निर्भरता की दुर्बलता भी सामने आ गई।
डेंगू ज्वर से लड़ेगा बैक्टीरिया : डेंगू ज्वर (डेंगू फीवर) भारत में भी हर साल कुहराम मचाता है। वैश्विक स्तर पर देखें तो गरम जलवायु वाले देशों में हर साल 50 लाख से एक करोड़ लोग इस बीमारी से पीड़ित होते हैं और 20 हज़ार अंततः दम तोड़ बैठते हैं। मलेरिया की ही तरह यह जानलेवा बीमारी भी एक ऐसे मच्छर के काटने से फैलती है, जिसे 'एडेस इजिप्टी' कहते हैं। देंगू ज्वर का वायरस इसी मच्छर के पेट में पलता-बढ़ता है।एडेस इजिप्टी मादा मच्छर : ऑस्ट्रेलिया के दो वैज्ञानिकों ने एक ऐसा बैक्टीरिया खोज निकाला है, जिसे 'एडेस इजिप्टी' के शरीर में पहुँचा कर देंगू ज्वर वाले वायरस के पनपने का रास्ता अवरुद्ध किया जा सकता है। अगस्त में विज्ञान पत्रिका 'नेचर' में उन्होंने लिखा कि इस उपाय को उन्होंने प्रकृति में आजमा कर देखा है और पाया है कि वह आशानुकूल काम करता है। 'वोल्बाकिया' नाम के इस परजीवी बैक्टीरिया का संक्रमण केलव कीट-पतंगों को ही लगता है। वह मच्छरों की कुछ ऐसी प्रजातियों सहित, जिन के काटने पर मनुष्यों को कुछ नहीं होता, क़रीब 70 प्रतिशत कीट-पतंगों में पाया जाता है।बैक्टीरिया ने जगह ली वायरस की : मेलबॉर्न के स्कॉट ओ' नील और एरी होफमान ने सोचा कि यह कोई संयोग मात्र नहीं हो सकता कि जिन मच्छरों में वोल्बाकिया बैक्टीरिया मिलते हैं, उन के काटने पर मनुष्यों का कोई बाल बाँका नहीं होता। उन्होंने पाया कि इस परजीवी बैक्टीरिया को स्वयं अपने फलने-फूलने के लिए इतनी ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होती है कि जिस मच्छर के शरीर में वह हो, उस मच्छर में देंगू वाले वायरस के पलने-पनपने के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। अतः डेंगू फैलाने वाले 'एडेस इजिप्टी' मच्छर को भी यदि वोल्बाकिया बैक्टीरिया का संक्रमण लगाया जा सके, तो डेंगू वाला वायरस उस के शरीर में नहीं पल पाएगा। उन्होंने यही किया। एक अत्यंत महीन सुई वाले इंजेक्शन के जरिये फलों पर भिनभिनाने वाली ड्रोसोफिला मादा मक्खी के शरीर से वोल्बाकिया बैक्टीरिया लेकर उस का 'एडेस इजिप्टी' मादा मच्छर को इंजेक्शन लगाया।इन दोनो वैज्ञानिकों ने पाया कि जिन 'एडेस इजिप्टी' मादा मच्छरों को वोल्बाकिया का संक्रमण लगाया गया था, उन में डेंगू ज्वर के वायरस वाकई नहीं पनप सके। यही नहीं, वोल्बाकिया संक्रमित मादा मच्छरों की प्रजननक्षमता भी बढ़ गई थी और उन की नई संतनें भी डेंगू वाले वायरस के काम की नहीं रहीं। दोनो वैज्ञानिकों ने डेंगू ज्वर से तंग आ चुके ऑस्ट्रेलिया के दो गाँवों में गाँव वालों की सहमति और सकरकारी अधिकारियों की अनुमति से अपनी प्रयोगशाला में विकसित लगभग तीन लाख 'एडेस इजिप्टी' मच्छर दस सप्ताहों के भीतर हवा में छोड़े।उन्होंने पाया थोड़े ही समय में लगभग सभी 'एडेस इजिप्टी' मादाएँ वोल्बाकिया बैक्टीरिया से संक्रमित थीं, यानी उन के काटने से डेंगू ज्वर अब नहीं हो सकता था। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि यही काम यदि बड़े पैमैने पर किया जा सके, तो किसी इलाके के डेंगू ज्वर फैलाने वाले सभी मच्छरों को इस प्राणघातक बीमारी के वायरस से मुक्त किया जा सकता है और जनता को चैन दिलाया जा सकता है। अगली बार वे एशिया और लैटिन अमेरिका में भी यही प्रयोग करना चाहते हैं।ग्रहों की खोज में और गर्मी आई : वर्ष का अंत निकट आने के साथ नए-नए ग्रहों की खोज के समाचारों में और तेज़ी आई। पहला समाचार सितंबर के शुरू में स्विट्ज़रलैंड से आया। जेनेवा विश्वविद्यालय के फ्रांचेस्को पेपे और उनके सहयोगियों ने खगोल विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका 'एस्ट्रॉनॉमी एंड एस्ट्रोफिजक्स' में लिखा कि पृथ्वी से लगभग 36 प्रकाशवर्ष दूर 'HD 85512' नाम का एक तारा है।कई ग्रहों वाला उसका अपना एक ग्रहमंडल है भी है, जिस में 'HD 85512b' नाम का ग्रह जीवन-योग्य परिस्थितियों वाला कहा जा सकता है। उसकी द्रव्यराशि (मास) हमारी पृथ्वी की द्रव्यराशि से 3.6 गुना अधिक जरूर है लेकिन वह अपने सूर्य से जितनी दूरी पर रह कर उसकी परिक्रमा कर रहा है, वह दूरी वहाँ जीवन पनपने के काफ़ी उपयुक्त होनी चाहिये। तरल पानी है जीवन का आधार : यह खोज लैटिन अमेरिकी देश चिली के ला सिल्या में स्थित यूरोपीय दक्षिणी वेधशला ESO के एक दूरदर्शी 'हाई एक्यूरैसी रैडियल वेलॉसिटी प्लैनेट सर्चर' (HPRPS) से की गई है। स्विस वैज्ञानिकों का कहना है कि 'HD 85512b' अपने सूर्य के 'भीतरी आवासीय (हैबिटेबल) दायरे' में पड़ता है। 'भीतरी आवासीय दायरा' किसी ग्रह की अपने सूर्य से उस दूरी को कहा जाता है, जहाँ पानी तरल बने रहना चाहिये न कि सूर्य की गर्मी से भाप बन कर उड़ जाना या भीषण ठंड के कारण बर्फ की तरह पथरा जाना चाहिये। वैज्ञानिक क्योंकि पृथ्वी की ही तरह तरल पानी और पानी को तरल बनाये रखने योग्य तापमान को ही जीवन की उत्पत्ति का मूलाधार मानते हैं, इसलिए फ्रांचेस्को पेपे का भी कहना है कि इस ग्रह पर जीवन हो सकता है।जीवन होने का यह मतलब नहीं है कि वहाँ हमारी पृथ्वी की तरह पेड-पौधे, जानवर और शायद मनुष्यों जैसे प्राणी भी हो सकते हैं। किसी जगह बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म जीवाणुओं का होना भी विज्ञान की दृष्टि से जीवन का अस्तित्व है। पृथ्वी पर का जीवन भी, विज्ञान के अनुसार, करोड़ों-अरबों वर्ष पूर्व सूक्ष्म जीवाणुओं के रूप में ही शुरू हुआ था।मात्र 54 दिनों का वर्षः 'HD 85512b' अपने सूर्य की केवल 54 दिनों में एक परिक्रमा पूरी कर लेता है। यानी उसका एक वर्ष पृथ्वी पर के केवल 54 दिनों के बराबर है। इतने छोटे वर्ष का अर्थ है कि यह ग्रह अपने सूर्य के बहुत निकट रह कर उसकी परिक्रमा कर रहा है। तब भी यदि वहाँ तरल पानी और जीवन का होना संभव है, तो फ्रांचेस्को पेपे के अनुसार, इसीलिए कि उसका सूर्य हमारे सूर्यदेव की अपेक्षा कहीं छोटा और कम गरम है। हमारे सूर्य से पृथ्वी की औसत दूरी करीब 15 करोड़ किलोमीटर है, जबकि अपने सूर्य से 'HD 85512b' की दूसरी इसके केवल एक-चौथाई के बराबर है।लेकिन, कुछ दूसरे वैज्ञानिकों का कहना है कि केवल इतने भर से यह ग्रह 'आवासीय' नहीं बन जाता। एक अन्य लेख में, जिसे जर्मनी में हाइडेलबर्ग के खगोलीय माक्स प्लांक संस्थान की लीजा काल्टेनेगर ने स्विट्जरलैंड के ही एक दूसरे खगोलविद स्तेफान उद्री और पेपे के साथ मिल कर लिखा है, कहा गाया है कि पृथ्वी के वायुमंडल के नमूने पर 'HD 85512b' के वायुमंडल का कंप्यूटर पर अनुकरण (सिम्युलेशन) करने पर पाया गाया कि किसी जीवन की संभावना होने के लिए इस अनोखे ग्रह का अधिक से अधिक औसतन 50 प्रतिशत हिस्सा ही बादलों से ढका होना चाहिये।बादल भी निर्णयक हैं : बादलों का सही अनुपात होने पर ही यह ग्रह इतना प्रकाश अपने आकाश की ओर परावर्तित कर सकेगा कि उस पर का तरल पानी पूरी तरह भाप नहीं बन पाए और वहाँ की सतह पर लगभग उतना ही औसत तापमान रहे, जितना, उदाहरण के लिए, दक्षिणी फ्रांस में पाया जाता है। दूसरी ओर, यदि वहाँ बादलों का विस्तार 50 प्रतिशत वाले औसत से कम हुआ, तो वहाँ का सारा पानी धूप से भाप बन कर उड़ जाएगा। यदि यह औसत 50 प्रतिशत से अधिक हुआ, तो काँचघर-जैसे प्रभाव के कारण यह ग्रह भी हमारे सौरमंडल के शुक्रग्रह की तरह ही इतना तप सकता है कि जीवन की संभवना शून्य हो जाए।अपने लेख में लीज़ा काल्टेनेगर और उनके सहयोगियों ने स्पष्ट किया है कि 'HD 85512b' के लिए उनका यह कंप्यूटर अनुकारण इस मान्यता पर आधारित है कि उसका वायुमंडल भी हमारी पृथ्वी के ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों का ही बना हुआ है। उसके वायुमंडल की संरचना भी पृथ्वी जैसी ही है या नहीं, इसे कोई नहीं जानता। इस प्रश्न का भी उनके पास कोई उत्तर नहीं है कि पृथ्वी से भिन्न वायुमंडल वाले ग्रह भी 'आवासीय' हो सकते हैं या नहीं। लीजा काल्टेनेगर वाले लेख के सहलेखक स्तेपान उद्री ने ही, 24 अप्रैल, 2007 को, चिली स्थित यूरोपीय दक्षिणी वेधशाला के उसी दूरदर्शी से, जिससे अब 'HD 85512b' का पता चला है, 'ग्लीजे (Gliese) 581' नाम के ऐसे ही एक बहुचर्चित ग्रहमंडल की खोज की थी, जिसके कई ग्रहों में से एक को 'आवासीय' होने के अब तक सबसे निकट माना जा रहा था, लेकिन अब ऐसा नहीं सोचा जाता।
ग्लीजे 581 पर सूर्यास्त की कल्पना : दो सूर्यों वाला ग्रह- सितंबर के मध्यम में अंतरिक्ष दूरदर्शी केप्लर की सहायता से हुई एक और अनोखी खोज का समाचार आया। पृथ्वी से 200 प्रकाशवर्ष दूर एक ऐसा ग्रह है, जो एक साथ दो सूर्यों (तारों) की परिक्रमा कर रहा है। इस ग्रह को 'केप्लर 16 बी' नाम दिया गया है। वह संभवत: ठोस चट्टानों और गैस का बना हुआ है और हमारे शनि ग्रह जितना बड़ा है। कमाल तो यह है कि दोनो तारे भी एक- दूसरे की परिक्रमा कर रहे हैं। एक का आकार हमारे सूर्य का एक-तिहाई है, जबकि दूसरा सूर्य के पांचवें हिस्से के बराबर है। हर तारे को एक परिक्रमा पूरी करने में 229 दिन का समय लगता है और हर तारा हर तीसरे हफ्ते एक-दूसरे पर ग्रहण जैसी छाया डालता है। बताया गया कि दोनो तारे एक-दूसरे के बहुत नज़दीक रह कर एक-दूसरे के फेरे लगा रहे हैं।पृथ्वी की जुड़वाँ बहन? पाँच दिसंबर को अमेरिकी अंतरिक्ष अधिकरण नासा ने समाचार दिया कि पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे उस के अंतरिक्ष दूरदर्शी केप्लर ने एक ऐसे ग्रह का पता लगाया है, जो अब तक ज्ञात सभी बाह्य ग्रहों की तुलना में पृथ्वी का सबसे अधिक समदर्शी है। 'केप्लर 22 बी' नाम का यह ग्रह वैसे तो 2009 में ही मिल गया था, लेकिन इस बीच उसे तीन बार देखने के बाद उस के मिलने की पुष्टि की गई है।यह ग्रह 290 दिनों में 'केप्लर 22' नाम के जिस तारे की परिक्रमा कर रहा है, वह हम से 600 प्रकाशवर्ष दूर है। ग्रह का व्यास पृथ्वी के व्यास से 2.4 गुना अधिक (30 500 किलोमीटर) होना चाहिये, पर वह जिस दूरी पर रह कर अपने सूर्य की परिक्रमा कर रहा है, वह 'आवासीय दायरे' में पड़ती है। ग्रह की ऊपरी सतह कैसी है, ठोस है या गैसीय है, यह अभी पता नहीं है। यदि ऊपरी सतह ठोस हुई, तो वहाँ बहते पानी और 22 डिग्री सेल्सियस के आस-पास तापमान वाली बहुत ही सुखद जलवायु होनी चाहिये। '
केप्लर 22 बी' की खोज से जुड़े वैज्ञानिक, स्पष्ट है कि बहुत उछल रहे हैं और उसे पृथ्वी की जुड़वाँ बहन तक बताने लगे हैं। लेकिन, इस प्रश्न का उत्तर उन के पास भी नहीं है कि, पहली बात, उस की ऊपरी सतह कैसी है? और दूसरी बात, क्या उसका वायुमंडल भी पृथ्वी जैसा ही है? यदि सब कुछ बहुत अनुकूल हुआ, तब भी हमारे आजकल के अंतरिक्षयानों की सहायता से वहाँ पहुँचने में दो करोड़ 20 लाख साल लगेंगे! पृथ्वी पर रह कर मंगल ग्रह की यात्रा : किसी और ग्रह पर जाने का प्रश्न वैसे तब उठेगा, जब मनुष्य के पाँव पहले मंगल ग्रह पर पड़ चुके हों। इस में भी अभी कम से कम 20 साल की देर है, हालाँकि तैयारियाँ ज़ोरों से चल रही हैं। इन्हीं तैयारियों के अंतर्गत एक अनोखी यात्रा 3 जून 2010 को मॉस्को में शुरू हुई थी। ठीक 520 दिन बाद 4 नवंबर 2011 को मॉस्को में ही समाप्त भी हुई। चार देशों के छह मंगल-यात्री मंगल ग्रह पर तो कभी नहीं पहुँचे, पर 17 महीनों तक उन्हें वह सब झेलना पड़ा, जो मंगल ग्रह की किसी सच्ची यात्रा के समय उन्हें सचमुच झेलना पड़ता।मार्स 500 अनुकरण : किसी भावी मंगल-यात्रा का पृथ्वी पर यह एक रेकॉर्ड-तोड़ अनुकरण (सिम्युलेशन) अभियान था। पाँच मॉड्यूलों वाले एक बनावटी 'अंतरिक्षयान' में रूस के दो और इटली, फ्रांस तथा चीन का एक-एक 'मंगल ग्रह यात्री' 520 दिनों तक स्वेच्छा से बंद रहा। न धूप। न ताज़ी हवा। न ताजा़ पानी। बाहरी दीन-दुनिया से अलग- थलग। देश-दुनिया से बेख़बर। रूसी अंतरिक्ष अधिकरण रोसकोस्मोस और यूरोपीय स्पेस एजेंसी ESA के करोड़ो डॉलर मँहगे इस साझे अभियान के साथ, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, 40 देशों के क़रीब 6 हज़ार लोग जुड़े हुए थे।आयोजकों ने अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की कि अभियान में भाग लेने वालों को मंगल ग्रह की यात्रा से जुड़ी सभी संभावित परिस्थितियों और चुनौतियों का सामना करना पड़े। इस समय पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन ISS के अंतरिक्ष यात्रियों की ही तरह 'मार्स 500' के हर प्रतिभागी के सोने-जागने और काम करने का एक दैनिक कार्यक्रम तय कर दिया गया था। पूरी कठोरता से उसका पालन करना पड़ता था।डॉक्टर और मनोविशेषज्ञ विडियो कैमरों व अन्य तरीकों से बराबर उन पर नजर रखते थे। पृथ्वी से मंगल ग्रह तक की दूरी के कारण रेडियो संकेतों को लगने वाले समय के अनुपात में अभियान नियंत्रण केंद्र के साथ बातचीत में 20 मिनट तक की देर और 351 कथित 'तकनीकी गड़बड़ियाँ' भी उन्हें तंग करने की साजिश नहीं, उनके धैर्य और विवेक की परीक्षा के सुनियोजित कार्यक्रम का हिस्सा थीं। हर सहभागी को किसी भी समय अपनी 'अनुकरण यात्रा' भंग कर बाहर आने की छूट थी। लेकिन, किसी ने इस का लाभ नहीं उठाया।प्रकाश की गति को मिली चुनौती : हो सकता है कि गुरुवार 22 सितंबर 2011 विज्ञान जगत के लिए एक ऐतिहासिक तारीख बन जाये। इसी दिन एक ऐसा समाचार आया, जो भौतिक विज्ञान के आँगन में बम-धमाके के समान फूटा- यूरोपीय शोधकों के एक दल ने पाया है कि नगण्य भार वाले न्यूट्रीनो कणों की गति भारहीन प्रकाश-कणों से भी अधिक हो सकती है! तभी से तहलका मचा हुआ है कि क्या यह संभव है कि ब्रह्मांड में कोई चीज़ प्रकाश की गति से भी तेज़ हो सकती है और आइनश्टाइन (सही उच्चारण यही है) के सापेक्षतावाद को झुठला सकती है?न्यूट्रीनो पदार्थ (परमाणु) के ऐसे अतिसूक्ष्म रहस्यमय मूलकण हैं, जो संसार के सबसे शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी के लिए भी अदृश्य हैं। सूर्य ही नहीं, सारे ब्रह्मांड से हमारे शरीर के हर सेंटीमीटर पर हर क्षण खरबों न्यूट्रनो कणों की बौछार हो रही है। वे न केवल रात-दिन हमारे शरीर के ही, बल्कि पृथ्वी पर की हर चीज और स्वयं ठोस पृथ्वी के भी आर-पार आ-जा रहे हैं।उन की सही गति जानने के लिए स्विट्जरलैंड में जेनेवा के पास की यूरोपीय परमाणु भौतिकी प्रयोगशाला सेर्न के एक मूलकण त्वरक से उन्हें, आल्प्स पर्वतों के नीचे से होते हुए, 732 किलोमीटर दूर इटली में रोम के पास की ग्रान सास्सो पहाड़ी के नीचे बने 'ऑपेरा' (OPERA) नाम के मूलकण डिटेक्टर की दिशा में भेजा जाता था। ग्रान सास्सो प्रयोगशाला के शोधकों ने बार-बार देखा कि न्यूट्रीनो कणों की गति सारे ब्रह्मांड में गति की लक्ष्मणरेखा समझी जाने वाली प्रकाश की प्रति सेकंड गति से 7.49 किलोमीटर अधिक निकल रही है। यह अंतर हमारे लिए भले ही तिल को ताड़ बनाने जैसा लगे, विज्ञान की दृष्टि से किसी भूकंप से कम नहीं है।
प्रकाश-गति ही सबसे अक्षुण स्थिरांक : अंतरिक्ष जैसी शून्यता में प्रकाश की एकदम सही गति 2 99 792. 458 किलोमीटर प्रति सेकंड है। बीसवीं सदी के सबसे महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइनश्टाइन ने 1905 में प्रकाशित अपने 'विशिष्ट सापेक्षतावाद सिद्धांत' (स्पेशल रिलेटिविटी थीअरी) में स्थापित किया था कि इस ब्रह्मांड में प्रकाश की गति ही सबसे तेज़ गति है। कोई दूसरी ची़ज़ उससे तेज़ नहीं हो सकती। प्रकाश की गति ही पूरे ब्रह्मांड में हर पल, हर क्षण हमेशा एक-जैसी रहती है। वही सबसे सतत अक्षुण स्थिरांक (स्थिर-अंक/ Constant) है। बाक़ी सब कुछ उसके सापेक्ष है।वैज्ञानिक स्तब्ध हैं। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा है कि 106 वर्षों तक अकाट्य रहा आइनश्टाइन का सापेक्षतावाद सिद्धांत गलत हो सकता है। इसीलिए, वे आभी यह दावा नहीं कर रहे हैं कि न्यूट्रीनो कण प्रकाश की गति से भी तेज गतिवान हैं या आइनश्टाइन का सापेक्षतावाद सिद्धांत अब गलत सिद्ध हो गया है। उन का अनुरोध है कि संसार की दूसरी प्रयोगशालाओं में भी यह प्रयोग दुहरा कर देखा जाये कि उन से कहीं कोई भूल-चूक या मापनों में कोई ग़लती तो नहीं हुई है। संसार में केवल जापान और अमेरिका में दो और ऐसी सुविधाएँ हैं, जहाँ ऐसे प्रयोग हो सकते हैं, पर दोनों सुविधाएँ अभी महीनों ऐसी स्थिति में नहीं होंगी कि वे कोई खंडन या मंडन कर सकें।नए प्रयोगों में भी न्यूट्रीनो ही तेज : इस बीच, 18 नवंबर को सेर्न की ओर से इंटरनेट पोर्टल 'एरविक्स' (Arvix) पर प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि सेर्न और ग्रान सास्सो के वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों को फिर से दुहराया और फिर से यही पाया कि न्यूट्रीनो कणों की गति प्रकाश की गति से सचमुच अधिक है। यदि अन्य देशों की प्रयोगशालाओं ने भी इस की पुष्टि की, तो प्रकाश की गति को गति की लक्ष्मणरेखा बताने वाला आइनश्टाइन का सिद्धांत, एक सदी बाद, सचमुच हिल जाएगा।वैसे, ध्यान देने की बात यह भी है कि ब्रह्मांड जिस महाधमाके (बिग बैंग) के साथ पैदा हुआ था, उस के तुरंत बाद वह प्रकाश से भी तेज़ गति से फैल रहा था। आइनश्टाइन का इतना ही कहना था कि इस ब्रह्मांड के भीतर की पदार्थरूपी कोई चीज- वह चाहे जितनी हल्की हो- प्रकाश की गति की बराबरी नहीं कर सकती। यदि ऐसा है और न्यूट्रीनो की गति प्रकाश से सचमुच अधिक है, तो हो सकता है कि न्यूट्रीनो पदार्थरूपी कण हैं ही नहीं। वे कुछ और हैं, शायद ऊर्जा (एनर्जी) का कोई रूप हैं। आइनश्टाइन के समय में उन के अस्तित्व का किसी को पता तक नहीं था।किलर वायरस : अमेरिकी विज्ञान पत्रिका 'साइंस' के पास एक ऐसा शोधपत्र प्रकाशन के लिए आया है, जिसे प्रकाशिक करने की उस की हिम्मत नहीं पड़ रही है। उस ने नवंबर में अमेरिका के 'एडवाइजरी बोर्ड ऑन बायोसिक्यूरिटी' (जैविक सुरक्षा परामर्श मंडल) की राय माँगी कि वह बताए कि शोधपत्र प्रकाशित किया जाए या नहीं।शोधपत्र प्रकाशन के लिए भेजा है रोटरडाम, नीदरलैंड (हॉलैंड) में एरास्मुस विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. रोन फौशीयर ने। उन की खोज बहुत ही विस्फोटक है। उन्हों ने बर्ड फ्लू के वायरस H5N1 वायरस को यह क्षमता भी प्रदान कर दी है कि उस का सीधे मनुष्य से मनुष्य को भी संक्रमण लगने लगे। फिलहाल मनुष्य को उस का संक्रमण तभी लगता है, जब वह उससे पीड़ित या मृत किसी पक्षी के निकट संपर्क में आता है। एशिया के देशों में बर्ड फ्लू का पिछला सबसे भयंकर प्रकोप 1997 में हुआ था। लगभग 300 लोग बीमार हुए थे। करीब आधे दम तोड़ बैठे थे।एरास्मुस विश्वविद्यालय के मुख्य विषाणु-वैज्ञानिक प्रोफेसर डॉ. अल्बर्टुस ओस्टरहाउस का कहना है कि 5N1 वायरस में सीधे मनुष्य से मनुष्य को संक्रमण लगने की क्षमता इसलिए पैदा की गई, ताकि औषधि निर्मता कंपनियाँ उस की रोकथाम करने लायक टीका बना सकें। लेकिन, 'साइंस' पत्रिका और अमेरिकी अधिकारियों को डर है कि यदि इस खोज के शोधपत्र को प्रकाशित किया गया, तो इससे उन आतंकवादियों की बन आयेगी, जो जैविक हथियार बनाने के लिए उस का उपयोग करना चाहेंगे। शोधपत्र पढ़ कर वे स्वयं भी इस वायरस को पैदा कर सकते हैं और एक जैविक हथियार के तैर पर अमेरिका या अन्य देशों की जनता के विरुद्ध उस का उपयोग करने की सोच सकते हैं। ब्रह्मकण का रहस्य खुलने के निकट : प्रकाश की गति को चुनौती देने वाले न्यूट्रीनो का पीछा कर रहे जेनेवा स्थित यूरोपीय परमाणु भौतिकी प्रयोगशाला 'सेर्न' के वैज्ञानिक प्रकृति के एक और रहस्य पर से पर्दा उठाने के निकट पहुँच गए हैं। 13 दिसंबर को एक पत्रकार सम्मेलन में उन्हों ने बताया कि उन्हें ब्रह्मकण (गॉड-पार्टिकल) कहलाने वाले हिग्स-बोसोन का अस्तित्व होने के उत्साहवर्धक संकेत मिले हैं, हालाँकि ये कण अभी भी उन्हें छका रहे हैं। उन्हें आशा है कि 2012 के अंत तक यह लुका-छिपी ख़त्म हो जाएगी।ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्स और भारत के सत्येंद्रनाथ बोस (जीवनकाल 1894 से 1974 तक) के नाम वाले परमाणु भौतिकी के ये मूलकण (एलीमेंट्री पार्टिकल) परमाणु संरचना के तथाकथित 'स्टैंडर्ड मॉडल' को पूर्णता प्रदान करते हैं। इस मॉडल के अनुसार, हिग्स-बोसोन ही पदार्थ अर्थात परमाणु की संरचना में शामिल अब तक ज्ञात सभी 12 मूलकणों को उन का भार (द्रव्यमान/मास) प्रदान करते है।'
सेर्न' की संसार की सबसे बड़ी मशीन 'लार्ज हैड्रन कोलाइडर' (LHC) की सहायता से, भारत सहित दर्जनों देशों के अनेक वैज्ञानिक, गत दो वर्षों से इन 'ब्रह्मकणों' का सुराग पाने में लगे हैं। हाइड्रोजन के नाभिकों यानी प्रोटॉन कणों को त्वरित करते हुए उन्हें प्रकाश की गति से कुछ ही कम गति पर एक-दूसरे से टकाराने वाली यह मशीन 27 किलोमीटर परिधि वाला एक भूमिगत मूलकण त्वरक (पार्टिकल एक्सिलरेटर) है।अभी सुराग मिला है, प्रमाण नहीं : पत्रकार सम्मेलन में बताया गया कि अब तक का डेटा 'यह कहने के लिए तो पर्याप्त है कि हिग्स-बोसोन की खोज में उल्लेखनीय प्रगति हुई है, लेकिन यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त नहीं है कि इस छलिये का अस्तित्व है या नहीं। फिलहाल यही कहा जा सकता है कि स्टैंडर्ड मॉडल वाले हिग्स-बोसोन का यदि अस्तित्व है, तो उस का भार (मास) एटलस डिटेक्टर वाले प्रयोगों के अनुसार 116 से 130 GeV (गीगा इलेक्ट्रॉन वोल्ट) ऊर्जा और सीएमएस डिटेक्टर वाले प्रयोगों के अनुसार 115 से 127 GeV ऊर्जा के बीच होना चाहिए। इस दायरे के भीतर दोनों प्रयोगों में उस के होने के बड़े ही दिलचस्प संकेत मिले हैं, लेकिन वे किसी खोज का दावा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।'एक GeV हाइड्रोजन के एक परमाणु या प्रोटॉन के एक कण के वजन के लगभग बराबर होता है। सेर्न के वैज्ञानिक अभी किसी पक्की खोज का दावा नहीं कर रहे हैं। उनका कहना है कि वे अपने प्रयोग अभी जारी रखेंगे। उन्हें आशा है कि 2012 के अंत तक बात साफ हो जायेगी कि हिग्स-बोसोन का सचमुच अस्तित्व है या नहीं। उन का अस्तित्व यदि सारे संदेहों से परे प्रमाणित नहीं हो सका, तो वैज्ञानिकों को परमणु संरचना के 'स्टैंडर्ड मॉडल' को बदलना या रद्दी की टोकरी में डाल देना पड़ेगा।सभी मूलकणों के जनक : पीटर हिग्स और दो अन्य वैज्ञानिकों ने 1964 में सुझाव दिया कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति वाले महाधमाके (बिग बैंग) के तुरंत बाद सभी कणों का अपना कोई भार, कोई द्रव्यमान नहीं था। समय के साथ जब ब्रह्मांड ठंडा होने लगा तब एक अदृश्य 'बलक्षेत्र' बना और उस के साथ ही बना एक आदि मूलकण। उस 'बलक्षेत्र' को 'हिग्स बलक्षेत्र' (हिग्स फील्ड) नाम दिया गाया और उस मूलकण को 'हिग्स-बोसोन' कहा जाने लगा। अपने प्रयोगों में सेर्न के वैज्ञानिक लगभग प्रकाश जितनी गति पर दो विपरीत दिशाओं से आ रहे प्रोटॉन कणों की आमने-सामने टक्कर कराते हैं। इस टक्कर से कुछ मिलीसेकंड से भी कम समय के लिए वे और भी छोटे-छोटे कण बनते हैं, जिन के मेल से प्रोटॉन कण स्वयं बने हैं और जो बिग बैंग वाले महाधमाके बाद के उस समय में रहे होंगे, जब ऊर्जा ने पदार्थ का रूप लेना शुरू किया होगा। वैज्ञानिक प्रोटॉन कणों की टक्कर से क्षणभर के लिए बने मलबे में ढूढते हैं कि उस के बीच क्या कहीं अब तक अज्ञात हिग्स-बोसोन भी हैं? ब्लैक होल निगल रहा है गैसीय बादल : वर्ष का अंत आते-आते ब्रह्मांड में एक और रोमांचक घटना वैज्ञानिकों के हाथ लगी। उन्हों ने देखा कि हमारी आकाशगंगा के केंद्र में बैठा कृष्ण विवर (ब्लैक होल) हाइड्रोजन और हीलियम गैस वाले एक विराट बादल को खींच कर निगल रहा है। वह इस तेज़ी से बादल को खींच रहा है कि अगले दो वर्षों के बाद उसका शायद ही कोई निशान बचेगा। हमारी आकाशगंगा के बीचोबीच बैठा 'सैजिटैरियस ए' कहलाने वाला यह कृष्ण विवर हम से 27 हजार प्रकाशवर्ष दूर है। उस के पेट में हमारे सूर्य जैसे 43 लाख तारे समा सकते हैं।जर्मनी के खगोलभौतिकी माक्स प्लांक संस्थान के वैज्ञानिक 1972 से इस कृष्ण विवर पर नज़र रखे हुए हैं। तब से अब तक केवल दो तारे उस के इतना पास गुज़रे हैं कि उसके प्रचंड गुरुत्वाकर्षणबल के शिकंजे में फँस सकते थे, पर नहीं फँसे। यह पहला मौका है कि वैज्ञानिक देख रहे हैं कि कोई कृष्ण विवर कैसे किसी चीज़ को खींच कर निगलने लगता है। अभागे बादल की गैसों का तापमान इस समय 280 डिग्री सेल्सियस है। लेकिन, यह बादल जब तेज़ी से 'सैजिटैरियस ए' के पेट में समाने लगेगा, तो उसके गैसीय अणुओं-परमाणुओं के बीच भयंकर रगड़ से तापमान दसियों लाख डिग्री पर पहुँच जाएगा। तब इन गैसों से भारी मात्रा में एक्स-रे किरणें पैदा होगीं। इस सारी घटना से हमें पृथ्वी पर कोई खतरा नहीं है।व्यतीतमान वर्ष 2011 यही कहता लगता है कि नए वर्ष में भी रोमांचक खगोलीय खोजों का बोलबाला रहेगा, भौतिक विज्ञान में उथल-पुथल मचेगी और बहुत संभव है कि ब्रह्मांड में सबसे तेज़ कहलाने का प्रकाश का विशेषाधिकार उस से छिन जाएगा।