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सूर्य पर चल रही है उथल-पुथल...

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हमें फॉलो करें सूर्य पर चल रही है उथल-पुथल...

राम यादव

, सोमवार, 2 सितम्बर 2013 (16:07 IST)
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हमारे सूर्य पर इस समय एक भयंकर उथल-पुथल चल रही है। पृथ्वी की तरह के उसके दोनों चुंबकीय ध्रुव अपनीअदला-बदली कर रहे हैं। सूर्य का उत्तरी ध्रुव तो अपनी जगह बदल चुका है, लेकिन दक्षिणी ध्रुव अभी अपनी ही जगह पर है। हमारी पृथ्वी अपने जीवनदाता पर चल रही इस उथल-पुथल से विशेष प्रभावित तो नहीं होती, पर पूरी तरह अप्रभावित भी नहीं रह पाती।

सू्र्य के चुंबकीय ध्रुवों की अदलाबदली कोई नई या अनहोनी बात नहीं है। औसतन हर 11 वर्ष पर यही तमाशा होता है। इन 11 वर्षों के दौरान सौर-सक्रियता, अर्थात उस पर काले धब्बों (सौर कलंक) का बनना और डेढ़ करोड़ डिग्री सेल्ज़ियस तापमान वाले इस तारे में धधक रहे तत्वों के अयनीकृत मूलकणों की आँधियों का उठना कभी तो बहुत बढ़ जाता है और कभी बिल्कुल कम हो जाता है। ये धब्बे एक हज़ार किलोमीटर से लेकर दसियों हज़ार किलोमीटर व्यास तक के हो सकते हैं।

सौर-सक्रियता जब अधिकतम होती है, तब किसी ज्वालमुखी उद्गार की तरह सू्र्य, करोड़ों-अरबों टन अयनीकृत (अर्थात विद्युत-आवेशधारी) गैसीय कण करोड़ों-अरबों किलोमीटर दूर तक अंतिरक्ष में उछाल देता है। सूर्य की लगातार परिक्रमा कर रही हमारी पृथ्वी जब भी ऐसे किसी उद्गार के रास्ते में पड़ती है, उसमें छिपी ऊर्जा के धक्के से पृथ्वी का अपना चुंबकीय क्षेत्र भी दबने और लड़खड़ाने लगता है।

क्या ध्रुव परिवर्तन चिंता का विषय है...पढ़ें अगले पेज पर...


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सौर ध्रुव-परिवर्तन चिंता का विषय नहीं : ग़नीमत यही है कि इस से पृथ्वी पर कोई विशेष नुकसान नहीं होता। होता इतना ही है कि पृध्वी के ध्रुवों के पास वाली जगहों पर आकाश में रंगबिरंगे प्रकाश की लहरें उठती हैं। कभी-कभार रेडियो प्रसारण और उपग्रह संचार प्रणाली में गड़बड़ी पैदा होने लगती है या अपवादस्वरूप कहीं बिजली की आपूर्त भी कुछ समय के लिए ठप्प पड़ जाती है।

पृथ्वी पर से देखने पर सूर्य हमें धधकता हुआ आग का ऐसा गोला लगता है, जिसकी कोई ऊपरी सतह हमें नहीं दिखती। लेकिन, 1995 में प्रक्षेपित सोहो (SOHO) नाम की यूरोपीय-अमेरिकी साझी अंतरिक्ष वेधशाला और उससे भी पहले 1991 में जापान द्वारा प्रक्षेपित योहकोह (Yohkoh) नाम के उपग्रह से मिले चित्रों व आँकड़ों के आधार पर खगोलविद पहले ही जानते थे कि हमारा सूर्य एक से एक रहस्यों और बारीक़ियों से भरा पड़ा है। सोहो पृथ्वी से 15 लाख किलोमीटर दूर रह कर सूर्य का अवलोकन कर रहा है और 2014 तक उसकी गतिविधियों के सुराग देता रहेगा, जबकि जापानी उपग्रह ने तकनीकी गड़बड़ी के कारण सूचनाएँ देना बंद कर दिया है।

इस समय न्यूनतम सौर सक्रियता...पढ़ें अगले पेज पर...


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इस समय न्यूनतम सौर सक्रियता : इस बीच अमेरिका में कैलीफ़ोर्निया की विलकॉक्स सौर वेधशाला के वैज्ञानिक भी सूर्य पर नज़र गड़ाए हुए हैं। उनका कहना है कि सूर्य इस समय न्यूनतम कलंकों वाले दौर से गुज़र रहा है। इन कलंकों का संबंध हमेशा सूर्य की उन चुंबकीय गतिविधियों से होता है, जो काफी गहराई पर उसके भीतर चल रही होती हैं। यानी, सौर कलंक सूर्य के गर्भ में हो रही गतिविधियों की अभिव्यक्ति हैं। वे सुराग देते हैं कि सूर्य के भीतर कब और कहाँ शक्तिशाली या दुर्बल चुंबकीय बलक्षेत्र बन रहे हैं।

ये बलक्षेत्र सूर्य के गर्भ में छिपे ऐसे डायनामो (Dynamo) की हरकतों से बनते हैं, जिन के बारे में अभी कुछ ठीक से पता नहीं है। अनुमान यही है कि चुंबकीय बलक्षेत्र के रूप में यह डायनमो-प्रभाव बेहद संपीड़ित एवं तप्त गैसों की गाढ़ी परतों के बीच आपसी रगड़ से पैदा होता है।

कोई बलक्षेत्र जब एक निश्चित मात्रा तक शक्ति जुटा लेता है, तो वह किसी विशाल बुलबुले की तरह उठ कर ऊपर आ जाता है और अपने साथ लाई सामग्री के साथ आस-पास का तापमान इस तरह प्रभावित करता है कि वह जगह, पड़ोसी क्षेत्रों की तुलना में कम चमकीली होने से, हमें किसी धब्बे या कलंक जैसी नज़र आती है। डायनमो-प्रभाव से बना चुंबकीय बलक्षेत्र किसी एक ही जगह टिका नहीं रहता, इसलिए धब्बे भी चलते-फिरते नज़र आते हैं।

क्या हैं चलते-फिरते सौर कलंक...पढ़ें अगले पेज पर...


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चलते-फिरते सौर कलंक : यदि पृथ्वी पर की भूमध्यरेखा और उसके समानांतर उत्तर और दक्षिण में चलने वाली अक्षांश रेखाओं जैसी काल्पनिक रेखाएँ सूर्य पर खींची जायें, तो देखने में यह भी आता है कि सौर कलंकों के रूप में अपने आप को अभिव्यक्त करने वाले चुंबकीय बलक्षेत्र मुख्य रूप से सूर्य की मध्यरेखा से निकटवर्ती अक्षांश रेखाओं के बीच बनते हैं। औसतन 11 वर्ष के हर सौर-सक्रियता चक्र के दौरान वे सौर-मध्यरेखा से चल कर ध्रुवों की तरफ बढ़ते हैं और रास्ते में पड़ने वाले पुराने कलंकों को -अर्थात उन्हें बनाने वाले चुंबकीय बलक्षेत्रों को- निगलते हुए अपना रास्ता बनाते हैं। सूर्य के दक्षिणी ध्रुव के पास इस समय यही देखने में आ रहा है।

सू्र्य का उत्तरी ध्रुव इस बीच ऋणात्मक (नेगेटिव) से धनात्मक (पॉज़िटिव) बन भी चुका है, जबकि दक्षिणी ध्रुव अभी भी धनात्मक ही बना हुआ है। इस तरह कह सकते हैं कि सूर्य ठीक इस समय एक ऐसा विराट चुंबक है, जो केवल एकध्रुवीय (मोनोपोलर) है, क्योंकि उसके दोनों ध्रुव इस समय धनात्मक हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि दक्षिणी ध्रुव भी अगले तीन से चार महीनों में धनात्मक से ऋणात्मक बन जएगा।

अयनीकृत कणों का महा-फव्वारा...पढ़ें अगले पेज पर...


अयनीकृत कणों का महा-फव्वारा : वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि जब कभी इस तरह की अनियमितता पैदा हो जाती है और सौर-सक्रियता अपने चरम पर पहुँचती है, तब सौर आँधी के रूप में विद्युत-आवेशधारी अयनीकृत कणों का एक ऐसा महा-फव्वौरा फूटता है, जो आम तौर पर उसी तल पर तेज़ी से फैलता है, जिस तल पर सौरमंडल के ग्रह सू्र्य की परिक्रमा कर रहे होते हैं। अयनीकृत कणों की इस बौछार से सू्र्य और और ग्रहों के परिक्रमा-तल के बीच के चुंबकीय क्षेत्र की बलरेखाएँ इस तरह झकझोर उठती हैं, मानो सागरतल को त्सुनामी लहरें झकझोरने लगी हों।

हमारी पृथ्वी भी इसी तल पर सूर्य के फेरे लगाती है। उसका अपना चुंबकीय बलक्षेत्र भी झकझोर उठता है, पर उसे कोई और नुकसान नहीं होता। पृथ्वी का अदृश्य चुंबकीय बलक्षेत्र एक ऐसे आवरण या रक्षाकवच का काम करता है, जिसे सौर आँधी के अयनीकृत कण चीर नहीं पाते।

कैसे होती है मंगल पर सौर कणों की मूसलाधार बौछार... पढ़ें अगले पेज पर...


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मंगल पर सौर कणों की मूसलाधार बौछार : पर, मंगल जैसे जिन ग्रहों के पास अपना चुंबकीय बलक्षेत्र नहीं है, वहाँ इन घातक कणों की निर्बाध मूसलाधार बौछार हो सकती है। मंगलग्रह के भावी यात्रियों के लिए इससे एक बहुत ही ख़तरनाक स्थिति पैदा हो सकती है। स्वयं पृथ्वी पर भी रोडियो और टेलीविज़न प्रसारण तथा उपग्रह आधारित संचार प्रणालियाँ कुछ समय के लिए छिन्न-भिन्न हो सकती हैं। इस तरह की समस्याएँ सौरमंडल की उस सबसे बाहरी सीमा तक पैदा हो सकती हैं, जिसे होलियोस्फ़ियर (सौर प्रभावमंडल) कहा जाता है और जिस के बाद हामारी आकाशगंगा के चुंबकीय प्रभावों और ब्रह्मांडीय किरणों का दबदबा शुरू होता है।

चुंबकीय ध्रुवों की प्रकृति में अदलाबदली पृथ्वी पर भी होती है। लेकिन, पृथ्वी पर के उत्तरी और दक्षिणी चुंबकीय ध्रुव सूर्य के चुंबकीय ध्रुवों की अपेक्षा कहीं अधिक टिकाऊ हैं। उनके बीच पिछली अदलाबदली 7 लाख 80 हज़ार वर्ष पूर्व हुई थी। उसे पूरा होने में 5 हज़ार साल लगे थे। इससे पृथ्वी पर की प्रकृति या जीवन पर कोई उल्लेखनीय प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा।

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