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कच्चे तेल के भाव 125 डॉलर तक संभव

अर्थ मंथन

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हमें फॉलो करें कच्चे तेल के भाव 125 डॉलर तक संभव
, सोमवार, 12 नवंबर 2007 (13:00 IST)
-विट्ठल नागर

सरकारी क्षेत्र की खनिज तेल उत्पादक कंपनियों (ओएनजीसी, ओआईएल एवं जीएआईएल) तथा तेल वितरक कंपनियों (बीपीसीएल, एचपीसीएल व आईओएल) की आर्थिक हालत को खस्ता बनाने में सरकार का हाथ अधिक है। इन कंपनियों को लागत मूल्य से कम भाव में तेल बेचना पड़ता है, जिससे उनका कामकाजी (ऑपरेटिंग) लाभ तेजी से घट रहा है एवं उनकी प्रवाहिता (नकदी) कम हो रही है।

कहने को तो सरकार उन्हें ऑइल बॉण्ड जारी करती है, किंतु उससे कामकाजी घाटे की पूर्ति नहीं होती। अब सरकार जो कुछ कर रही है, उसे आँख होते हुए भी सही रास्ता न ढूँढ पाना कहते हैं। एक ओर वह रिफाइनिंग कंपनियों में विदेशी कंपनियों की हिस्सेदारी बढ़ाने की बात कर रही है एवं दूसरी ओर अफ्रीका के 12 ऊर्जा उत्पादक देशों का सम्मेलन दिल्ली में कर रही हैं। उसके प्रयास से संभव है पश्चिमी एशिया (खाड़ी देशों) पर तेल की निर्भरता कम हो जाए, किंतु उससे क्या तेल कंपनियों के राजस्व में हो रहा घाटा कम होगा एवं क्या उनकी तरलता की समस्या दूर होगी? इन प्रश्नों के उत्तर सरकार के पास नहीं है।

मुख्यतया समस्या यह है कि भारत में खनिज तेल व गैस के उत्पादन से महज 30 प्रतिशत माँग की पूर्ति होती है। इसलिए 70 प्रतिशत तेल आयात करना पड़ता है। विश्व बाजार में खनिज तेल के भाव 25 वर्षों के उच्चतम स्तर पर पहुँच गए हैं।

इसलिए देश को महँगे भाव का खनिज तेल आयात करना पड़ता है और उसे पेट्रोल-डीजल, केरोसिन आदि में बदल कर सरकार द्वारा निर्धारित सस्ते भाव पर बेचना पड़ता है। दुनिया भर में पेट्रोल-डीजल के भाव सतत रूप से बढ़ रहे हैं, किंतु देश में सरकार इनके भावों को बाँध कर बैठी है। अभी अमेरिका के लाइट खनिज तेल का भाव 96 डॉलर प्रति बैरल है एवं ब्रिटेन के ब्रंट तेल का भाव 94-95 डॉलर प्रति बैरल है। अगर सरकार अफ्रीकी देशों से देश की कुल खपत 16 प्रतिशत या 20 प्रतिशत खनिज तेल खरीदने लगे तो भी उसे अधिक राहत नहीं मिलेगी, क्योंकि 1 नवंबर 07 को विश्व बाजार में भाव 96 डॉलर प्रति बैरल सीमा को लाँघ गए थे।

दिसंबर वायदा में इसके भाव 125 डॉलर प्रति बैरल बोले जा रहे हैं। अर्थात स्थिति बहुत गंभीर है, क्योंकि तेल के घटक भी काफी मजबूत हैं। बढ़ते भावों की वजह से भारतीय सरकारी क्षेत्र की तेल कंपनियों के राजस्व की कितनी हानि हो रही है, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। भारत ने गत वर्ष 11 करोड़ टन खनिज तेल आयात किया था और वर्ष 07-08 में 11.50 करोड़ टन तेल आयात करना पड़ेगा। अगर वर्ष भर तेल के वैश्विक भाव 90 डॉलर प्रति बैरल रहे तो कंपनियों को एक वर्ष में 70 हजार करोड़ रुपए के राजस्व की हानि होगी- पेट्रोल, डीजल, केरोसिन, गैस आदि सरकार द्वारा निर्धारित भाव पर बेचने के कारण।

इस हानि की पूर्ति के लिए सरकार 23,457 करोड़ के तेल बॉण्ड सरकारी कंपनियों को दे रही है। यानी कंपनियों को एक वर्ष में 46500 करोड़ से अधिक का कामकाजी (ऑपरेटिंग) घाटा होगा। बॉण्डों से खनिज तेल उत्पादक कंपनियों के घाटे की 35 प्रतिशत की पूर्ति होगी एवं वितरक कंपनियों के घाटे की 43.7 प्रतिशत की ही पूर्ति हो सकेगी।

इस तरह सरकार सोने के अंडे देने वाली मुर्गियों को पाल नहीं रही है वरन्‌ मार रही है। अब इन कंपनियों के भाग्य अच्छे हुए तो ही संभव है कि अमेरिका के सबप्राइम घोटाले एवं अमेरिका में बन रही मंदी की स्थिति की वजह से विश्व बाजार में खनिज तेल के भाव घट सकते हैं वरना भाव बढ़ने की आशंका ही अधिक है, क्योंकि उत्तरी गोलार्द्ध में ठंड का मौसम शुरू होने वाला है, जिससे वहाँ घरों को गर्म रखने के लिए गैस की माँग तेजी से बढ़ेगी, जिससे खनिज तेल के भाव में आग-सी लग सकती है।

खनिज तेल के भाव डॉलर में बोले जाते हैं एवं डॉलर की विनिमय दर अन्य प्रमुख मुद्राओं की तुलना में घट रही है, जिससे वैश्विक तेल उत्पादक कंपनियाँ पड़ता बैठाने के लिए तेल के भाव बढ़ा रही हैं। सोने के बढ़ते भाव एवं मुद्रास्फीति बढ़ने के भय से भी तेल के भाव वृद्धि को बढ़ावा मिल रहा है।

फिर ईरान के विरुद्ध प्रतिबंधात्मक कार्रवाई से ईरान का खनिज तेल बाजार में कम आ रहा है। ऐसे में भारत सरकार को सचेत हो जाना चाहिए। उसे खनिज तेल पर उत्पाद शुल्क घटाकर अन्य कर कम कर देना चाहिए। कंपनियाँ अभी घाटे की पूर्ति एटीएफ, नाफ्ता आदि के भाव बढ़ाकर करती है, किंतु उन पर राज्य सरकारों में प्रवेश कर, विक्रय कर लगा रखे हैं। इसलिए इनके मूल्य की 56 प्रतिशत रकम करों में चली जाती है- लिहाजा कंपनियों की परेशानियाँ घटने की बजाय बढ़ रही हैं।

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