पिछले दिनों दिल्ली में औद्योगिक विकास अध्ययन संस्थान के नए परिसर के शिलान्यास के अवसर पर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने भारतीय पूँजीवाद को 'मिलीभगत वाले पूँजीवाद' (क्रोनिकेपेटेलिज्म) की संज्ञा देते हुए राष्ट्र को मिलीभगत वाले पूँजीवाद से सावधान करते हुए कहा कि यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए दुखद स्थिति है।
इसी प्रकार पंचायतीराज मंत्री मणिशंकर अय्यर ने मत व्यक्त किया कि देश की नीतियों का अपहरण करने वाले अभिजात्य वर्ग ने आर्थिक सुधारों में विकृति पैदा कर दी है। अय्यर ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त की कि करीब 70 करोड़ भारतीय क्रयशक्ति के अभाव में बाजार से बाहर खड़े हैं।
भूमंडलीकरण के दूसरे चरण से गुजर रहे आर्थिक सुधारों के दौर में ये दोनों टिप्पणियाँ जहाँ एक ओर दोष की प्राथमिकताओं के स्थान पर नवउपनिवेशवादी राष्ट्रों के मॉडलों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं, वहीं दूसरी ओर सुधारों के दौर में उपजे अभिजात्य वर्ग की सरकार के साथ साँठ-गाँठ को भी रेखांकित करती है।
उदारीकरण के दौर के पूर्व इसी प्रकार के चरित्र, मानसिकता और आकांक्षाएँ इतने प्रभावित नहीं हुए जितने उदारीकरण के दौर में परिलक्षित हुए।
अधिकार की दृष्टि से भी प्रशासनिक अधिकारियों और अभिजात्य वर्ग में विशिष्ट पहचान आर्थिक आधार पर नहीं, बल्कि अधिकार सूचक प्रभाव राजनीतिक क्षेत्रों में दखल और नवकुबेरवादी समृद्धि से की जा सकती है।
हालाँकि उदारीकरण के शब्दकोश में अवसर, सशक्तीकरण, भागीदारी, विकेंद्रीकरण, निजीकरण, विनिवेशीकरण, स्थानीयकरण जैसे शब्दों का इस्तेमाल बढ़ा, लेकिन इनका लाभ मुख्यतः उन्हीं लोगों ने उठाया जिन्होंने सरकारी छूटों का फायदा लेते हुए हर छोटे-मोटे धंधों में हाथ डालकर मुनाफा लूटा।
फलस्वरूप पिछले डे़ढ़ दशकों के आर्थिक सुधारों का लाभ सीमित वर्ग तक पहुँचा और करीब पाँच करोड़ लोग असाधारण तौर पर समृद्ध बन गए। मिलीभगत वाला पूँजीवाद इसी स्थिति में उपजा, जहाँ राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को बढ़ावा दिया गया, उच्च प्रशासनिक अधिकारियों की राजनीतिज्ञों के साथ साँठ-गाँठ होती गई और देश की नई पूँजी नए केंद्रों और उपकेंद्रों में जमा होती गई।
यह वर्ग पश्चिमी विचारधाराओं, सिद्धांतों और मॉडलों का अंधानुकरण करने लगा और अपने अहम तथा स्वार्थों के संकीर्ण दायरों में सिमटे अपनी ढपली और अपना राग अलापता रहा। इस दौर में राज्यसत्ता को अत्यंत दुर्बल और प्रभावहीन बना दिया गया। इससे राज्य की विनियामक क्षमता तो कमजोर हुई ही, साथ ही सत्तर करोड़ लोगों के अभिशप्त वर्ग के चेहरों पर उभरी रेखाओं ने भी बहुस्तरीय भयानक यथार्थों से साक्षात कराया।
मिलीभगत वाले पूँजीवाद के वर्तमान दौर की प्रमुख चुनौती यह है कि बहुस्तरीय यथार्थ की अज्ञात छवियाँ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक परतों के नीचे छिपी हुई हैं। प्रसिद्ध पत्रिका 'इकोनोमिस्ट' द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत में ज्यादातर अफसर काम कराने के लिए उद्योगपतियों से घूस लेते हैं।
सर्वेक्षण के अनुसार लालफीताशाही, लापरवाही और नियम-कानूनों की बंदिशों के विस्तार ने अनियमितताओं को जन्म दिया और कालांतर में इन अनियमितताओं ने अर्थव्यवस्था को बंधक बना लिया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस वर्ग ने सत्ता प्रतिष्ठान, आर्थिक प्रतिष्ठान और समाज के नैतिक आधार का क्षरण कर राष्ट्रीय चरित्र तक को भी प्रभावित किया।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा फैलाए जा रहे विषकीट की प्रक्रिया का एक रूप यह भी है कि योरप के कुछ देशों में वहाँ के उद्योगपति और व्यापारी यदि अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए किसी विदेशी को घूस या काम देते हैं तो वह अपराध नहीं माना जाता, लेकिन यदि ये ही व्यवसायी अपने देश के नागरिकों को रिश्वत या काम देते हैं तो वह अपराध माना जाता है।
अंतरराष्ट्रीय जगत में भ्रष्टाचार फैलाने के ये तरीके जब तक कायम रहेंगे, तब तक नए-नए प्रकार के घोटाले होते रहेंगे। अमेरिका की एक एजेंसी द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत में ही नहीं, दुनिया के सभी विकासशील तथा कई विकसित देशों में भ्रष्टाचार फैला रही हैं।
ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत और अन्य विकासशील देशों के अधिकारियों को रिश्वत देने के खिलाफ औद्योगिक देशों में कानून होने के बावजूद कई बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उभरते बाजारों में रिश्वतखोरी में लिप्त हैं।
ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल द्वारा किए गए सर्वेक्षण में यह सचाई भी उभरकर आई कि भारत समेत विकासशील देशों की जनता को इस साँठ-गाँठ और भ्रष्टाचार की चिंता नहीं है। अधिकांश लोग सरकारी अधिकारियों में प्रचलित भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी को उनके जीवन का तरीका मानते हैं। सर्वेक्षण के अनुसार भ्रष्टाचार के प्रति जनता की सहनशक्ति 67 प्रतिशत है, जबकि सर्वेक्षण का उज्ज्वल पक्ष यह भी है कि 52 प्रतिशत लोग मानते हैं कि प्रेस की ज्यादा स्वतंत्रता भ्रष्टाचार को कम करती है।
मिलीभगत वाले पूँजीवाद का एक रूप यह भी है कि देश के परंपरागत राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग की भूमिका सिमटती जा रही है और उसके स्थान पर राष्ट्रेतर मानसिकता की गिरफ्त में अभिजात्य वर्ग जा रहा है। ऐसी स्थिति में कोई आश्चर्य नहीं कि नई किस्म की 'दलाल पूँजीपति' की फसल उपजे जो दूसरों के आदेशों पर नाचे।
सार्वजनिक प्रशासन और सार्वजनिक सेवाओं में मिलीभगत वाले पूँजीवाद की एक परत उन लोगों की भी है, जिन्हें राजनीतिक व्यापारी की संज्ञा दी जा सकती है। इन लोगों के लिए राजनीति एक दुकान है या एक ऐसा धंधा है जिसमें न्यूनतम पूँजी निवेश कर भारी मुनाफा कमाया जा सकता है। यदि वे कोई व्यापार या उद्योग शुरू करें तो उसमें डूबने का खतरा हरदम बना रहता है, लेकिन राजनीति ऐसा व्यापार है जो अगर चल प़ड़े तो कोई उत्पादक काम किए बिना भारी धन कमा सकता है।
असल में तस्कर, जमाखोर या आर्थिक अपराधी राजनीति में इसलिए कूदते हैं कि औरों की तुलना में यह धंधा अधिक सम्मानजनक और मुनाफे वाला है। इतना ही नहीं, राजनीतिक क्षेत्र में दलाल-संस्कृति भी जोरों से पनप रही है। सफेदपोश दलाल सभी जगह नजर आते हैं जिनके माध्यम से सरकारी सेवाओं में चयन, नियुक्ति, तबादले इत्यादि के रेट नियत हैं। थाना, तहसील नीलाम तक होने की खबरें मिलती रहती हैं।
ज्यों-ज्यों उदारीकरण और भूमंडलीकरण का दौर बढ़ता जा रहा है, दलालों का स्तर और रेट भी बढ़ रहे हैं, पानी और बिजली तक सब कुछ बिकता है। सचाई यह है कि जब तक राजनीति और प्रशासन पर ऐसे राजनीतिक व्यापारी और दलाल हावी हैं, जो प्रशासन और सार्वजनिक संगठनों को दुधारू गाय समझते हैं, तब तक जनकल्याण और सामाजिक न्याय के कोई भी प्रयास सफल नहीं होंगे।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि आर्थिक सुधारों के जनक डॉ. मनमोहनसिंह द्वारा मिलीभगत वाले पूँजीवाद के प्रति व्यक्त की गई चिंता अब तक जनसाधारण की आत्मा में नहीं उतरी है। इस भयानक यथार्थ की अनदेखी का यथार्थ रूप ले लेना नए आर्थिक सुधारों को प्रभावहीन बना देगा।
दरअसल, आज आवश्यकता इस बात की है कि मिलीभगत वाले पूँजीवाद के बहुस्तरीय यथार्थ की अज्ञात छवियों से आर्थिक जीवन को बचाया जाए और मिथ्या चेतना में बंधक राष्ट्रीय आत्मा को मुक्त कराया जाए।