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पश्चिमी देशों की गैरजिम्मेदारी से बढ़ी महँगाई

हमें फॉलो करें पश्चिमी देशों की गैरजिम्मेदारी से बढ़ी महँगाई

विट्‍ठल नागर

, रविवार, 27 अप्रैल 2008 (18:32 IST)
विश्व भर में श्रम बाजार में बढ़ी हुई माँग एवं कुछ राहत भरे राजनीतिक कदमों से गरीबों के लिए जरूरी वस्तुओं की उपलब्धि में कुछ सुधार हुआ है, किंतु फिर भी आम जनता के लिए बंगाल के अकाल (1942-44) एवं आज की स्थिति में कुछ विशेष फर्क नहीं है। उस अकाल में 30 लाख लोग भूख से मारे गए थे क्योंकि तब अनाज के भाव इतने बढ़ गए थे कि तब लोगों के पास उसे खरीदने के पैसे नहीं थे तथा अनाज की उपलब्धि बढ़ नहीं रही थी और तब अँगरेज शासकों के पास जूँ नहीं रेंग रही थी।

आज प्रशासन के कान में जूँ तो रेंग रही है किंतु अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य की वजह से अनाज के भाव अधिक घट नहीं रहे हैं। आज जो अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य बन रहा है उसके लिए अमेरिका व पश्चिमी योरपीय देश अधिक जिम्मेदार हैं। 1991-92 में पूर्वी एशिया के मुद्रा संकट के समय अमेरिका व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने मलेशिया से लेकर चीन व इंडोनेशिया को आड़े हाथों लिया था किंतु आज मुद्रा कोष अमेरिका के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठा रहा है।

अगर आज विश्व में खाद्यान्न के भाव बढ़ रहे हैं तो उसके लिए मुख्य रूप से पश्चिमी देश ही अधिक जिम्मेदार हैं क्योंकि वे खाद्यान्नों का उपयोग 'जैव ईंधन' (बायो फ्यूएल) के उत्पादन में वर्ष 2004 से कर रहे हैं और तभी से विश्व बाजार में खाद्यान्नों के अभाव की स्थिति बन रही है एवं उनके भाव आम आदमी की पहुँच के बाहर हो रहे हैं और वे जैव ईंधन से अपनी कारें दौड़ा रहे हैं।

2007 में अमेरिका व पश्चिमी योरपीय देश अपने देश में कुल उत्पादित 25 प्रतिशत खाद्यान्न का उपयोग बायो ईंधन के उत्पादन में कर रहे हैं एवं विश्व भर में खाद्यान्न की उपलब्धि घट गई है एवं भावों में आग लग रही है। मक्का के भाव इतने बढ़ गए हैं कि जापान व दक्षिण कोरिया में मक्का के पौधों में जैविक फेरबदल कर उत्पादन बढ़ा रहे हैं एवं जैविक मक्का का उपयोग बढ़ गया है। इसे जेनेटिकली इंजीनियरिंग से तैयार मक्का कहते हैं जिसे उपभोक्ता पसंद नहीं करते।

किंतु बढ़ते भाव की वजह से जैविक फेरबदल वाली मक्का के विरुद्ध हिचक खत्म हो रही है एवं उससे बने शीतल पेय, नमकीन व अन्य खाद्य उत्पाद बाजार में बिक रहे हैं- वैसे अभी तक पूरी तरह से इस बात की पुष्टि नहीं हुई है कि ऐसी मक्का मानव खपत के लिए निर्दोष है वहाँ पशु खाद्य में ऐसी मक्का का धड़ल्ले से उपयोग हो रहा है। अगर खाद्यान्न के भाव के लिए अमेरिका जिम्मेदार है तो खनिज तेल के बढ़ते भावों के लिए भी वह बड़ी हद तक जिम्मेदार है।

इराक पर हमला करके एवं ईरान के विरुद्ध प्रतिबंध लगाकर पहले ही खनिज तेल को महँगा बना दिया था। फिर सतत रूप से ब्याज दर घटा कर डॉलर की विनिमय दर घटा रहा है। विश्व बाजार में खनिज तेल के सौदे डॉलर में होते हैं- ऐसे में जब डॉलर की विनिमय दर घटेगी तो खनिज तेल के भाव बढ़ेंगे ही।

अमेरिका ने जब इराक पर हमला किया था तब विश्व बाजार में खनिज तेल का भाव 24 डॉलर प्रति बैरल था और आज भाव 112 डॉलर प्रति बैरल है। भावों में करीब 500 प्रतिशत की वृद्धि चालू खाते के घाटे (आयात-निर्यात का घाटा) वाले विकासशील देशों के लिए कितनी भारी पड़ रही है- इसकी कल्पना करना कतई मुश्किल नहीं है।

खनिज तेल ही नहीं वरन्‌ पेट्रोलियम आधारित वस्तुओं के भाव भी आसमान पर चढ़ गए हैं फिर चाहे वे रासायनिक उर्वरक हों या केमिकल्स अथवा अन्य उप उत्पादन। अगर देखा जाए तो आज भारत, चीन, ब्राजील आदि उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश वैश्विक वित्तीय असंतुलन को कम करने में सहायक बन रहे हैं- किंतु अमेरिका न तो अपने चालू खाते के घाटे को कम कर पा रहा है और न ही बजट घाटे को।

अगर कोई उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश की यह स्थिति होती, तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक सभी उसको आड़े हाथों लेने लगते एवं बजट घाटा कम करने एवं मुद्रा की विनिमय दर को युक्तियुक्त करने का दबाव डालते- किंतु अमेरिका के सम्मुख ये बहुराष्ट्रीय संगठन भीगी बिल्ली बन जाते हैं एवं उल्टे उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों को दोषी बताने लगते हैं। अब उनकी दलील है कि भारत व चीन जैसे देशों की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है।

वहाँ लोगों के वेतन बढ़ रहे हैं एवं राज सहायता (सबसिडियों) के माध्यम से पेट्रोल, डीजल, खाद्यान्न आदि के भाव को घटाया रखा जा रहा है जिससे इन सभी का उपभोग बढ़ रहा है उनके वैश्विक भाव बढ़ रहे हैं- पर वे अमेरिका व पश्चिमी योरप पर यह आरोप नहीं लगाते कि जैव ईंधन में खाद्यान्न के उपयोग से वस्तुओं के भाव क्यों बढ़ रहे हैं!

वास्तव में उनकी जलन इसी बात की है कि विश्व की अर्थव्यवस्था में आ रहे धीमेपन एवं आर्थिक मंदी के बावजूद भारत की जीडीपी (आर्थिक वृद्धि दर) में अधिक धीमापन क्यों नहीं आ रहा है! वर्ष 2007-08 में यह दर 8.7 प्रतिशत रही एवं लगता है कि 2008-09 में इसमें एक प्रतिशत से कम की कमी आएगी।

चीन की आर्थिक वृद्धि बहुत तेज-तर्रार है, 11 प्रतिशत के करीब और 2008-09 में वह घट कर 9 प्रतिशत हो सकती है। भारत में आम जनता खाद्यान्नों के बढ़ते भाव, बढ़ती मुद्रास्फीति एवं राजनीतिक अस्थिरता को बड़ा खतरा मानती है। निश्चय ही ये बढ़े खतरे हैं किंतु जिस तरह सरकार ने अनाज, खाद्य तेलों, तिलहनों एवं औद्योगिक कच्चे माल व धातुओं के आयात को सस्ता बना दिया है एवं अनेक जरूरी वस्तुओं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर कुछ निर्यात को महँगा बना दिया है निर्यातक कर लगाकर। खनिज तेल व उर्वरकों के भाव बढ़ने नहीं दे रही है जिसका घाटा सरकार व उसकी कंपनियाँ उठा रही हैं।

अच्छी बात यह है कि अगर आज अनअपेक्षित वैश्विक कारणों से भाव वृद्धि होती है तो सरकार कुछ और साहसिक कदम उठा सकती है एवं बढ़ते बजट घाटे से निपट सकती है एवं महँगाई को कम करने के लिए राजसहायता (सबसिडियों) में और वृद्धि कर सकती है। तब विनिवेश के माध्यम से अतिरिक्त स्रोत जुटाने में वामपंथी दलों के विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा। सरकार की ऐसी कई कंपनियाँ हैं जो असूचीबद्ध हैं और उनकी अंशपूँजी का विनिवेश सरलता से हो सकेगा।

वास्तव में 60 हजार करोड़ रु. के कृषि कर्ज माफ करना, सरकारी कर्मचारियों के लिए छठे वेतन आयोग की सिफारिश के अनुसार उनके वेतन भत्तों में बढ़-चढ़कर वृद्धि करना, आयात को सस्ता कर कुछ निर्यात को महँगा बनाकर राजस्व में भारी कमी लाना, खनिज तेल, उर्वरक व खाद्यान्नों के लिए भारी सबसिडियाँ बढ़ाना आदि के बावजूद अगर केंद्र का राजस्व व बजट घाटा सीमा में रहता है तो भावों में आज नहीं तो कुछ समय बाद अवश्य कमी आ सकेगी एवं स्थिति सुधरने की आशा की जा सकती है। परेशानी यही है कि आज शिक्षा व चिकित्सा इतनी महँगी हो गई कि खाद्यान्न खरीदने से आम लोगों का घरेलू बजट गड़बड़ा गया है और उन्हें राहत मिल नहीं रही है।

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