समुचित आपूर्ति की व्यवस्था जरूरी
संदर्भ : रिजर्व बैंक की नई मौद्रिक एवं साख नीति
- विट्ठल नागर
आर्थिक विकास (जीडीपी) की उच्चवृद्धि दर मुद्रास्फीति को बढ़ावा देती है किंतु भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर वायवी रेड्डी ने मुद्रास्फीति की दर को 5.5 प्रतिशत स्थिर रखकर 8 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करने की बात कही है। यह सही है कि सामान्य मानसून तक खरीफ की नई फसल मंडियों तक आने के साथ ही खाद्यान्न के भावों का दबाव घटेगा एवं मुद्रास्फीति की दर कुछ नरम पड़ेगी, किंतु विधानसभाओं के बाद लोकसभा के चुनाव महँगाई की आग में घी उड़ेलेंगे, उससे रिजर्व बैंक कैसे निपटेगा?
वैश्विक वित्तीय असंतुलन भी देश की मुद्रास्फीति को बढ़ावा देगा, सो अलग। वास्तव में देश की अर्थव्यवस्था ने बहुत मेहनत से 8 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल की है और इसे मूल्यों (महँगाई) में स्थिरता लाकर ही संभाले रखा जा सकता है। इसमें समग्र माँग की पूर्ति हेतु सुप्रबंधन जरूरी है। यह सही है कि जब भी वैश्विक माँग व उपलब्धि में असंतुलन की स्थिति बनेगी, तब भारत में मुद्रास्फीति की दर पर गहरा विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
इसलिए ऐसी स्थिति बनने पर रिजर्व बैंक को अधिक सक्रिय बनकर कठोर कदम उठाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। जब तक ऐसी स्थिति नहीं बनती, तब तक के लिए रिजर्व बैंक का काम यही है कि वह समग्र माँग अर्थात खपत (उपभोग) व निवेश के लिए बैंक कर्ज की माँग का सही प्रबंधन करे।
इसी संदर्भ में रिजर्व बैंक की नई नीति की व्याख्या की जा सकती है। उसका व्यावसायिक बैंकों को स्पष्ट संदेश यही है कि व्यापार की बजाय लघु व मध्यम प्रवर्तकों, ग्रामीण अर्थव्यवस्था (असंगठित क्षेत्र), रीयल इस्टेट एवं बुनियादी संरचना निर्माण में कर्ज में अधिक वरीयता दी जाए। इसी तरह उसने गृह निर्माण हेतु 30 लाख रु. से कम के कर्ज के लिए बैंकों पर से प्रावधान का भार हटा लिया अर्थात व्यावसायिक बैंकें गृह निर्माण के ऐसे कर्जों पर ब्याज दर नहीं बढ़ाएँगे।
अब बैंकें किस क्षेत्र को अधिक कर्ज देंगी, यह इससे स्पष्ट हो जाता है। इसी तरह सट्टेबाजी व जमाखोरी करने वाले क्षेत्र को बैंक कर्ज नहीं मिलेगा। इसके साथ भारतीय रिजर्व बैंक को यह भी मालूम है कि वर्ष 2008-09 के बजट में करों में दी गई ढेरों छूट एवं केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों को छठे वेतन आयोग की सिफारिश के अनुसार वेतन व भत्तों में जो भारी वृद्धि मिलेगी, उससे उपभोक्ता माँग में भारी वृद्धि होगी और यह वृद्धि मुद्रास्फीति को भी जोरदार बढ़ावा देगी। परिणामस्वरूप आपूर्ति को बनाए रखना कठिन होगा। संभवतया इसी वजह से भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दर में वृद्धि करना उचित नहीं समझा, क्योंकि इससे उपभोक्ता व उद्योगों को समान रूप से चोट पहुँचती।
इसी संदर्भ में प्रश्न यह भी उठता है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने अमेरिकी फेडरल रिजर्व का अनुसरण करके ब्याज दर घटाना क्यों उचित नहीं समझा। वैसे दिसंबर 2007 को जारी रिजर्व बैंक की मौद्रिक समालोचना के समय लगता था कि अगली तिमाही में रिजर्व बैंक ब्याज दर घटाएगा, किंतु उसने न तो ब्याज दर में कोई परिवर्तन किया और न ही रेपो व रिवर्स रेपो दर में। देखा जाए तो अमेरिकी फेड को मुद्रास्फीति बढ़ने से उतना भय नहीं लगता जितना कि आर्थिक मंदी से।
आर्थिक मंदी की स्थिति को दूर भगाने व आर्थिक वृद्धि दर में वृद्धि लाने के लिए सतत रूप से ब्याज दर घटाई जा रही है। सितंबर 2007 के पूर्व तक वहाँ ब्याज दर 5.25 प्रतिशत थी, जो अब घटकर 2 प्रतिशत रह जाने वाली है। भारत में आर्थिक विकास की वृद्धि दर आकर्षक बनी हुई है, इसलिए ब्याज दर घटाकर आर्थिक विकास को बढ़ावा देने की जरूरत नहीं है। हाँ, विकास दर को ठेस न पहुँचे, इसके लिए मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखना जरूरी है।
वैसे रिजर्व बैंक के गवर्नर वायवी रेड्डी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय जगत में 'अनुदारवादी' निरूपित किए जाते हैं और वे अमेरिकी फेडरल रिजर्व या योरपीय सेंट्रल बैंक के गवर्नर की तरह न तो उदार रुख अपनाते हैं और न ही साहसिक निर्णय लेने का हौसला दिखाते हैं। इसलिए 29 अप्रैल को उन्होंने वर्ष 2008-09 की वार्षिक मौद्रिक व साख (कर्ज) नीति की घोषणा करते हुए नकद सुरक्षा अनुपात (सीआरआर) में पुनः 25 प्रतिशत की वृद्धि का निर्णय जाहिर किया तो विश्लेषकों का चौंकना स्वाभाविक था। देश में सीआरआर की दर 20 सितंबर 2004 को 4.5 प्रतिशत थी एवं तब से लेकर 24 मई 2008 तक यह लगातार बढ़कर 8.25 प्रतिशत तक पहुँच जाएगी।
कभी बैंकिंग कमीशनों व कमेटियों ने सीआरआर दर घटाने की सिफारिश की है, किंतु रिजर्व बैंक इसे घटाने की बजाय बढ़ाता ही जा रहा है। सीआरआर सही मायने में बैंकों पर एक तरह का टैक्स है, क्योंकि बैंकें उच्च ब्याज दर पर जमा खातों की रकम एकत्र करती हैं। जमा खातों की कुल रकम से 8.25 प्रतिशत राशि उन्हें अलग रखना पड़ती है।
उस राशि को वह कर्ज में नहीं बाँट सकती अर्थात जमा रकम पर ब्याज चुकाना पड़ता है, पर सीआरआर के तहत अलग रखी गई रकम पर वह कोई कमाई नहीं कर पाती। यह कर 1.50 प्रतिशत से 2 प्रतिशत के मध्य पड़ता है। लिहाजा बैंकें इस कर की पूर्ति के लिए जमा रकमों की ब्याज दर घटा सकती हैं, वहीं वाहन कर्ज को महँगा कर सकती हैं।
घरेलू बाजार की जो आर्थिक स्थिति बनी हुई है एवं वैश्विक अनिश्चितता का जो दबाव अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है, उससे निपटने की व्यवस्था रिजर्व बैंक ने नई नीति में की है। हम इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि भारत में विदेशी पूँजी (डॉलर) की आवक बढ़ने या घटने की स्थिति से निपटने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दर को ऊँची बनाए रखकर देश में बढ़ी हुई प्रवाहिता (रुपए का फैलाव) को समेटने भर की व्यवस्था नई नीति के तहत की है। प्रणाली में प्रवाहिता खूब है।
ऐसे में डॉलर की आवक बढ़ती है तो प्रवाहिता में और वृद्धि होगी। उस संभावित वृद्धि को समेटने के लिए सीआरआर में वृद्धि की है। इस वृद्धि से 24 मई तक करीब 27 हजार करोड़ रु. सीआरआर के तहत प्रवाह से बाहर हो जाएँगे। अगर प्रवाहिता अधिक बढ़ी तो एमएसएस बॉण्ड का सहारा लिया ही जाएगा।
इस नीति में भय इस बात का भी है कि तरलता के अभाव में अर्थव्यवस्था की कहीं साँस न रुँध जाए। पूर्व में प्रवाहिता 21 प्रतिशत थी जिसे अब 16.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष किया गया है। इससे निवेश व उपभोक्ता माँग भी प्रभावित हो सकती है। अगर वैश्विक माँग ने कुछ जोर पकड़ा तो देश के निर्माण उद्योगों के समक्ष कोष का संकट भी खड़ा हो सकता है।
अगर समग्र माँग (उपभोग एवं निवेश) की पूर्ति नहीं हुई तो विकास दर प्रभावित हो सकती है। अगर विकास दर 8 प्रतिशत की बजाय 8.5 प्रतिशत या 8.7 प्रतिशत हो गई तो भी देश में बैंक कर्ज की समग्र माँग में वृद्धि होगी एवं तब देश में मुद्रा के फैलाव को 16.5 प्रतिशत तक घटाना उचित नहीं कहा जाएगा? रिजर्व बैंक को इस पर भी सोचना चाहिए।