चाहे केंद्र हो या राज्य- चुनाव के परिप्रेक्ष्य में सभी के बजट डाँवाडोल हो जाते हैं। लोकतंत्र की सबसे बड़ी खामी यही है कि चार वर्षों तक कठिन मेहनत करने, दूरदर्शी व नवोन्मेषी कदम उठाकर राजकोषीय लेन-देन को युक्तियुक्त व तर्कसंगत स्वरूप देने में जो सफलता मिलती है, वह पाँचवें वर्ष में विकृति में बदल जाती है।
इसका परिणाम यह होता है कि तेज आर्थिक वृद्धि के बावजूद अगले वर्ष पुनः अतिरिक्त संसाधन जुटाने एवं जनता पर कर्ज का बोझा लादने की स्थिति बन जाती है। मध्यप्रदेश में सरकार कांग्रेस की हो या अन्य किसी पार्टी की, वह भी संभवतया वैसा ही करती जैसा कि भाजपा की सरकार ने वर्ष 2008-09 के बजट में किया है।
सही मायने में देखा जाए तो यह वार्षिक बजट होने की बजाय केवल खर्च चलाने के लिए विधानसभा से 9 माह के लेखे (अकाउंट) को पारित कराने के लिए प्रस्तुत किया गया है। इसके लिए राज्य के वित्तमंत्री राघवजीभाई को माफ नहीं किया जा सकता। इसी वजह से वर्ष 2008-09 के कामकाज की वर्ष 2007-08 से सही-सही तुलना नहीं की जा सकती।
तुलनात्मक रूप से मात्र यही कहा जा सकता है यह बजट महज अधिक लोक-लुभावन है और उसमें राज्य की अर्थव्यवस्था को या राज्य के उद्योग व व्यापार को हरियाणा या राजस्थान से आगे ले जाने एवं प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के लिहाज से कुछ नहीं किया गया है। उलटे करीब 112 करोड़ रु. का वित्तीय घाटा दर्शाकर यह सिद्ध कर दिया है कि वर्ष 2007-08 में 12वें वित्त आयोग की दरियादिली कुछ काम नहीं आई, क्योंकि गैर आयोजना खर्च में दरियादिली दिखाना अभी भी जारी रखा गया है।
12वें वित्त आयोग की सिफारिशों से राज्यों को राजस्व में वृद्धि लाने का अच्छा सहारा मिला था, फिर राज्य सरकारों के ब्याज भार घटाने के लिए केंद्र ने ऊँचे ब्याज पर दिए पुराने ऋणों को कम ऋण वाले कर्जों में बदल दिया था एवं घटी ब्याज पर नए कोष जुटाने की अनुमति भी दी थी। वर्ष 2006-07 में राज्यों को 18.1 प्रतिशत की दर का ब्याज भार वहन करना पड़ता था जबकि वर्ष 07-08 में ब्याज की औसत दर घटकर 16.9 प्रतिशत रह गई थी। इसके अलावा राज्यों को केंद्र से करों के हिस्से के रूप में अधिक धन अंतरित हुआ एवं सहायक अनुदान भी अधिक मिला।
इन सबका लाभ उठाकर कई राज्यों ने पूर्व में ऊँची ब्याज दर पर उगाहे गए ऋणों (बॉण्डों) को नियत तिथि के पूर्व ही पुनः खरीदकर अपने ब्याज भार में भारी कमी कर ली किंतु मध्यप्रदेश ने ऐसा करना उचित नहीं समझा। राजनीति उस पर अधिक हावी हो गई अर्थात कर्ज प्रबंधन में राघवजी भाई पिछड़ गए।
भारतीय रिजर्व बैंक चाहता है कि सरकारें बाजार ऋण जुटाने के बजाय अपने कर व करेतर राजस्व में वृद्धि लाएँ एवं राजस्व बढ़ाने के लिए राज्यों को अधिक बेहतर प्रयास करना चाहिए।
मध्यप्रदेश सरकार अगर यह दावा करती है कि उसने राजस्व बढ़ाने के लिए अच्छे प्रयास किए तो उसे यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उसने खर्च में अधिक वृद्धि की है। इसलिए राजस्व में हुई वृद्धि बेमायने हो गई।
देश की आर्थिक वृद्धि की तेजतर्रार दर से राजस्व में वैसे भी भारी-भरकम वृद्धि हो जाती है। ऐसे में अगर मध्यप्रदेश ने करेतर राजस्व में वृद्धि लाने के लिए जनोपयोगी सेवाओं (जैसे सड़क, बिजली, सिंचाई आदि) के शुल्कों को अधिक लाभप्रद बनाया होता एवं योजनागत खर्च से अच्छा लाभ देने वाली आस्तियाँ (एस्सेट्स) निर्मित की होती तो खर्च में उसकी दरियादिली कुछ समझ में आ सकती थी।
शिवराजसिंह एवं राघवजी को यह मालूम है कि इस वर्ष राज्यों को केंद्र से अधिक राशि अंतरित होगी। पूर्व में केंद्रीय करों में राज्यों का हिस्सा 39 प्रतिशत था, जो अब बढ़कर 40.6 प्रतिशत हो गया है। इसके बावजूद बढ़ा-चढ़ा वित्तीय घाटा चिंता की बात है। राज्य सरकार को यह भी मालूम है कि केंद्रीय कर्मचारियों के लिए छठे वेतन आयोग की सिफारिशें आने वाली हैं।
यह सही है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने राज्य सरकारों को यह जता दिया है कि राज्य के कर्मचारियों के लिए केंद्र के समान वेतन, महँगाई भत्ते देना जरूरी नहीं है किंतु लोक-लुभावन बनने के लिए बेताब राज्य सरकार अपने कर्मचारियों को केंद्र के समान वेतन व भत्ते देने से मुँह नहीं मोड़ सकेगी अर्थात राज्य का वित्तीय घाटा और बढ़ेगा यह भी उस स्थिति में जब राज्य सरकार पर वित्तीय कानून के पालन का दायित्व है।
फिर वर्ष 2007-08 से सकल राजस्व प्राप्तियों की राज्य के करों के राजस्व के अनुपात में महज उतनी ही वृद्धि हुई जितनी कि जीडीपी की दर में अर्थात राज्य सरकार ने करों में सुधार के अगर कोई विशेष प्रयास किए होंगे तो वे इस बजट से जाहिर नहीं हो रहे हैं।
वर्ष 2007-08 में राजस्व प्राप्तियाँ राजस्व व्यय से करीब 3 हजार करोड़ रु. अधिक थीं एवं वित्तीय घाटा 91.43 करोड़ रु. का दर्शाया गया था। किंतु वर्ष 2008-09 में कुल आय की वृद्धि दर की तुलना में कुल व्यय की दर अधिक बढ़ गई अर्थात सरकार का व्यय नियंत्रण कमजोर पड़ा है जबकि वित्तीय सुधार का पहला नियम है व्यय प्रबंधन।
फिर आर्थिक मंदी की संभावित आशंका के तहत भी सरकार को चाहिए कि वह कर राजस्व व करेतर राजस्व में सुदृढ़ता लाकर मंदी की स्थिति से निपटने की तैयारी करे। इसमें भी प्रस्तुत बजट असफल रहा है। इसके लिए गैर आयोजना व्यय को युक्तियुक्त करके कुल व्यय में उसके अनुपात को घटाना चाहिए। कुल व्यय में ब्याज के भार का वेतन, भत्ते व पेंशन के खर्च के औसत को कम करना जरूरी है।