-विट्ठल नागर
भारत सरकार एवं भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) डॉलर की बढ़ती आवक से त्रस्त हैं, क्योंकि इस आवक से देश की बैंकिंग प्रणाली में रुपए का फैलाव (प्रवाह) बढ़ रहा है। अच्छे मानसून के बाद भी देश में उपभोक्ता माँग व औद्योगिक निवेश में आई कमी की वजह से रुपए की बढ़ती विनिमय (एक्सचेंज) दर एवं ऊँची ब्याज है जो कि डॉलर की बाढ़ एवं मुद्रास्फीति की कारक है। स्थिति से निपटने के लिए सरकार व रिजर्व बैंक को नई नीतियों व आर्थिक उदार कार्यक्रमों का सहारा लेना चाहिए, किंतु वैसा कुछ करने की बजाय उसने जूने-पुराने व अधूरे कदम उठाए हैं जिनसे देश के व्यावसायिक बैंकों का मुनाफा तो बढ़ा, किंतु इन्फ्रॉस्ट्रक्चर (बुनियादी संरचना), रियल एस्टेट एवं निर्यात, आईटी, फार्मा आदि क्षेत्र के छोटे-बड़े उद्यमों की लागत बढ़ेगी व उनकी बैलेंस शीट प्रभावित होंगी। उन्हें विदेशी पूँजी बाजार के सस्ते कर्ज की बजाए देश के बैंकों से महँगे ब्याज के कर्जों पर निर्भर रहना होगा। इससे बैंकों के निवल ब्याज मार्जिन (एनआईएम) एवं लाभप्रदता में सुधार आएगा, किंतु उद्योगों का क्या?
देश में डॉलर की आवक बढ़ने की चार प्रमुख वजहों में पहली है, एफआईआई। देश के शेयर बाजार से अच्छी कमाई के लालच में विदेशी निवेशक संस्थाएँ देश में डॉॅलर लाती हैं। इसके बाद डॉलर की आवक होती है अनिवासी भारतीयों से। देश में बैंक जमा दर ऊँची (विश्व की तुलना में) होने से वे अपनी विदेश में हुई कमाई की बचत भारतीय बैंकों में जमा कराते हैं।
एफडीआई या विदेशी प्रत्यक्ष निवेश। विदेशी कंपनियाँ भारत के औद्योगिक क्षेत्र से होने वाली अच्छी कमाई से आकर्षित होकर देश के उद्योगों में जोरदार से निवेश करने हेतु भारी पैमाने पर डॉलर लाती हैं। इसके साथ ही ईसीबी (देश की कंपनियों द्वारा विदेशी पूँजी बाजार से भारत की तुलना में सस्ती ब्याज दर पर उधार जुटाना) एवं एफसीसीबी (भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशी निवेशकों को बॉण्ड जारी कर कोष जुटाना। कुछ समय बाद वे बॉण्ड कंपनी के शेयरों में बदले जाते हैं।) भी विदेशी मुद्रा के प्रमुख स्रोत हैं।
सरकार व रिजर्व बैंक अनिवासी भारतीयों (एनआरआई) एवं एफडीआई से होने वाली डॉलर की आवक पर रोक लगाने के पक्ष में नहीं है, क्योंकि ये दोनों भारत के प्राण हैं एवं उन पर रोक लगाने का मतलब है अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। एफआईआई से होने वाले डॉलर की आवक पर थाईलैंड एवं नीदरलैंड ने कुछ रोक लगाई है, उसी तरह चीन ने एफआईआई के बेचान पर 'लॉक इन पीरियड' का प्रतिबंध लगाया है, किंतु भारत वैसा कुछ नहीं करना चाहता। इसलिए अंततः उसने ईसीबी से होने वाली डॉलर की आवक को कम करने का प्रयास किया है कुछ रोक लगाकर।
ऐसा करके दो निशाने साधे गए हैं। देश के व्यावसायिक बैंकों ने जमा रकमें खूब एकत्र कर लीं एवं उनका प्रवाह भी खूब बढ़ा हुआ है, किंतु देश में ऊँची ब्याज दर की वजह से बैंकों के कर्जों की माँग औद्योगिक क्षेत्रों में कम है। इसलिए उसने देश के सभी छोटे व बड़े उद्योगों के लिए विदेशी पूँजी बाजार से सस्ते कर्ज जुटाने का मार्ग सँकरा कर लिया है। इससे देश के उद्योग देश के बैंकों से अधिक कर्ज लेने के लिए बाध्य होंगे एवं देश में डॉलर की आवक घटेगी। इसके अलावा अगर डॉलर की आवक घटती है तो रुपए की विनिमय दर कुछ कमजोर पड़ेगी। ऐसा होने पर बैंकों का प्रवाह व मुद्रास्फीति की दर भी कुछ घटी हुई रहेगी, जो कि औद्योगिक विकास के लिए जरूरी है। ऐसा करके सरकार ने यह नहीं सोचा कि देश के उद्योगों की लागत बढ़ेगी एवं उनके लिए विदेशी प्रतिस्पर्धा में टिके रहना कुछ मुश्किल हो जाएगा और अंततः जीडीपी की दर घटेगी, क्योंकि उद्योगों की बैलेंस शीट में पारदर्शिता घटेगी।
वर्ष 2006-07 में देश के उद्योगों ने विदेशी पूँजी बाजार से 2200 करोड़ डॉलर के विदेशी कर्ज जुटाए थे एवं इन कर्जों की वृद्धि दर जीडीपी की दर से भी 2.1 प्रतिशत अधिक रही थी, किंतु अब इस दर में गिरावट आएगी और उसका विपरीत असर औद्योगिक निवेश पर भी पड़ेगा। एफसीसीबी से वर्ष 2006-07 में उसके पिछले वर्ष की तुलना में 69 प्रतिशत अधिक कोष भारतीय कंपनियों ने जुटाया था, किंतु अब इसकी वृद्धि दर भी घटकर 30-35 प्रतिशत रह जाने की आशंका है।
भारतीय रिजर्व बैंक व सरकार ने ईसीबी पर दो तरह की रोक लगाई है। अभी तक देश की कंपनियाँ लंदन इंटर बैंक उधार दर (लाईबर) की ब्याज दर से 2.5 प्रतिशत अधिक ब्याज देकर उधार जुटा रही थीं, किंतु अब यह प्रतिबंध लगा दिया गया है कि वे लाईबर से दो प्रतिशत से अधिक ब्याज न दें। यह रोक 3 से 5 वर्ष हेतु लिए उधार पर है। 5 वर्ष या अधिक उधार पर लाईबर से 2.50 प्रतिशत अधिक ब्याज न दें जबकि अभी तक 3 प्रतिशत अधिक ब्याज पर उधार लिया जा सकता था।
इसके साथ ही अगर कोई कंपनी दो करोड़ डॉलर से अधिक के कर्ज विदेश में लेती है तो उसे वह रकम विदेश में रखना पड़ेगी एवं खर्च करना पड़ेगी। अर्थात विदेशी कर्ज लेने वाली कंपनियों को विदेशी बाजार से ही मशीनें व उपकरण खरीदने होंगे। इससे देश में बनने वाली मशीनों व उपकरणों का विक्रय घटेगा। सरकार यही चाहती है कि अगर उपकरण भारत से खरीदना है तो भारत में ही बैंकों से ऊँची ब्याज के कर्ज लो। यही निर्णय देश की अर्थव्यवस्था को ठेस पहुँचाने वाला है।